सोमवार, 31 मई 2010

मोबाइल से बजता कैंसर का रिंग टोन...

मुंबई से बाहर जाने पर अगर यहाँ की कोई चीज़ मैं बड़ी शिद्दत से मिस करती हूँ तो वो है...यहाँ के अखबार. TOI तो हर जगह मिल जाता है...पर उसके सप्लीमेंट्स और मुंबई मिरर, मिड डे , डी. एन. ए. ये सब नहीं मिलते..और रोचक...जानकारीपूर्ण ख़बरें तो उनमे ही होती हैं...TOI के मेन न्यूजपेपर में जो ख़बरें छपती हैं, वह सब दिन भर विभिन्न चैनलों पर दिखाई जाती हैं.

अखबार से जुड़ी कुछ रोचक यादें भी है. बचपन में पापा की सख्त हिदयात थी कि हम तीनो भाई बहन रोज अखबार जरूर पढ़ें और अंग्रेजी के पांच शब्द अंडरलाइन करके रखें फिर उनके अर्थ डिक्शनरी से देखकर कॉपी में लिखें. इतना सा काम हमें पहाड़ सा लगता. शाम को पापा के आने से पहले हमें होश आता.फिर हम भाई बहन में झगडे होते...'मुझे दो पेपर...पहले मुझे दो'. कभी कभी हम बिना पढ़े ही अंडरलाइन कर देते और पेपर को ऐसे क्रश कर देते कि लगता पढ़ा है, हमने.(काश, मेरे बच्चे ना पढ़ें ये सब :) ).

पर अखबार पढने की लत जो बचपन में पड़ी...कहाँ जाती है.कहते भी हैं...Old habit dies hard सो .घर के सैकड़ों काम के बीच में 'न्यूजपेपर ब्रेक' चलता ही रहता है. और उनमे पढ़ी कोई रोचक या महत्वपूर्ण खबर यहाँ भी बाँट लेती हूँ. ऐसे ही कल' मिड डे' में डॉ. शाकिर हुसैन जो भारत के टॉप न्युरोफिजिशियन हैं का इंटरव्यू पढ़ा. और अपने देश के लाखों युवजनों का चेहरा आँखों के सामने घूम गया जो हाथों में छुपाये उस छोटे से उपकरण में लगातार कुछ ना कुछ बुदबुदाता ही रहता है. विज्ञापनों में ऋतिक रोशन को फोन पर स्क्रिप्ट सुनते देख और आमिर खान को पूरी रात अपनी गर्लफ्रेंड से बातें करते देख...इनका उत्साह और बढ़ता ही है,कम नहीं होता. और उन्हें ही क्यूँ दोष दें...हम, आप, सब इसके शिकार हैं. पर जितनी जल्दी असलियत से वाकिफ हो जाएँ और इसपर गंभीरता से विचार करें,उतना ही अच्छा

वैसे हम सबों को थोड़ा अंदाजा तो है ही कि देर तक मोबाईल फोन यूज़ करने के घातक परिणाम हो सकते हैं .पर डा.शाकिर हुसैन ने काफी बारीकी से इस पर प्रकाश डाला.

पिछले हफ्ते WHO ने एक रिपोर्ट जारी की कि electromagnetic radiation जो हमारे सेल फोन से निकलती है हमारे ब्रेन के neuro-circuitry में शॉर्ट सर्किट उत्पन्न कर सकती है.

सेल फोन एक तरह की एनर्जी उत्पन्न करती है और इसी तरह की एनर्जी का उपयोग विभिन्न मेडिकल उपकरणों में भी किया जाता है जो कैंसर टिशू को ख़त्म करने के लिए इस्तेमाल की जाती है. हालांकि फोन से निकलती एनर्जी बहुत ही कम फ्रीक्वेंसी की होती है ,इसलिए यह बहुत धीरे धेरे नष्ट करती है. पर इस से नुक्सान होता जरूर है .इसलिए ज्यादा देर तक इस्तेमाल करने पर ब्रेन के कोमल टिशू के नष्ट होने का पूरा खतरा है.

Brain tissues अति कोमल होते हैं इसलिए इनपर जल्दी असर होने का खतरा भी रहता है. radio waves के एक्स्पोजर से इनमे ट्यूमर बन सकता है. दो तरह के growths हो सकते हैं...एक तो meningioma जो ब्रेन को ढके रहने वाली झिल्ली में हो सकती है. पर वह इतनी खतरनाक नहीं है.लेकिन दूसरे तरह की growth को glioma कहते हैं जिसमे कैंसर के कीटाणु होते हैं.और वह जानलेवा साबित हो सकता है. इसलिए सेलफोन का देर तक इस्तेमाल ज़िन्दगी के लिए एक बड़ा खतरा बन सकता है.

सरदर्द, इसका सबसे पहला और आम लक्षण है, मिर्गी, पैरालिसिस, हाथ पैरों में कमजोरी भी बेन ट्यूमर के ही लक्षण हैं. अगर ग्रोथ मस्तिष्क के पिछले भाग में है तो कुछ भी निगलने में, आँखों पर असर और शारीरिक संतुलन पर भी असर पड़ता है. अगर सर दर्द के साथ उलटी भी हो तो इसे गंभीरता से लेना चाहिए.

भारत में इसके इलाज की बेहतर सुविधा उपलब्ध है. डॉक्टर एक gamma knife का इस्तेमाल करते हैं. कैंसर के टिशू को ख़त्म करने के लिए. दूसरी तकनीक भी इस्तेमाल की जाती है,जिसमे ट्यूमर को खून का प्रवाह रोक दिया जाती है जिस से ट्यूमर का ग्रोथ रुक जाता है .

सबसे ज्यादा खतरा नवयुवकों को है जो ज्यादा से ज्यादा देर तक सेलफोन पर ही अपने सहकर्मी ,दोस्त ,रिश्तेदार,परिवारजन से बातें करते हैं.

सेलफोन आज के युग की अनिवार्यता है. फिर भी कुछ सीमाएं खुद ही बनानी होंगी. दो साल तक अगर रोज दो घंटे, सेल फोन का इस्तेमाल किया जाए तो खतरा बढ़ जाता है.इसलिए भले ही ये घीसी पीटी बात लगे पर सच है Prevention is better than cure .

शनिवार, 29 मई 2010

सवाल एक, जवाबी तुक्के कई

कल एक सवाल पूछा था...कई लोगों ने इसे पढ़ा, समझने की कोशिश  की. वक़्त निकाला,और जबाब भी दिया. सबका शुक्रिया...सौरभ,राज जी, महफूज़  को लगा,  अपने कॉलेज के सहपाठी ,जो पहला प्रेमी भी था, उसी से शादी करेगी...क्यूंकि पहला प्यार भुलाना मुश्किल होता है. पर सौरभ ने कहा ये कलयुग है वो भाभी के भाई से शादी करेगी. राज जी ने भी बाद में विचार बदल दिए और उन्हें लगा बिजनेसमैन से शादी करेगी.

वाणी, संगीता जी,अनीता जी,प्रवीण जी, अजय जी, का विचार था
शादी भाभी के भाई से होगी. उन्हें लगा...वह एक लेखक है...मानसिक स्तर समान है, रिश्तेदार भी है..घरवालों को पसंद है..इसलिए उसी से शादी  करेगी

सतीश जी ,वंदना,शिखा,रवि धवन जी ,समीर जी, दीपक मशाल,एम वर्मा जी , पंकज उपाध्याय .अंतर सोहिल ,इन लोगों  को लगा कि अब उसमे व्यावहारिकता आ गयी है और बिजनेसमैन ही एक बेहतर जीवन साथी  हो सकता है.

माधव, खुशदीप भाई, रंगनाथ जी ,अरविन्द मिश्र जी, शेफाली, PD, उदय जी , राजेन्द्र मीणा...ये लोग तय नहीं कर पाए कि लता को किसे पसंद करना चाहिए. ये लोग वह पुस्तक  पढ़कर जानना चाहते थे कि लता ने किस से शादी की पर शायद इन्होने संजीत जी के कमेंट्स नहीं पढ़े. उन्होंने  Suitable  Boy  के हिंदी अनुवाद "एक भला  सा लड़का " का जिक्र किया है और कमेन्ट में भी जिक्र कर दिया है कि लता,  'हरेश' यानि बिजनेसमैन को जीवनसाथी के रूप में  पसंद करती है. और उसी से शादी करती है.

वैसे रवि धवन जी ने सही कहा कि आपके सवाल में ही जबाब छुपा है. अगर लता, अपने पुराने प्रेमी से या उस लेखक से शादी करती तो कोई कन्फ्यूज़न ही नहीं होता. पर चलिए आपलोगों की टिप्पणियों से
कुछ तो समझ में आया कि क्या कारण  हो सकते हैं.

सबसे पहले दीपक मशाल ने कहा, "अब विक्रम सेठ लिखेंगे तो कुछ तो ऐसा होगा जो औरों से हटके होगा."

शिखा,रवि धवन जी को लगा कि वह  कर्मठ है..काम के प्रति अपनी जिम्मेवारी समझता है,इसलिए लता ने उसे चुना.

शिखा का कहना है, "राईटर लोग हर किसी को पसंद नहीं होते :) थोड़े सेल्फ सेंटर्ड से होते हैं :) और वो भी फैमस और अवार्ड विन्निंग "..(हम्म्म्म ये सवालिया निशान तो सारे लेखकों पर लग  गया अब :) )   अंतर सोहिल का भी कहना है, "वैचारिक समानता होने के बावजूद वो लता को समय नहीं दे पायेगा और कुछ उसमें अपनी सफलताओं का अहम भाव भी रहेगा। लता खुश नही रह पायेगी।" पंकज उपाध्याय के अनुसार ," ’बडा’ और ’अवार्ड विनिग’ है तो हो सकता है कि नाम के लिये शब्दो को परोसता हो.. लेखक लोग बंधना भी नही चाहते, थोडे स्वछंद किस्म के होते हैं.. आज़ाद ख्याल वाले"

BTW कहीं यही वजह तो नहीं कि  विक्रम सेठ अब तक कुंवारे हैं..:)


समीर जी का कहना था...वो जुझारू बिजनेसमैन है ,थोड़ा अनकल्चर्ड है,पर उसे सुधारा जा सकता है. अंतर सोहिल का तर्क है  कि विधवा माँ की पसंद है,और 1950 की कहानी है तब की मानसिकता ऐसी ही होती थी.पंकज उपाध्याय का कहना था कि लड़का कर्मठ है और वेल मैनर्ड भी नहीं..तो उसे मैनर्स  सिखाने का मौका मिले शायद इसलिए लता उस से शादी करे(क्या सोच है, नई उम्र की :)...Hope, पंकज सब कुछ सीखे सिखाये होंगे..और कुछ सिखाने की गुंजाईश ना रखें ,तब उन्हें विश्वास हो जायेगा कि लड़की ने उन्हें कुछ सिखाने के लिए उनसे शादी नहीं की है :))

इस उपन्यास का फलक तो बहुत व्यापक है...अपने में भारत के एक महत्वपूर्ण दौर का इतिहास समेटे हुए. पर इसका अंत बहुत ही रोचक है.
लता और हरेश की शादी,बनारस में होती है क्यूंकि उसका पैतृक  आवास वहीँ था. शादी के बाद के रात की पहली सुबह है. हरेश, खिडकी  के पास जाता है और खिड़की से उसे एक बस्ती नज़र आती है जहाँ जानवरों की खाल धोई, सुखाई जाती है. और चमड़े का व्यापार किया जाता है वह 'लता' से कहता है ,' मैं जरा उस बस्ती का एक चक्कर लगा कर आता हूँ' और नई नवेली दुल्हन को  अकेला छोड़ वह कर्मयोगी  काम पर निकल जाता है.

शुक्रवार, 28 मई 2010

एक सवाल


चार,पांच साल पहले मैने , विक्रम सेठ द्वारा रचित एक किताब पढ़ी थी Suitable Boy. जिसे 1994 में common wealth writers prize मिला था .यह 1500 पेज की लम्बी सी किताब है.बिलकुल एक ग्रन्थ के समान. BBC से इसका रेडियो नाट्य रूपांतरण भी प्रसारित हो चुका है. जिसमे लता के चरित्र को आवाज दी थी.प्रसिद्द कलाकार 'आयेशा धारकर ने (जिन्होंने संतोष सिवान की फिल्म The Terrorist में मुख्य भूमिका निभाई थी.)

इस उपन्यास में , स्वतंत्रता के बाद के राजनीतिक और सामाजिक स्थिति का वर्णन है.कहानी 1950 के आस- पास की है. इसमें उत्तर प्रदेश के जमींदारी उन्मूलन का बहुत विस्तार से वर्णन है. भारत के पहले चुनाव का भी पूरा वर्णन है.उपन्यास, मेहरा परिवार के इर्द गिर्द घूमता है. मिसेज मेहरा एक विधवा औरत हैं.और अपनी बेटी लता के लिए एक suitable boy की तलाश में हैं. लता कॉलेज के एक सहपाठी से प्यार करती थी. उसके साथ भाग जाने को भी तैयार हो गयी. पर लड़के ने उसे समझाया..कि अभी पढ़ रहें हैं..कहाँ जाएंगे...क्या कमाएंगे.और वह लता को हर वापस जाने की सलाह देता है.

उसके बाद वह कलकत्ता अपने भाई के पास चली जाती है. भाई बड़ी कंपनी में अफसर है और उन्होंने एक बड़े घर की लड़की से प्रेम विवाह किया है. कलकता के उच्च वर्ग के जीवन शैली की अच्छी झलक दिखाई है. लता की भाभी का भाई, एक बड़ा लेखक है, बहुत सारे अवार्ड्स मिले हैं उसे.अक्सर विदेशी दौरों पर कॉन्फ्रेंस के लिए जाता है. बुद्धिजीवी सुरुचिपूर्ण व्यक्तित्व का मालिक. देखने में भी सौम्य और प्रभावशाली व्यक्तित्व है, उसका. भाभी के घर वाले चाहते हैं,लता की शादी उस से हो जाए.लता को भी उसका साथ पसंद है,दोनों कविताओं...कहानियों किताबों की चर्चा करते हैं. पर उनके बीच कोई स्पार्क नहीं है.

तीसरा लड़का उसकी माँ को किसी मैरेज ब्यूरो द्वारा बताया गया है.. उसकी एक छोटी सी जूतों की फैक्ट्री है. उसके तौर-तरीके सुरुचिपूर्ण नहीं है. जब ये लोग उस से मिलने जाते हैं तो पाते हैं,उसे टेबल मैनर्स नहीं है. उसने भड़कीले कपड़े पहने होते हैं.पर वो कर्मठ है.और पूरे समय उनसे जूतों,चमड़े आदि की ही बातें किया करता है.

इधर लता के कॉलेज के प्रेमी के भी ख़त आने लगते हैं. अब पढाई पूरी कर के वह अच्छी नौकरी में है और लता के सामने, शादी का प्रस्ताव रखता है. घर वालों की अनुमति के बगैर उसके साथ भाग कर शादी करने को भी तैयार है. लता उसके ख़त पढ़कर घंटों रोती है.   क्यूंकि वह उसके प्यार को भूली नहीं है.

जब से यह उपन्यास पढ़ा है...एक उलझन में हूँ कि लता ने उस लड़के को क्यूँ चुना ,शादी के लिए बाकी दूसरे को क्यूँ नहीं.?...उस पर कहीं से  कोई दबाव नहीं था.उसे अपनी इच्छा से अपने जीवन-साथी का चुनाव करना था. बहुत सोचा पर स्पष्ट नहीं हो पाता. सोचा अपने ब्लॉग जगत के साथियों से पूछना चाहिए.शायद वे कोई मदद कर सकें,इसे समझने में. पर यहाँ मैं यह रहस्य ही रख रही हूँ कि लता ने किसे चुना?...अब मेरी पाठकों से यह अपेक्षा है कि वे बताएं कि लता किस लड़के से शादी करती है? ...इसका जबाब मैं अगली पोस्ट में बता दूंगी. जिनलोगों ने ये किताब पढ़ रखी है वह व्याख्या कर सकते हैं कि लता ने उस लड़के को क्यूँ चुना,बाकी दोनों को क्यूँ नहीं.?? तोइन्तज़ार है आपकी प्रतिक्रियायों का,शायद मेरी उलझन सुलझ जाए

गुरुवार, 27 मई 2010

"सरोगेट मदर्स " से जुड़े कुछ नए और रोचक तथ्य


पिछली पोस्ट 'सरोगेट  मदर्स' पर  लिखी थी. उसके बाद से ही टाइम्स ऑफ इंडिया में रोज ही उस से
सम्बंधित कुछ रोचक ख़बरें पढने को मिलीं. सोचा आपलोगों से ये भी शेयर कर लूँ,....इसलिए भी कि सारी ख़बरें सुखद हैं, जिनकी आजकल बहुत कमी महसूस होती है.

आज के ही TOI में जर्मनी के नागरिक Jan Balaz और Susan Anna Lohlad  की खुशियाँ लौट आने की खबर है. 2008 में इन दोनों के जुड़वां बच्चे को एक  भारतीय सरोगेट माँ ने जन्म दिया था. पर इन बच्चों को दोनों देशों ने  नागरिकता प्रदान करने से इनकार कर दिया क्यूंकि जर्मनी में सरोगेसी को कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं है और भारत में सरोगेट माँ को नहीं बल्कि donor parents  को असली माता-पिता माना जाता  है. इन जर्मन दम्पति ने दो साल की कानूनी लड़ाई लड़ी. और inter-country adoption policy  के तहत  इन्हें अपनाना चाहा. गुजरात हाई कोर्ट ने इन बच्चों को भारतीय पासपोर्ट जारी करने का आदेश दिया क्यूंकि इन्हें एक  भारतीय माँ ने जन्म दिया था. पर सरकार की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले के खिलाफ अपील की गयी. जर्मन दंपत्ति  निराश हो चुके थे कि शायद इनके बच्चे नगरिकताविहीन ही रह जाएंगे.लेकिन 26 मई 2010  को सुप्रीम कोर्ट ने इनकी माथे से चिंता की रेखाएं मिटा दीं और होठों की मुस्कान वापस कर दी और बच्चों के  exit permit  जारी करने के आदेश दिए.अब उनके माता-पिता अपने बच्चों को अपने देश ले जा सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने सरोगेसी से सम्बंधित निश्चित क़ानून ना होने पर चिंता व्यक्त  की. Solicitor General Subramaniam ने कोर्ट को सूचित किया कि इससे सम्बंधित क़ानून का प्रारूप तैयार कर लिया गया है और जल्दी ही इसे पेश किया जायेगा.

इजराइल के Gay Couples भी अपने जुड़वां बच्चों को अब अपने देश ले जा सकेंगे. इजराइल सरकार ने उन बच्चों के  इजराइली  पासपोर्ट जारी कर दिए हैं. इस से पहले एक जेरुसलम कोर्ट ने उन्हें इजराइली नागरिकता प्रदान करने से इनकार कर दिया था. पर शायद यह अंतिम  उदाहरण होगा, किसी gay  couple के  द्वारा किसी भारतीय सरोगेट माँ का सहारा लेने का. Indian council of medical research ने स्वास्थ्य मंत्रालय को एक प्रारूप तैयार कर  के दिया है कि चूँकि भारत में gay और lesbian relation को मान्यता प्राप्त नहीं है इसलिए वे  भारत आकर सरोगेसी की प्रक्रिया के द्वारा बच्चा नहीं अपना सकते.  दुनिया  भर से बहुत सारे gay couple  भारत आ कर इस प्रक्रिया का सहारा ले रहें हैं. यह क़ानून लागू हो गया तो इस पर रोक लग जाएगी.

अब एक कुछ अलग सी खबर भारत से है.पता नहीं, नैतिकता  के सिपाही इसपर  क्या कहेंगे.

सूरत की एक माँ,  अपनी बेटी को triplets (तीन बच्चे)  का उपहार देने वाली है.भाविका का जन्म बिना   uterus के हुआ.छः वर्ष पूर्व भाविका ने सौरभ काठियावाड़ी से प्रेम विवाह किया. सौरभ विवाह से पूर्व जानते थे कि भाविका माँ नहीं बन सकती .विवाह के कुछ दिन बाद ये लोग बच्चा गोद लेने की सोचने लगे. पर दो वर्ष पूर्व डा.पूर्णिमा ने इन्हें सरोगेसी के बारे में बताया. इसके बाद ये लोग एक योग्य सरोगेट माँ की खोज में लग गए पर यह प्रक्रिया बहुत महँगी थी.

एक दिन भाविका की माँ शोभना चावड़ा  उनके घर आयीं. और खुद को सरोगेसी के लिए प्रस्तुत कर दिया. उनके बेटी और दामाद  आश्चर्यचकित भी हुए पर खुश भी बहुत हुए. अब वे triplets (तीन बच्चे) को जन्म देने वाली हैं. शोभना का कहना  है "इस से अच्छा उपहार मैं अपनी बेटी को नहीं दे सकती थी" भाविका का कहना है, "मेरे पास शब्द नहीं है माँ के प्रति अपनी भावनाएं व्यक्त करने के लिए

शुक्रवार, 21 मई 2010

सरोगेट मदर्स क्या सचमुच एक 'अवन' की तरह हैं??

एक विषय कुछ ऐसा है, जिसपर मैं अपना मत नहीं बना पायी हूँ, कि यह सही है या नहीं और इसे बढ़ावा देना चाहिए या नहीं .और वो है सरोगेट मदर्स  का. भारत, दुनिया भर के माता-पिताओं के चेहरे पर मुस्कान लाने में सक्षम हुआ है.दुनिया भर से लोग यहाँ आते हैं.पैसे के बल पर एक कोख किराए पर लेते हैं और गुलगोथाने से बच्चे को गोद में लिए वापस अपने देश चले जाते हैं.

भारत के लिए बच्चे के जन्म लेने की ये प्रक्रिया कोई नई नहीं है. प्राचीन धर्मग्रंथों में भी इसका जिक्र है. और Gestational surrogacy का सबसे अच्छा उदहारण है भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम का जन्म. राजा कंस के डर से देवकी के गर्भ से उनका प्रतिरोपण रोहिणी देवी के गर्भ में कर दिया गया. वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो sperm donor हुए वासुदेव,egg donor देवकी और उन्हें जन्म दिया रोहिणी देवी ने. बाइबल में भी इसका जिक्र है और चैप्टर १६ में अब्राहम और सारा का उल्लेख है कि 'सारा' बंध्या थीं और उन्होंने अपनी दासी 'हैगर' से आग्रह किया था कि वो उनके और अब्राहम के बच्चे को जन्म दे.

Surrogacy दो तरह की  होती है Traditional surrogacy  और Gestational surrogacy .Traditional surrogacy में sperm पिता के ही होते हैं पर egg किसी दूसरी महिला का और इसे ट्यूब में fertilize कर और इसे जन्म देने वाली माँ  के गर्भ में प्रतिरोपित  कर दिया जाता है. Gestational surrogacy में पिता के sperm और माँ के egg को fertilize कर किसी अन्य महिला (सरोगेट मदर) के गर्भ में प्रतिरोपित  कर दिया जाता है.

आधुनिक युग  में अमेरिका में १९७८ में IVF पद्धति से पहले  टेस्ट ट्यूब बेबी लुइ ब्राउन का जन्म हुआ और कुछ ही महीनो बाद ३ अक्टूबर १९७८ को कलकत्ता में भारत की पहली टेस्ट ट्यूब बेबी का जन्म हुआ,जिसका नाम रखा गया 'दुर्गा' .पर जिस घटना ने अंतर्राष्ट्रीय समाचार पत्रों में स्थान बनाया वह थी.२००४ में ,गुजरात के 'आनंद' नमक एक छोटे से शहर की एक महिला का लन्दन में रहने वाली अपनी बेटी के बच्चे को जन्म देना.

डॉक्टर  का कहना है, हर वर्ष  विश्व भर में  करीब ५०० बच्चे ,सरोगेसी की प्रक्रिया से जन्म लेते हैं.उनमे करीब २०० बच्चे भारत में जन्म लेते हैं.जाहिर है,भारत की गरीबी और इसी सहारे अपना जीवन सुधारने की आकांक्षा लोगों को इसके लिए प्रेरित करती है. हर IVF क्लिनिक एक सरोगेसी  एजेंसी से जुड़ी होती है. इसके एजेंट ,झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाली गरीब महिलाओं से संपर्क करते हैं और अपने जीवन स्तर सुधारने ,अपने बच्चों का भविष्य बनाने का एक अवसर मिलता देख,ये लोग एक अच्छी रकम ले  बच्चे को जन्म देने को तैयार हो जाती हैं. क्लिनिक वाले इन महिलाओं का पूरा ख्याल रखते हैं पर  पति की रजामंदी  जरूरी होती है.उन्हें भी बुलाकर काउंसिलिंग की जाती है. फिर भी उन्हें परिवार के अन्य सदस्यों की नाराजगी और पड़ोसियों की तानाकशी तो सुननी ही पड़ती है. लेकिन जब वे उन्हें एक साल के बाद अपनी झोपड़ी छोड़, अपने फ़्लैट में शिफ्ट होते और जीवन स्तर में सुधार देखते हैं तो कई अन्य महिलायें भी यह राह अपना लेती हैं.

भारत की तरफ आकृष्ट होने की कुछ वजहें और हैं. इस प्रक्रिया का कम खर्चीला होना. यहाँ एक बच्चे के जन्म में १० लाख से २५ लाख तक का खर्च आता है जबकि अमेरिका में यही खर्च बढ़कर ५५ लाख का  हो जाता है. वैसे जन्म देने वाली माँ के हिस्से २,३ लाख रुपये ही आते हैं. ५०,००० एजेंट ले लेते हैं और बाकी पैसे प्रतिरोपण,दवाइयां और माँ की देखभाल में खर्च होते हैं.भारत में कानून भी उनके पक्ष में है वह सरोगेट माँ को नहीं बल्कि donors को ही बच्चे का कानूनी संरक्षक मानता है. इंगलैंड और ऑस्ट्रेलिया में जन्म देने वाली माँ को ही यह अधिकार प्राप्त है.फिर भारत में लोग बच्चे को सौंपने से इनकार नहीं  करते.जबकि कई बार विदेशों में माँ ने बाद में इनकार कर दिया है,बच्चे को सौंपने से.

शिकागो के बेनहूर सैमसन ने २००६ में सरोगेसी कंसल्टेंसी शुरू की ,वे अमेरिका,इंग्लैण्ड  ,कनाडा से इच्छुक दंपत्ति को भारत लाते हैं.उनका कहना है ४ साल में उनका बिजनेस ४०० गुणा  बढ़ गया है.

यहाँ, बिलकुल गहरे श्याम वर्ण की लडकियां, विदेशी नाक नक्श के सफ़ेद गुलाबी बच्चों को जन्म देती हैं. डॉक्टर यशोधरा म्हात्रे का कहना है, 'गर्भ एक अवन की तरह है ,इसमें काला चॉकलेट केक बेक करना है या सफ़ेद वनिला केक यह आपकी मर्ज़ी पर है". पर यह सुन.मन थोड़ा सशंकित हो जाता है. बच्चे को जन्म देने की प्रक्रिया क्या इतनी मेकैनिकल हो सकती है.? अजन्मे बच्चे से भी माँ का एक जुड़ाव होता है.पर यहाँ अगर भावनाएं जुड़ी रहेंगी तो फिर माँ बच्चे से अलग कैसे हो पायेगी?



एक विचार यह भी सर उठाता है कि अपने बच्चे के इच्छुक माता-पिता के लिए इस से बड़े पुण्य का  काम और क्या हो सकता है कि आप उनका ही अंश  उनके गोद में सौंप सकें. चाहे हम एडॉप्शन की कितनी भी वकालत करें.पर इस से इनकार नहीं कर सकते कि हर स्त्री-पुरुष में अपने बच्चे को गोद में खिलाने की आकांक्षा होती है. कितने ही निःसंतान दंपत्ति की ज़द्दोज़हद देखी है.बरसों इलाज. स्त्रियों का अनेकों शारीरिक कष्ट से गुजरना और अगर विज्ञान उन्हें यह सुविधा मुहैया  करवा रहा है. और इसी बहाने वह किसी के जीवन में सुधार लाने में भी सक्षम होते हैं तो क्या गलत है इसमें? पर भविष्य की एक भयावह तस्वीर भी खींच जाती है कि यह चलन आम ना हो जाए.और कहीं इसका दुरुपयोग ना शुरू हो जाए.आज मजबूरी में वे यह प्रक्रिया अपना रहें हैं,भविष्य में यह शौक  ना बन जाए.

मंगलवार, 18 मई 2010

जावेद अख्तर की एक प्यारी सी नज़्म

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अक्सर मेरे एक  ब्लॉग का मूड  दूसरे ब्लॉग पर भी परिलक्षित होता है, 'मन का पाखी' पर  कहानी ने कुछ गंभीर मोड़ लिया तो बैलेंस करने को यहाँ कुछ  हल्का फुल्का लिखना पड़ा.यहाँ निरुपमा के बहाने लड़कियों के प्रति माता-पिता की उदासीनता के विषय में लिखा तो मन इतना खिन्न हो गया कि एक  हफ्ते तक ,कहानी की अगली किस्त नहीं  लिख पायी...(ढेर सारी शिकायतें भी सुननी पड़ीं :)) अब वहाँ कहानी एक सुखद मोड़ पर समाप्त हो गयी है, तो कुछ गंभीर लिख, मूड बिगाड़ने का मन नहीं हो रहा....

अपने कॉलेज के दिनों में ही वो लम्बी कहानी लिखी थी और उन्ही दिनों...उन्हीं पन्नो के बीच  'जावेद अख्तर'  की ये  नज़्म भी कहीं से नोट की थी,जो मुझे काफी पसंद थी...सोचा आपलोगों को भी पढवा दी जाए और जिन लोगों ने पढ़ रखी हो,उन्हें उसकी याद दिला दी जाए

नज़्म

मैं भूल जाऊं तुम्हे
अब यही मुनासिब है .
मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
कि तुम तो फिर भी हकीकत हो
कोई ख्वाब नहीं.
यहाँ तो दिल का ये आलम है ,क्या कहूँ
कमबख्त !!
भुला ना पाया ये, वो सिलसिला
जो था ही नहीं
वो इक ख़याल
जो आवाज़ तक गया ही नहीं
वो एक बात
जो मैं कह नहीं सका तुमसे
वो एक रब्त
जो हम में कभी रहा ही नहीं
मुझे है याद वो सब
जो कभी हुआ ही नहीं.

सोमवार, 17 मई 2010

महिला ब्लॉगर्स का सन्देश जलजला जी के नाम

कोई मिस्टर जलजला एकाध दिन से स्वयम्भू चुनावाधिकारी बनकर.श्रेष्ठ महिला ब्लोगर के लिए, कुछ महिलाओं के नाम प्रस्तावित कर रहें हैं. (उनके द्वारा दिया गया शब्द, उच्चारित करना भी हमें स्वीकार्य नहीं है) पर ये मिस्टर जलजला एक बरसाती बुलबुला से ज्यादा कुछ नहीं हैं, पर हैं तो  कोई छद्मनाम धारी ब्लोगर ही ,जिन्हें हम बताना चाहते हैं कि हम  इस तरह के किसी चुनाव की सम्भावना से ही इनकार करते हैं.

ब्लॉग जगत में सबने इसलिए कदम रखा था कि न यहाँ किसी की स्वीकृति की जरूरत है और न प्रशंसा की.  सब कुछ बड़े चैन से चल रहा था कि अचानक खतरे की घंटी बजी कि अब इसमें भी दीवारें खड़ी होने वाली हैं. जैसे प्रदेशों को बांटकर दो खण्ड किए जा रहें हैं, हम सबको श्रेष्ट और कमतर की श्रेणी में रखा जाने वाला है. यहाँ तो अनुभूति, संवेदनशीलता और अभिव्यक्ति से अपना घर सजाये हुए हैं . किसी का बहुत अच्छा लेकिन किसी का कम, फिर भी हमारा घर हैं न. अब तीसरा आकर कहे कि नहीं तुम नहीं वो श्रेष्ठ है तो यहाँ पूछा किसने है और निर्णय कौन मांग रहा है? 
हम सब कल भी एक दूसरे  के लिए सम्मान रखते थे और आज भी रखते हैं ..
                            
 अब ये गन्दी चुनाव की राजनीति ने भावों और विचारों पर भी डाका डालने की सोची है. हमसे पूछा भी नहीं और नामांकन भी हो गया. अरे प्रत्याशी के लिए हम तैयार हैं या नहीं, इस चुनाव में हमें भाग लेना भी या नहीं , इससे हम सहमत भी हैं या नहीं बस फरमान जारी हो गया. ब्लॉग अपने सम्प्रेषण का माध्यम है,इसमें कोई प्रतिस्पर्धा कैसी? अरे कहीं तो ऐसा होना चाहिए जहाँ कोई प्रतियोगिता  न हो, जहाँ स्तरीय और सामान्य, बड़े और छोटों  के बीच दीवार खड़ी न करें.  इस लेखन और ब्लॉग को इस चुनावी राजनीति से दूर ही रहने दें तो बेहतर होगा. हम खुश हैं और हमारे जैसे बहुत से लोग अपने लेखन से खुश हैं, सभी तो महादेवी, महाश्वेता देवी, शिवानी और अमृता प्रीतम तो नहीं हो सकतीं . इसलिए सब अपने अपने जगह सम्मान के योग्य हैं. हमें किसी नेता या नेतृत्व की जरूरत नहीं है.
इस विषय पर किसी  तरह की चर्चा ही निरर्थक है.फिर भी हम इन मिस्टर जलजला कुमार से जिनका असली नाम पता नहीं क्या है, निवेदन करते हैं  कि हमारा अमूल्य समय नष्ट करने की कोशिश ना करें.आपकी तरह ना हमारा दिमाग खाली है जो,शैतान का घर बने,ना अथाह समय, जिसे हम इन फ़िज़ूल बातों में नष्ट करें...हमलोग रचनात्मक लेखन में संलग्न रहने  के आदी हैं. अब आपकी इस तरह की टिप्पणी जहाँ भी देखी जाएगी..डिलीट कर दी जाएगी.
(मैने अपनी इस पोस्ट पर  टिप्पणी का ऑप्शन नहीं रखा है..सॉरी)

मंगलवार, 11 मई 2010

बहुत याद आता है , नीम का वो पेड़

कुछ दिन पहले मॉर्निंग वाक पे मेरी सहेली ने, फलों से लदे एक कटहल के पेड़ को दिखाते हुए कहा, '.तुम्हे पता है...कटहल जड़ों के पास  भी फलते हैं'.मैने कहा 'हाँ...मैने भी देखा है'..फिर वो बताने लगी कि केरल के एक गाँव में उसकी मौसी के घर के पास एक कटहल का पेड़ है, वहाँ उसने बड़े बड़े कटहल ..जड़ों के पास फले हुए देखे हैं..कल उसकी मौसी  का फोन आया और वह बहुत दुखी है क्यूंकि उस पेड़ को लोग काटने वाले हैं..वह इतना बड़ा हो  गया है और आंधी में इतने जोरों से हिलता है कि कभी भी उनके घर पर गिर  सकता है...उसकी मौसी बहुत दुखी थी..मेरी सहेली भी दुखी थी..उसकी बचपन की स्मृतियाँ जुड़ी थीं उस पेड़ से.
और मुझे एकदम से अपने गाँव का नीम का पेड़ याद आ गया.
जब भी गाँव जाती...दिन में दस बार दो शब्द  जरूर कानों में पड़ते.."नीम तर" ..बच्चे कहाँ खेल रहें हैं  हैं,"नीम तर"....बाबा  कहाँ बैठे हैं..नीम तर'...प्रसाद काका कहाँ हैं..'नीम तर'

और एक बार जब गाँव गयी और फिर अपने प्रियस्थल ' नीम तर' गई तो देखा वहाँ नीम का पेड़ नहीं था,बल्कि एक आलीशान भवन खड़ा था.
और अपने घर के दालान में छुपकर यह कविता लिखी थी. तब से वह इस डायरी से उस डायरी में रीन्यू होती रही..और अब तो बरसों से उनके पन्ने भी नहीं पलटे. उस दिन आकर ढूंढ कर निकाला. और कुछ ब्लॉग मित्रों को दिखाया..क्यूंकि 'कविता' मेरी विधा नहीं है..और कांफिडेंस भी नहीं था..उन्हें बहुत पसंद आई और एक लम्बा सा wowwwwww  भी लिख दिया प्रतिक्रिया में शायद मेरा उत्साह बढाने को :)


और  भारत एक है का एक और सजीव उदाहरण...केरल के एक छोटे से गाँव के कटहल  के पेड़ ने बिहार के एक गाँव के नीम के पेड़ से अपने दुख बांटे

 बहुत याद आता है , नीम का वो पेड़

 बहुत दिनों बाद आई , बिटिया
हवा में घुली,मिटटी की सोंधी महक ने , जैसे की हो शिकायत

पाय लागू काकी, राम राम काका,  रामसखी कईसी हो तुम
पूछते चल पड़े, डगमग से.  विकल कदम,
मिलने को उस बिछड़े साथी से,
दिया था जिसने साथ,हरक्षण , हरदम

शाम होते ही उसकी शाखाओं पर गूंजता,पंछियों  का कलरव
जड़ों के पास लगा होता,बच्चों का जमघट
मेघों का कोमल तम, श्यामल तरु से छन
आलस दूर करता , लालसा भरता गोपन

रात होती और जमा होती बहुएं,घर घर से
जो दिन के उजाले में होती किवाड़ों के पीछे,
बड़े बूढों के डर से.
हंसी ठिठोली होती
बांटे जाते राज
पोंछे जाते आंसू
और समझाई जाती बात

मनाया था,इस नीम के पेड़ ने ,उन रूठे बेटों को
जो,घर से झगड़ ,आ बैठते थे,इसकी छाँव
दिया था दिलासा,उस रोती दुल्हन को
जब रखी,  उसकी डोली कहारों ने
और सुस्ताने बैठे थे पल भर ,इस ठांव.

इसकी कोमल दलों  ने दुलार से
सहलाया था,उन फफोलों को
जब निकलती थी माता
गाँव के मासूम  नौनिहालों  को.


पहनी रहती ,बच्चियां
नीम के खरिकों के छोटे छोटे टुकड़े
नाक-कान छिदवाने के बाद.
ताकि,पहन सकें झुमके और नथ
जब लें फेरें अपने साजन के साथ.

सुबह होती,बांटता सबको दातुन
गाँव की चमकती हंसी रहें,सलामत
औषधीय गुणों से, स्वस्थ रखे तन मन
जैसे हो इसका गंगा पुत्र जैसा, भीष्म प्रण
.

मार्तंड  की  प्रचंड  किरणों  से बचने
रोटी,प्याज,मिर्ची,नमक की लिए पोटली.
पी, ठंडा पानी कुंए  का,शीतल छाया के नीचे
चला  आता  किसान , विश्राम  हेतु , घडी दो घड़ी.


आता दशहरा और खेली जाती रामलीला
सजती चौपाल भी और किए जाते फैसले
चुप खड़ा देखता नीम, इस जग की लीला
देखता  बदलती  दुनिया  और  जग  के  झमेले .

तेज होती गयी  चाल,याद करते एक-एक पल.
अब मिलने को मन हो रहा था ,बहुत ही विकल
पर झूमता,इठलाता,खुद पर इतराता
कहाँ था वह नीम का पेड़??
खड़ा था,वहाँ  एक लिपा-पुता बेजान भवन
दंभी ,अभिमानी ,व्योम  से नजरे मिलाता .


 तीक्ष्ण  सूरज  दिखा रहा था  नाराजगी,सर पर चढ़ के
नहीं थी शीतल छाँव नीम की, ना  ही  वो  नीम  बयार
 कुपित  हुई धरा  ,गाँव तो अनाथ हो गया हो जैसे.
शिथिल  कदम  लौट  चले , यादों में संजोये उस नीम का प्यार.


गुरुवार, 6 मई 2010

माता-पिता की स्नेहिल छाया के अभाव में ज़िन्दगी की कड़ी धूप में जलती ये निरुपमायें

पता नहीं, निरुपमा की मौत का सच सामने आ पायेगा या नहीं. अगर मान लें , उसके माता-पिता ने हत्या नहीं की पर जमीन तो तैयार की ही उसकी आत्महत्या के लिए. और ये अकेला उदाहरण नहीं है हमारे समाज में,पता नहीं कितनी निरुपमायें, या तो मार दी जाती हैं, आत्महत्या कर लेती हैं या फिर तिल तिल कर जलती रहती हैं और उन्हें जन्म देने वाले स्नेहिल हाथ उनके सर की छाया नहीं बनते.

मेरी छोटी बहन सी एक सहेली है.जब से ब्लॉग पर लिखना शुरू किया.उसकी कहानी लिखने का मन था,उस से इजाज़त भी ले ली थी. क्यूंकि वह अब सुदूर दक्षिण के एक शहर में है और उसके परिवार का ना कोई मुझे जानता है,ना ब्लॉग ही पढता है.पर शायद जेहन में पलती यह कहानी इस क्षण के इंतज़ार में थीं.पर उसके पहले एक और सच्ची घटना का जिक्र कि कैसे पढ़े लिखे आधुनिक माता-पिता भी झूठी शान का शिकार हो जाते हैं. मुंबई के कोलाबा जैसे पौश इलाके में रहने वाले एक इसाई परिवार की लड़की का प्रेम एक इसाई लड़के से ही हो जाता है.पर वह गोवन कैथोलिक है .इसलिए माता-पिता मंजूर नहीं करते.उसे दक्षिण के एक गाँव में उसकी दादी के पास छोड़ आते हैं.और जल्दबाजी में उसकी शादी पास के एक शाहर के ,एक साधारण से युवक से कर देते हैं जो ड्रग एडिक्ट निकलता है. उसे मारता-पीटता है फिर भी वे कहते हैं निभाओ.लड़की नौकरी करने लगती है और एक दिन तंग आकर घर छोड़ एक रिश्तेदार के यहाँ शरण ले लेती है. उसके माता-पिता वहीँ उसे एक घर किराये पर लेकर उसका अकेले रहना मंजूर कर लेते हैं पर साथ में मुंबई लाने से इनकार कर देते हैं कि लोग क्या कहेंगे ??.और कुछ सालों बाद उनका इकलौता लड़का एक महाराष्ट्रियन से शादी कर लेता है और वे कुछ नहीं कर पाते.

अब मेरी छोटी बहन की कहानी. कुछ साल पहले वो मेरी बगल की बिल्डिंग में अपने पति और दो छोटे बच्चों के साथ शिफ्ट हुई. .उसे कभी चलते नहीं देखा मैंने...हमेशा भागती रहती. दोनों बच्चों के स्कूल का अलग समय. पति सुबह ८ बजे जाता और रात के दस बजे वापस आता. स्कूल,बाज़ार, डॉक्टरों के चक्कर सारा भार उसके ऊपर ही था. इस बीच मुंबई  घूमने वाले रिश्तेदारों का हुजूम भी आता रहता और उन्हें ले चिलचिलाती धूप में कभी वह शौपिंग के लिए लेकर जाती,कभी मुंबई दर्शन को. पर मुझे देख ख़ुशी होती वह हमेशा चहकती  रहती और यहाँ के अनुरूप ढाल लिया था खुद को.एक दिन बातों बातों में 'दीदी' का संबोधन देकर तो हमेशा के लिए ही दिल में जगह बना लिया उसने. फिर भी कभी घर आना-जाना नहीं था. मेरे बच्चे बड़े, उसके छोटे.हमारी फ्रेंड सर्किल अलग थी.और समय की कमी भी एक बड़ी वजह थी.

एक दिन उसकी बेटी का आइ-कार्ड मुझे गेट के पास पड़ा मिला और मैंने सोचा घर दे आऊं,वो परेशान होगी. जब उसने दरवाजा खोला,तो देखा उसकी आँखें पनीली और लाल थीं. पूछने पर जबरदस्ती मुस्कुराते  हुए बोली,'नहीं..ऐसे ही सर में बहुत दर्द था'.पता नहीं कैसे मैंने जबरदस्ती ही उसके घर के अंदर कदम रख दिया.और उसके आंसुओं का बाँध टूट गया. उसने अपनी पूरी रामकहानी बतायी कि उसका पति इतना पढ़ा-लिखा है, इतने अच्छे पद पर है पर बहुत गुस्सैल है. छोटी छोटी बातों पर नाराज़ हो कर चीजें  उठा कर फेंक देता है और उसपर हाथ भी उठाता है. गाली-गलौज करता है और फिर दिनों तक बात नहीं करता. जब मैंने पूछा तुमने अपने माता-पिता को नहीं बतायी,ये बात? तब उसने कहा,हर बात बतायी है. शादी के  एक साल बाद ही ये सब शुरू हो गया.तब से ही सबकुछ बताया है.पर वे लोग ,बस कहते हैं..गुस्सा आ जाता है उसे. तुम गुस्सा मत दिलाया करो. ये सब चलता रहता है. उसने इतना आजिज होकर कहा  कि वह  सिर्फ इतना चाहती थी कि कभी वे प्यार से ही उसके पति से पूछें कि' वह हाथ क्यूँ उठाता है?' पर उन्होंने  जैसे आँखें ही बंद कर ली हैं. अपने रिश्तेदारों में पड़ोसियों में वे दामाद के गुण गाते नहीं थकते कि वह इतना कमाता है. बच्चे इतने अच्छे स्कूल में पढ़ते हैं. इतने कीमती तोहफे उन्हें लाकर देता है. बेटी के सुख की उन्हें कोई चिंता नहीं है.

वो पढ़ी लिखी है ,अपने पैरों पर खड़ी हो सकती है. पर कितनी तनख्वाह मिलेगी उसे? कहाँ रहेगी? दोनों बच्चों की देखभाल ,भरण-पोषण कैसे करेगी? ये सारे सवाल उसे तलाक के लिए सोचने नहीं देते. उसका एक भाई भी है ,उच्च पद पर है पर समझता है ये सब उसके पिता की जिम्मेवारी है. पिता क्लास वन पोस्ट से रिटायर हुए हैं. पर उनकी भी बस वही चिंता है, "लोग क्या कहेंगे ?"
मुंबई से  जाने के पहले तक जब भी वो नीचे मिली मुस्कुराती हुई ही मिली. कभी पूछने पर कह देती, 'सब कुछ वैसा ही है..पर क्या करूँ बच्चों का मुहँ देख कर हंसती रहती हूँ,नहीं तो उनपर असर पड़ेगा." फोन पर भी यही कहती है.

और यह अकेली लड़की नहीं है,पता नहीं कितनी लडकियां अंदर से यूँ तिल-तिल मर कर भी ऊपर से मुस्कुरा रही होंगी. उनके माता-पिता ,निरुपमा के मात-पिता से कैसे अलग है? यह तो उनकी लड़कियों की हिम्मत है कि वे सब सह रही हैं और मौत को गले नहीं लगा रहीं. जो ज्यादा भावुक ,कमजोर होती हैं वे ख़ुदकुशी कर ही बैठती हैं.
ऐसा लगता है, जैसे लड़कियों  के जन्म के साथ ही उनके लिए एक खुदी कब्र भी साथ चलती है. और एक सन्देश दे दिया जाता है,हर पल उसे अपनी नज़रों के सामने रखो, कुछ भी लीक से हट कर किया  तो खुद कूद जाओ या उसमे धकेल दी जाओगी .

मंगलवार, 4 मई 2010

प्यारी सी मुलाकात 'शिखा वार्ष्णेय' के साथ


यूँ तो शिखा से मिले एक महिना बीत गया. पर मैं इंतज़ार कर रही थी कि वो वापस लन्दन आकर ब्लॉग की दुनिया में लौटे तभी यह संस्मरण पेश करूँ. अभी लिखने बैठी तो लगा अरे..सब कुछ तो वैसा ही ताज़ा सहेजा हुआ है, मस्तिष्क में ,जैसे कल मिले हो
.

                  शिखा की प्यारी सी बिटिया सौम्या और दुलारा सा बेटा वेदान्त

शिखा को पहले उसके दिए, अपनत्व भरे कमेन्ट से जाना...फिर कब कैसे हमारी दोस्ती की बेल बढती गयी और हमने ब्लॉग से ज्यादा समय चैट  पर बिताना शुरू कर दिया पता ही नहींचला. दो,तीन महीने पहले ही शिखा ने बताया कि वो जब भारत आएगी तो दो दिन के लिए मुंबई में भी रुकेगी...और जब पता चला उसकी बहन गोरेगांव में रहती हैं...जो मुंबई के लिहाज से मेरे घर से बहुत नजदीक है...तब  मैंने सबको डिनर पर बुलाना चाहा पर  शिखा श्योर नहीं थी क्यूंकि उसे, उसके पति का कार्यक्रम नहीं मालूम था ,और उसे कई लोगों से मिलना था. मैंने कहा 'कोई बात नहीं..मैं आ जाउंगी मिलने'...और बस शिखा की बांछे खिल गयीं, "सच...ऐसा हो सकता है..फिर तो कोई मुश्किल ही नहीं." मैंने कहा तुम्हारी बहन के घर के पास ही कहीं कॉफ़ी शॉप में मिलते हैं और शिखा ने कहा, " DONE "

शिखा की रात की मुंबई की फ्लाईट थी और हम दोपहर में चैट कर रहें थे. उसने कहा था, वह मुंबई पहुँच कर फोन करेगी कि कब मिलना है...और इधर तीन दिन मैंने शिखा के लिए फ्री रखे थे. और संयोग कुछ ऐसा बना कि इन्हीं तीन दिनों में यहाँ, मेरी सहेलियों ने भी कई प्लान बना लिए (ये सब शिखा को अब तक नहीं मालूम ) गुरुवार को मूवी और शुक्रवार को मेरे यहाँ गेट टूगेदर . मैंने कहा  'नहीं..मेरी सहेली आने वाली है,लन्दन से, मैं फ्री नहीं हूँ.' जिनका ब्लॉग जगत से परिचय नहीं वे लोग पूछने भी लगीं...".ये नयी सहेली कौन सी आ गयी?"...मैंने कहा "है एक स्पेशल :)"

शाम चार बजे  के करीब, एक सहेली, "सोना '  के यहाँ  बैठी चाय ही पी रही थी कि शिखा का फोन आ गया, "अभी दो घंटे पहले आई हूँ...और बस आज शाम ही फ्री हूँ...फिर नवी मुंबई जाना है..वहाँ से फिर कहीं और.. क्या आप  आधे घंटे में आ सकती हैं , मिलने.?".बस ऐसे, जैसे चप्पल पैरों में डालो  और निकल पड़ो.. मैं तुरंत कुछ फैसला नहीं कर सकी और कहा, 'बाद में फोन करके बताती हूँ'. पर मेरी सहेली सोना को तो जैसे  मुहँ मांगी मुराद मिल गयी. उसे पता चल गया कि आज अगर रश्मि मिल लेती है तो फिर मूवी LSD और गेट टुगेदर के  प्लान में भी कोई व्यवधान नहीं आएगा. और  उसने जैसे मुझे पुश करके ही भेज दिया .वैसे सोचने के बाद भी मैं यही फैसला लेती  पर उसने तो मुझे सोचने का भी मौका नहीं दिया. लगी सिफारिश करने ,"इतनी दूर से आई है...आज मिल लो..वरना मिल भी नहीं पाओगी ..आते ही फोन किया तुम्हे वगैरह..वगैरह"....उसका  वश चलता तो शायद वहीँ से मुझे सीधा भेज देती. पर घर आकर भी तो सबकुछ देखना था. घर आई...थोड़े बचे  काम निबटाये ,बच्चों को instructions दिए, पतिदेव को फोन खटकाया और चल दी ,शिखा से मिलने.
 
शिखा  की सहेली गौरी, गौरी  के सुपुत्र, शिखा और मैं  

अब इतनी जल्दबाजी में तय हुआ कि कॉफ़ी शॉप का आइडिया हमने ड्रॉप कर दिया और उसकी बहन के घर ही मिलना तय हुआ. वैसे शिखा के पति पंकज और बहन 'निहा' उसे चिढ़ा भी रहें थे 'आखिर कौन सी फ्रेंड है  जिस से कॉफ़ी शॉप में मिलना है ...हम तो पहले देखेंगे  तब तुम्हे जाने देंगे " हम दोनों को पता था कि घंटी बजेगी तो दरवाजे के बाहर मैं और अंदर शिखा ही होगी .वरना शायद भीड़ में देखा होता तो थोड़ी सी मुश्किल होती पहचानने में. फोटो से बिलकुल तो नहीं पहचाना जा सकता( वैसे, हम दोनों ही फोटो से ज्यादा अच्छे दिखते हैं,ऐसा लोग कहते हैं, हम नहीं :)  हा हा हा ) वहाँ शिखा और पंकज जी के कॉमन फ्रेंड एक कपल पहले से बैठे हुए थे. अब शिखा दो साल बाद अपने देश आई थी, सिर्फ दो,तीन घंटे हुए थे  और  अपनी बहन से ,पुरानी दोस्त से और मुझसे मिल रही थी,इसलिए इतनी एक्साईटेड  थी और नॉन -स्टॉप बोल रही थी या फिर हमेशा ऐसे ही बोलती है ये तो दो,चार बार मिलने पर पता चलेगा :)...वैसे राजधानी एक्सप्रेस मैं भी हूँ. इसलिए हम दोनों को देखकर लग ही नहीं रहा था पहली बार मिल रहें थे.

उसकी बहन का नाम 'निहा' मुझे बहुत पसंद है .मैंने शिखा को पहले ही बताया था कि उसका नाम मैं किसी कहानी में इस्तेमाल कर लूंगी .शिखा ने शायद उसे यह बता दिया था कि क्यूंकि वह कह रही थी, "मैं तो रोयल्टी  लूंगी " मैंने कहा "ले लेना..१०% कमेंट्स  तुम्हारे. यहाँ तो बस वही कमाई है." शिखा की कविताओं की सबसे बड़ी प्रशंसक और आलोचक भी वही है. अच्छा पोस्टमार्टम  किया उसकी कविताओं का.( पर मजाक में.) वहाँ उपस्थित बाकी लोगों को ब्लॉग की कोई जानकारी नहीं थी.हम उनका ज्ञानवर्धन कर रहें थे कि यहाँ कविता,कहानियाँ,संस्मरण...ज्ञान,राजनीति खेल, हर विषय पर आलेख मिलेंगे. ..साथ ही यहाँ की पौलिटिक्स, गुटबाजी, बहसों के बारे में भी बताते जाते कि सब कुछ वास्तविक संसार जैसा ही है. गहरी दोस्ती भी है और लोग नापसंद  भी करते हैं एक दूसरे को. वे लोग आश्चर्य से मुहँ में  उंगलियाँ दबा लेते ,"हाँ!!...देखा भी नहीं एक दूसरे को..कभी मिले भी नहीं...फिर भी नापसंद  ??"

निहा..लगातार हमारी  आवभगत में लगी थी..पहले ठंढा पेश किया फिर नमकीन, ढोकले और बमगोले जैसे बड़े बड़े रसगुल्ले. शिखा की बिटिया 'सौम्या' बड़ी प्यारी है . शिखा ने कहा," पहले उछल रही थी कि मैंने तो रश्मि आंटी  से बात भी  की है.अब क्यूँ शर्मा रही हो..बात करो " (एकाध बार चैट  की है,उसके साथ ) बेटा वेदान्त भी बहुत भोला-भाला है और दोनों तस्वीरों से ज्यादा छोटे लगते हैं. बच्चों से ज्यादा बात नहीं हो पायी. वे भी अपने दोस्तों में मस्त थे और हम भी कहाँ तैयार थे अपनी बातों से ब्रेक लेने को. पंकज जी बीच बीच में बोल उठते 'आप लोगों को अलग से बातें करनी है तो कमरे में जाकर आराम से बातें कीजिये.' शिखा ने बिंदास कहा, 'ना ना वो सब तो हम नेट पर कर लेते हैं.' मेरे मन में आया थोड़ा उन्हें परेशान करूँ ये कह कर कि 'कुछ बचा ही नहीं अलग से बात करने को' पर फिर छोड़ दिया .

बातों बातों में २ घंटे निकल गए .मुझे लौटना भी था और मुंबई की ट्रैफिक में घिरने का अंदेशा भी....सो उठना पड़ा. निहा के पति ने कहा.."अच्छा तो आप लोग ब्लॉगर्स  हैं.?" हम दोनों ने एक सुर में कहा ..."एक्चुअली वी आर राइटर्स " और सबकी समवेत हंसी के बीच बाय कहा एक दूसरे को.

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...