सोमवार, 31 जनवरी 2011

आँखों में व्यर्थ सा पानी

कुछ व्यस्तताएं चल रही हैं...नया कुछ लिख नहीं पा रही...और ध्यान आया यह रचना पढवाई जा सकती है. ब्लॉगजगत में मेरी दूसरी पोस्ट थी यह...कम लोगो की  नज़रों से ही गुजरी होगी.....कभी कॉलेज के दिनों में लिखा था,यह  ...दुख बस इस बात का है कि आज इतने वर्षों बाद भी यह उतना ही प्रासंगिक है.इसकी एक भी पंक्ति पढ़ ऐसा नहीं  लगता कि यह तो गए जमाने की  बात है. अब नहीं होता  ऐसा..



"लावारिस पड़ी उस लाश और रोती बच्ची का क्या हुआ,
मत  पूछ  यार,  इस  देश  में  क्या  क्या  न  हुआ

जल गयीं दहेज़ के दावानल में, कई मासूम बहनें
उन विवश भाइयों की सूनी कलाइयों का क्या हुआ

खाकी  वर्दी  देख  क्यूँ  भर  आयीं, आँखें  माँ  की
कॉलेज गए बेटे और इसमें भला क्या ताल्लुक हुआ

तूफ़ान तो आया  बड़े  जोरों  का  लगा  बदलेगा  ढांचा
मगर चंद  पोस्टर,जुलूस और नारों के सिवा क्या हुआ


हर मुहँ को रोटी,हर तन को कपडे,वादा तो यही था
दि
ल्ली जाकर जाने उनकी याददाश्त को क्या हुआ

जब जब झलका आँखों में व्यर्थ सा पानी 'रविजा'
कलम  की  राह  बस  एक  किस्सा  बयाँ  हुआ

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

रंजित विचारे : सिर्फ करूणा भरा दिल ही नहीं एक चौकस दृष्टि भी

एक सभ्य,शिक्षित,जागरूक नागरिक के मन में हमेशा यह भावना हिलोरे मारती रहती  है कि इस समाज ने, जो इतना कुछ उसे दिया है...कुछ उसका प्रतिदान कर जाए...लोगो की भलाई के लिए कुछ तो समाज-सेवा कर जाए. परन्तु अपने दैनंदिन कार्यो में ही वे  इतने उलझे होते हैं कि अलग से समय नहीं निकाल  पाते. और समय हो भी तो उन्हें कोई जरिया नहीं मिल पाता ...जहाँ घंटे दो घन्टे के लिए वे अपना कुछ योगदान दे पायें.

परन्तु अगर दिल करुणा से भरा  हो और चौकस दृष्टि भी हो और हो समाज के काम आने की  ख्वाहिश   तो कई रास्ते निकल आते हैं. हाल में ही अखबार में कई लोगो की नज़र से यह खबर गुजरी होगी कि एक विदेशी का शव, बीस दिन से 'सायन हॉस्पिटल',
मुंबई के मोर्ग  में पड़ा है और उसकी पहचान नहीं हो पा रही. मुंबई के एक प्रतिष्ठित फर्म में  काम करनेवाले रंजित विचारे ने भी यह खबर पढ़ी और कुछ करने की सोची. उन्हें उस शव से सिर्फ एक क्लू मिला कि उस मृत व्यक्ति की  बाहँ पर एक टैटू बना था जिसमे लिखा था "helle"

उन्होंने नेट पर इस शब्द को  सर्च किया और  पाया कि,नॉर्वे और  नीदरलैंड के एक गाँव का नाम 'helle' है. डेनमार्क की एक म्युनिसिपैलिटी का नाम भी 'helle' है और ग्रीक की धार्मिक कथाओं में भी इस शब्द का जिक्र है.

उन्होंने जांच-अधिकारी 'अनिल करेकर' से FIR की रिपोर्ट  मांगी और उसका  मराठी से अंग्रेजी में अनुवाद कर, उस मृत व्यक्ति की तस्वीर और कुछ और डिटेल्स के साथ ,स्वीडन, डेनमार्क, फिनलैंड, नीदरलैंड, जर्मनी और ग्रीस के दूतावास  को  भेज दी. चौबीस घंटों के अंदर ही जबाब आने लगे और पता चल गया कि वह  शव, डेनमार्क के निवासी, स्वेंसन का है. उनकी बहन को सूचना दे दी गयी.
 

अगर रंजित विचारे ने इतनी कोशिश नहीं की  होती तो स्वेंसन के घरवालो को उनके विषय में कुछ भी पता नहीं चल पाता.

करीब बारह वर्ष पहले,वाराणसी की गलियों में एक बीमार भिखारी को रंजित विचारे ने एक ग्लास पानी दिया. भिखारी ने कुछ घूँट पीने के बाद ही, उनके सामने ही दम तोड़ दिया. रंजित जी ने ही उस भिखारी की  सम्मानजनक अंत्येष्टि का प्रबंध किया. उसके बाद से ही सड़क पर कोई भी लावारिस शव  देख,वे तुरंत पुलिस को खबर करते हैं और उसकी पहचान स्थापित करने में भी पुलिस की मदद करते हैं. अब तक वे करीब पच्चीस  मृत शवों की पहचान में पुलिस की मदद कर चुके हैं.

1996 में एक अँधेरी रात में  इंदौर के रास्ते में उन्होंने एक दुर्घटनाग्रस्त कार  देखी. उतर कर चेक किया तो खून से लथपथ एक युवक मृत पड़ा था. उन्होंने पुलिस को सूचना दी और खुद भी उसकी पहचान में जुट गए. उसकी कलाई पर 'एक तुलसी के पौधे' का टैटू बना हुआ था. उन्होंने तुरंत लैपटौप पर सर्च किया और पाया कि ये 'गोंद जनजाति' के लोगो की प्रथा है. उन्होंने यह बात पुलिस को बता दी.कि यह युवक गोंद जनजाति का हो सकता है. दो दिन बाद, रंजित विचारे के पास लड़के की माँ का फोन आया कि वे चाहती हैं कि उस लड़के की  अंतिम क्रिया रंजित ही करें क्यूंकि वे ही उस  के अंतिम क्षणों में उसके साथ थे.

तीन साल  बाद ट्रेन में यात्रा करते हुए, इन्होने   एक बूढी औरत के मृत शरीर की पहचान,  एक इलेक्ट्रीसीटी  बिल की मदद से की.
 

बच्चों,जानवरों पर किए जा रहे अत्याचार  के प्रति भी वे चौकस हैं .एक बार उन्होंने एक पिंजरे में कैद  उल्लुओं को भी छुड़ाया और एक वेटीनरी हॉस्पिटल में उन्हें भर्ती कराया. जब वे पक्षी स्वस्थ हो गए तो हॉस्पिटल से  उन्हें फोन कर के बुलाया गया कि इन्हें खुले आकाश में उड़ने के लिए आप ही छोड़े ,जैसे कितनी ही आत्माओं को मृत शरीर से आज़ादी दिलाते हैं.

रंजित विचारे का यह कथन "
हर एक व्यक्ति एक 'सम्मानजनक अंत्येष्टि' का हक़ रखता है." बहुत पहले पढ़ी हुई एक घटना की याद दिला गया. मदर टेरेसा ,कीचड़ में पड़े, दुर्गन्धपूर्ण घावों से भरे 
मरणासन्न व्यक्ति को भी अपनी संस्था 'निर्मल सदन' में ले जाती थीं .और उन्हें साफ-सुथरा कर उनकी देखभाल करती थीं.ऐसे ही  एक भिखारी ने अंतिम सांस लेते  समय कहा था, "मैने पूरा जीवन रास्ते में गन्दगी के बीच गुजारा पर आज मैं एक बादशाह की तरह परियों की गोद में मर रहा हूँ. "

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

टर्निंग थर्टी : एक अलग सी फिल्म, एक Chick Flick


(एक डिस्क्लेमर भी डाल ही दूँ कि जो भी फिल्म..:'टर्निंग थर्टी " देखने के इच्छुक हों, ये पोस्ट ना पढ़ें क्यूंकि मैं जब किसी फिल्म के बारे में लिखती हूँ...तो फिल्म ,उस पर अपने विचार..उसकि कहानी  से जुड़े अनुभव,...सब कुछ ही उँडेल डालती हूँ , मात्र समीक्षा नहीं होती ये.)

जब सहेलियों के साथ 'टर्निंग थर्टी ' देखने का प्लान बन रहा था..मैने यूँ ही पूछ लिया.."पर हमलोग यह फिल्म देखने क्यूँ जा रहे हैं??...हमने तो कब का वो मोड  पार कर लिया.."
एक ने कहा..."पर अभी भी हमलोग उस मोड के आस-पास ही समझते हैं,ना खुद को..." ये तर्क ठीक लगा...यूँ भी दिल बहलाने को..ऐसे ख़याल हमेशा अच्छे ही लगते हैं...वरना अपना तो कब...सोलह पार हुआ...कब तीस पता ही नहीं चला...पर ये फिल्म देखने का मन हो आया...आखिर देखें तो सही,तीस पार होने पर ...'ये हंगामा है क्यूँ, बरपा.."
वैसे इस  फिल्म से देश की आम लडकियाँ रिलेट नहीं कर पाएंगी.पर जो लडकियाँ...महानगरो में रहती  है..प्राइवेट फर्म में काम करती हैं...उनकी ज़िन्दगी से काफी मिलती जुलती है,फिल्म की कहानी

शुरुआत में तो फिल्म में बस पार्टी..डांस...स्मोकिंग...वा
इन..बियर...और कुछ बोल्ड सीन ही हैं. शायद पुरुष दर्शकों को टिकट खिड़की तक खींचने के लिए क्यूंकि ये कहानी है...एक लड़की की...जो एक हफ्ते बाद ही तीस की होनेवाली  है...और उसे लगता है....ज़िन्दगी पर से उसकी पकड़ छूटने ही वाली है. उसकी दो  सहेलियों की कथा भी साथ में चलती रहती है.

नैना (गुल पनग) एक विज्ञापन  एजेंसी में काम करती है. तीन साल से उसका एक steady boyfriend  है,जो रहता तो अपने माता-पिता के साथ है पर ज्यादा समय नैना के फ़्लैट में ही गुजारता है.उसका आधा सामान भी नैना के फ़्लैट में ही पड़ा रहता  है. नैना की माँ दिल्ली से बार-बार फोन करती है कि अब वो तीस की होनेवाली  है...और उसे शादी कर लेनी चाहिए. नैना को पूरा विश्वास है कि उसके बर्थडे पर ऋषभ ( सिद्धार्थ मक्कड़ ) उसे प्रपोज़ करेगा और वो एक्सेप्ट कर, शादी कर लेगी
.
  (एक ऐसी ही लड़की को काफी करीब  से
जानती हूँ जो एक टी.वी. चैनल में 'जेनरल  मैनेजर' थी...आज से पांच साल पहले, ७५ हज़ार रुपये उसकी तनख्वाह थी और तीस  की हो चली थी...शादी के लिए बेताब...किसी को भी हाथ दिखाने बैठ जाती.."मेरी शादी कब होगी??" पर लडको की मानसिकता वही है कि पत्नी की आय उनसे अधिक नहीं होनी चाहिए. आखिरकार उसे एक अधेड़ NRI  से शादी करनी पड़ी. 

फिल्म में , ऋषभ के पिता का बिजनेस अच्छा नहीं चल रहा और उसमे
सहयोग के लिए वे एक अमीर  लड़की से ऋषभ की शादी करना  चाहते हैं. और अचानक ऋषभ को अपने परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्व का ख्याल आता है. वह उस लड़की से शादी के लिए 'हाँ' कह देता है. (ऐसे लड़के हमने अपने आस-पास  भी देखे ही होगे )

ऑफिस में भी नैना ने जिस कैम्पेन पर काम किया..और जो उसका आइडिया था....वह बहुत सफल  रहा और उसे फ्रांस में एक अवार्ड मिलनेवाला है लेकिन सारा क्रेडिट उसका सीनियर ले जाता है.अवार्ड लेने भी वही जाता है.नैना के विरोध करने पर वे लोग कहते हैं...या तो तुम रिजाइन कर दो या फिर एक छोटे से विज्ञापन पर काम करो जो थर्टी प्लस की औरतों के लिए बना है क्यूंकि अब तुम भी तीस की होने जा रही हो...और देश के युवाओं की नब्ज़ पर तुम्हारी पकड़  नहीं.

 

नैना के बॉयफ्रेंड ने धोखा दे दिया...नौकरी में निराशा मिली ...और अब वो तीस की होने जा रही है. वो बिखर सी जाती है लेकिन उसकी दो सहेलियाँ,उसका साथ देती हैं...उसे शॉपिंग-लंच-पार्लर लेकर जाती हैं ..और एक नए हेयरकट के साथ उसे एक नया लुक देती हैं,कहती हैं.."जब प्रेमी धोखा दे...उस रिश्ते को अपने बाल की तरह काट कर फेंक दो.."(आज की नारी का स्लोगन हो सकता है.)

नैना भी अपनी बिखरी ज़िन्दगी समेटने की कोशिश  करती है और वो छोटे बजट के विज्ञापन पर काम शुरू कर देती है. कई तीस-पैंतीस के ऊपर की उम्र की औरतों का इंटरव्यू लेती है कि कैसे उनलोगों ने उम्र के साथ  अपनी ज़िन्दगी की रफ़्तार में कमी नहीं आने दी....और नए शौक..नए काम ढूंढें.


नैना की ज़िन्दगी में उसके  कॉलेज का प्रेमी वापस आ जाता है...जो कैरियर बनाने के लिए नैना को छोड़ कर चला गया था.अब वह एक कामयाब फोटोग्राफर है..और नैना से शादी करना चाहता है.(ऐसा सिर्फ फिल्मो में ही होता है या कहानियों में...एक प्रेमी गया नहीं कि दूसरा हाज़िर..मगर रियललाइफ  में लडकियाँ/लड़के इतने लकी नहीं होते...अक्सर वे अकेले ही पड़ जाते हैं )


पर नैना ऋषभ को भूली नहीं है और भूलने से ज्यादा इस तथ्य को नहीं भुला पाती कि उसने उसे धोखा दिया है..वो हर हाल में चाहती है..ऋषभ उस लड़की को छोड़ उसके पास वापस आ जाए. ऋषभ को फोन करती  है..मैसेज करती है...आखिरकार उसके घर पहुँच..उसके माता-पिता को भी बहुत खरी-खोटी  सुनाती है कि ,वे जब उसे पसंद करते थे फिर ऋषभ की शादी..दूसरी लड़की से क्यूँ  कर रहे हैं.." (यह प्रकरण गले नहीं उतरता..पर आज की नारी
  के लिए कुछ भी असंभव नहीं...वे ऐसा कर सकती हैं..इतनी आसानी से वे अपने दोषी को माफ़ करने को तैयार नहीं है (एकाध, इस तरह के सच्चे उदाहरण भी सुने हैं)

ऑफिस में ..नैना का काम क्लाइंट को बहुत पसंद आता है...और वे इस विज्ञापन का बजट बढ़ाकर हज़ार करोड़ कर देते हैं. यह देख अब उसके सीनियर्स फिर एक बार चाल  चलते हैं...और नैना के प्रेजेंटेशन को रिजेक्ट कर कहते हैं...'उन्होंने कुछ दूसरा आइडिया सोचा है'. नैना के पास रिजाइन करने के सिवा कोई चारा नहीं रह जाता (ऐसे प्रकरण आम हैं...विज्ञापन एजेंसियों में)


इधर उसका  कॉलेज का प्रेमी..पूरब...उसपर शादी के लिए दबाव डाल  रहा है. उसे भी  नैना कह देती है..."तुम अपनी सुविधा से मेरी ज़िन्दगी से चले गए और अब अपनी सुविधा से लौट आए...मुझे सोचने के लिए समय चाहिए " और वह फिर से एक बार चला जाता है.

 एक बार फिर नैना  के पास ना नौकरी  है... ना बॉयफ्रेंड ...वो किसी का फोन नहीं उठाती..घर से बाहर नहीं जाती .एक बार फिर उसकी दोनों सहेलियाँ उसका ख्याल रखती  हैं. एक सहेली, उसके लैपटौप पर अपना मेल चेक करने जाती है...और एक फ़ाइल खुली हुई है...जिस में नैना अपने विचार लिखती रहती  है. उसकी सहेली...उसके पीछे पड़कर एक पब्लिशर को उसके सारे नोट्स दिखलाती है.पब्लिशर इम्प्रेस्ड होकर उसे एक किताब लिखने का ऑफर देता है

( देखने पर लगता है...ऐसा सिर्फ फिल्मो में ही संभव है...पर
चेतन भगत  के 'फाइव पॉइंट समवन'  का उदाहरण हमारे सामने है...जो उनके हॉस्टल  के जीवन पर आधारित थी...हाँ, पर तभी..अगर आप अंग्रेजी  में लिखते हों. एक आइ.आइ.टी. के स्टुडेंट की (वे मेरे कजिन भी हैं..'अनिमेष वर्मा ") उनकी पुस्तक,"Love, Life and Dream  On ' की भी पब्लिशर ने ना सिर्फ छापने  की जिम्मेवारी ली...बल्कि धुंआधार  प्रचार भी किया...हर बड़े अखबार और ऍफ़.एम चैनल्स से उनके इंटरव्यू प्रसारित किए...पांच हज़ार कॉपी छपी उस किताब की जबकि सुना है...हिंदी की किताबो की 200 से ज्यादा प्रतियाँ नहीं छपतीं..और हिंदी के एक नए लेखक की किताब का कितना प्रचार  किया जाता है...इसका  मुझे कोई इलहाम  नहीं)

फिल्म की तरफ लौटते हैं....इधर ऋषभ..एक बार फिर से नैना को  कॉल करना और उसके फ़्लैट पर आना शुरू कर देता है.पर नैना का रुख देखकर ही उसकी कामवाली  बाई..कह देती है.."दीदी बिजी है..नहीं मिलेंगी) (मुंबई की
बाइयों पर एक पोस्ट मैने लिखी थी...यहाँ की  बाइयां सचमुच...अकेली औरतों के लिए एक गार्जियन की तरह होती  हैं...और कई बार उनकी इमोशनल एंकर भी  बन जाती हैं.)
 

एक बार पब्लिशिंग हाउस से लौटते हुए नैना, की नज़र एक होर्डिंग पर पड़ती है और वो पाती है कि उसकी विज्ञापन एजेंसी ने उसका आइडिया और उसका प्रेजेंटेशन ही इस्तेमाल किया है.टी.वी. पर भी उसकी लौन्चिंग पर सारा क्रेडिट उसके बॉस और उसके सहकर्मी ले लेते हैं.. वह उनपर केस कर देती है और जीत भी जाती है,{आखिर  फिल्म की हिरोइन है :)}

नैना की  किताब( Turning Thirty ) पूरी होकर छप गयी  बहुत सफल भी हुई .उसकी बुक रीडिंग में उसकी माँ,  दोनों पूर्व प्रेमी..उसकी सहेलियाँ...सब मौजूद रहते हैं. ऋषभ उस से कहता है...कि उसने सगाई तोड़ दी है..क्यूंकि दोनों के विचार मेल नहीं खाते थे और अब वो वापस लौटाना चाहता है. पर नैना  मना कर देती है...वो पुराने प्रेमी के पूरब पास जाती है..पर इस बार अपनी सुविधानुसार और उस से पूछती  है.."विल यू मैरी मी .."आज की नारी
  :).

फिल्म हिट नहीं,हुई ..पर इसके हिट होने के  सारे मसाले डाले गए हैं. दृश्यों और संवादों में काफी बोल्डनेस है. ऑल गर्ल्स  पार्टी में लडको की एक स्ट्रीप्तीज़ भी रखी गयी है. नैना की एक सहेली,एक गेम ..'ट्रुथ एंड डेयर'  के दरम्यान स्वीकार करती है कि वो लेस्बियन है.." दूसरी सहेली..ऊपर से बहुत खुश दिखती है..पर उसके पति के एक्स्ट्रा मेरिटल अफेयर्स हैं.

 
उच्च वर्ग  में जो कुछ भी हो सकता है....वह .सब कुछ  दिखाने की कोशिश की गयी है.

सारे पात्रो ने अपने कैरेक्टर  के साथ न्याय किया है. अगर 'डोर' फिल्म वाले 'गुल पनग' को ढूंढेंगे तो निराशा होगी. इस फिल्म में शायद गुल को ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी होगी. क्यूंकि ऐसे  ही जीवन की वे आदी हैं  हैं. काफी दिनों तक प्रकाश झा  की असिस्टेंट डाइरेक्टर रह चुकी अलंकृता  श्रीवास्तव की पहली फिल्म है...फिल्म को सफल बनाने के लिए कोशिश कुछ ज्यादा ही  कर डाली...और ये कोशिश ईमानदार नहीं थी...बाज़ार से समझौते की थी...इसीलिए फिल्म पार्ट्स में ही अच्छी है.पर विषय बिलकुल नया है..इसीलिए आकर्षित करती है,फिल्म ....प्रकाश झा ने प्रोड्यूस की है. गाने अच्छे    हैं.


शायद मुंबई बेस होने से और नायिका के एक विज्ञापन एजेंसी से जुड़े होने से फिल्म  कुछ ज्यादा ही आधुनिक लगती है.लेकिन लखनऊ...रांची..पटना.. जैसे शहरों में भी लडकियाँ अब अपने जीवन का कंट्रोल अपने हाथों में ले रही हैं. अगर अरेंज्ड मैरेज करती हैं..फिर भी...अपनी,पसंद-नापसंद खुलकर बताती हैं. और पसंद ना आने पर लड़के ही रिजेक्ट नहीं करतीं ...एंगेजमेंट भी तोड़ने की हिम्मत रखती हैं. और ये सब इसलिए कर पाती हैं क्यूंकि वे आत्मनिर्भर हैं. ज्यादा से ज्यादा लड़कियों का अपने जीवन पर नियंत्रण हो...तभी सारी कुप्रथाएँ समाप्त होंगी.


इस पोस्ट को लिखने के दौरान ही...'
रश्मि प्रभा' जी की ये कविता पढ़ी...उसके ये अंश बहुत सटीक लगे.
नई पीढ़ी ने
हर तथाकथित मर्यादाओं को ताक पर रख दिया
और भीड़ में गुम हो गई !
कभी देखा है -
अपने अस्तित्व के लिए
अपने टुकड़े के लिए
रात दिन एक करती ये लड़कियाँ

बहुत पहले पढ़ी...शरद कोकस जी की ये कविता भी, कामकाजी लड़कियों के जीवन को अच्छे से बयाँ करती है...इसकी ये पंक्ति खासकर,अच्छी लगी थीं.

"आज़ाद हवा से दोस्ती की उसने 
मजबूती से ज़मीन का दामन थामा 
और  एक कदम आसमान की ओर बढ़ा दिया "

और ये भी
 "कॉफी का एक प्याला उसका डॉक्टर था
और खिड़की से आया ,हवा का ताज़ा झोंका, नर्स"


अरुण चन्द्र राय ने भी इस उम्र की कामकाजी लड़कियों  पर एक बढ़िया कविता लिखी है.

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

खट्टी-मीठी यादों का इक साल

पूरा एक साल गुजर गया, अपनी,उनकी,सबकी बातें करते...और बातें हैं कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहीं....बाढ़  में किसी हहराती नदी सी उमड़ी चली आती हैं. और उन बातों को एक बाँध में बाँधना  जरूरी था सो इस ब्लॉग का निर्माण करना पड़ा. जबकि तीन महीने पहले ही  ब्लॉग जगत के आकाश में "मन का पाखी' बखूबी उड़ान भरना  सीख गया था . कई पोस्ट लिख चुकी थी, परन्तु अभी तक अपनी कहानी पोस्ट नहीं कर पायी थी, जिन लोगो ने मेरी कहानियाँ पढ़ रखी थीं,उनका भी आग्रह था और मेरी भी इच्छा थी कि अपनी कहानियों पर लोगो के विचार जानूँ.

पर मेरी कहानी किस्तों वाली  थी और पता नहीं मेरी कहानियाँ  ,एक कहानी की परिभाषा पर खरी उतरती हैं या नहीं. लेकिन उन्हें लेकर एक अजीब सा मोह है मुझमे कि कहानी की किस्तों के बीच किसी दूसरे विषय पर बात नहीं होनी चाहिए या फिर उस पर की गयी टिप्पणियों पर कोई  बहस नहीं होनी चाहिए. यही सब सोच एक दूसरा ब्लॉग बनाने की सोची तो जिस से भी सलाह ली,सबने मना किया कि एक ब्लॉग संभालना ही मुश्किल होता है. सो दूसरा ना ही बनायें तो अच्छा. मैने भी सोच लिया कोई बात नहीं, दो महीने तक कहानी की  किस्तें ही पोस्ट करती रहूंगी...उसके बाद ही कुछ लिखूंगी. 'मन का पाखी' पर कहानियों से इतर  मेरी अंतिम पोस्ट थी,
"खामोश और पनीली आँखों की अनसुनी पुकार"  जो मैने, 'रुचिका-राठौर प्रकरण ' पर लिखा था. एक प्रोग्राम में रुचिका की  सहेली के ये कहने पर "कि वो सारा दिन क्लास में रोती रहती थी और किसी टीचर ने  कभी उसके करीब आने की, उसे समझाने की कोशिश नहीं की" सुन मुझे बहुत दुख हुआ था  और मैने शिक्षकों की भूमिका पर एक पोस्ट लिख डाली कि  उन्हें बच्चों की मनःस्थिति के बारे में भी जानने की कोशिश करनी चाहिए, क्यूंकि वे बच्चों के काफी  करीब होते हैं.  ब्लॉग जगत में भी कई शिक्षक हैं. उन्होंने ऐतराज जताया ..काफी कमेंट्स आए, कि शिक्षकों के ऊपर पहले से ही इतना भार है...ये पैरेंट्स का कर्तव्य है. मुझे भी लगा शायद मैं कुछ ज्यादा ही लिख गयी . मैने टिप्पणी में क्षमा-याचना भी कर ली  और कहानी की पहली  किस्त पोस्ट कर दी .

किन्तु दो दिनों के बाद ही  अखबार में पढ़ा, महाराष्ट्र शिक्षा विभाग ने यह निर्णय लिया है कि हर स्कूल से कम से कम पांच, शिक्षकों को स्टुडेंट्स की काउंसलिंग का प्रशिक्षण दिया जायेगा,क्यूंकि वे ही छात्र के सबसे करीब होते हैं . यह खबर शेयर करना जरूरी लगा और आनन-फानन में मैने यह ब्लॉग बना लिया.
सतीच पंचम जी की पहली टिप्पणी भी याद है, लगता है आपका मोटो है, "सुनो सबकी करो ,अपने मन की" {अब वो तो है :)}

अलग ब्लॉग बनाने का खामियाजा भी भुगतना पड़ा. कई लोगो को मेरे नए ब्लॉग का पता ही नहीं चल पाया. किसी को तीन महीने बाद, छः महीने बाद तो 
किसी  को हाल ही में पता चला कि मेरा कोई और ब्लॉग भी है. इस ब्लॉग से कई  नए पाठक भी जुड़े. जिन्हें नेट पर कहानियाँ पढना नहीं पसंद वे इस ब्लॉग के पाठक बने रहे.
इस सफ़र में कई दोस्त बने...बिछड़े...नए बने, ये चक्र  तो चलता ही रहेगा.

इस ब्लॉग पर खूब जम कर लिखा. कई विवादास्पद विषय  पर की-बोर्ड खटखटाई {कलम चलाई,कैसे लिखूं...:)}
घरेलू हिंसा, पति को खोने के बाद समाज में स्त्रियों की स्थिति,  गे -रिलेशनशिप , अवैध सम्बन्ध , जैसे  विषयों पर लिखा,जिसपर अमूमन लोग लिखने से बचते हैं. पर साथी ब्लॉगर्स-पाठको ने खुल कर विमर्श में हिस्सा लिया और अपने विचार रखे. लिखना सार्थक हुआ.
 

कई पोस्ट पर सार्थक और कुछ पर निरर्थक बहसें भी हुईं. जनवरी में ही ब्लॉग बनाया और फ़रवरी में 'वैलेंटाईन डे' पर अपनी कुछ रोचक यादें शेयर कीं तो एक महाशय  ने ऐतराज जताया कि भारतीय त्योहारों के बारे में क्यूँ नहीं लिखा. आशा है...होली, गणपति,ओणम,दिवाली पर मेरी पोस्ट देखकर उनका भ्रम दूर हो गया होगा.

मेरी पोस्ट लम्बी होने की भी कुछ लोगो ने शिकायत की. एक युवा ब्लॉगर के  बार बार इस ओर संकेत किए जाने पर मैने कुछ लोगो के नाम गिनाए कि "ये लोग भी तो  लम्बी पोस्ट लिखते हैं?" उन्होंने तुरंत कहा, "वे लोग तो
स्थापित ब्लॉगर हैं " मैने उन्हें तो कुछ नहीं कहा पर मन ही मन खुद से कहा कहा.."कोई बात नहीं...क्या पता हम भी एक दिन स्थापित ब्लॉगर बन जाएँ " सफ़र जारी है...क्या पता सचमुच एक दिन बन ही जाएँ "स्थापित ब्लॉगर " . पर पोस्ट की लम्बाई में कोई कम्प्रोमाईज़ नहीं किया. इसलिए भी कि कई लोग यह भी कह जाते, कब शुरू हुआ , कब ख़त्म.पता ही नहीं चला. प्रवाह अच्छा है. तो अब किसकी बातें मानूँ....किसकी नहीं..?? "सुनो सबकी... "वाला फॉर्मूला ही ठीक  है.

तीन  महीने पहले ही अपने पुराने ब्लॉग के एक साल के सफ़र पर एक पोस्ट लिखी थी और बड़े गर्व से कहा था, "ब्लॉग जगत में कोई कडवे अनुभव नहीं हुए" और जैसे खुद के ही कहे को नज़र लग गयी. और एक महाशय उलटा-सीधा लिखने लगे, मेरे लेखन की जबतक आलोचना  करते कोई,बात नहीं..सबकी अपनी पसदं-नापसंद होती है. पर महाशय दूसरे के बचपन की यादों को कूड़ा-करकट कहने लगे, उनकी कोशिश होती,पोस्ट से ध्यान हटकर किसी दूसरी बहस में उलझ जाए. लिहाजा,मॉडरेशन लगाना पड़ा. और दुख होता है ,जबतक मॉडरेशन रहता है कोई आपत्तिजनक टिप्पणी नहीं आती,जहाँ मॉडरेशन हटा, टप्प  से टपक पड़ती है...दुखद है यह...पर अवश्यम्भावी भी है..सब कुछ रोज़ी रोज़ी ही हो..कैसे हो  सकता है ऐसा.


ब्लॉग्गिंग  के कुछ जुदा अनुभव भी रहे...ये हमारा प्रोफेशन नहीं है..महज एक शौक है पर कभी-कभी कमिटमेंट की मांग भी करता है.
मराठी-ब्लॉगर्स  के सम्मलेन की खबर पढ़ी थी और उसे ब्लॉग पर शेयर करना चाहती थी पर  उस दिन मेरी तबियत बहुत खराब थी. बैठना भी मुश्किल हो रहा था. पर परिवारवालों की नाराज़गी झेलकर भी वो पोस्ट लिखी,क्यूंकि कोई खबर समय पर शेयर की जाए तो ही अच्छी लगती है.
कभी मेहमानों से घर भरा होता है,परन्तु अपने ब्लॉग पर या किसी और ब्लॉग पर  किसी विमर्श में  भाग लिया हो तो समय निकाल कर जबाब देना ही पड़ता है.

ब्लॉग्गिंग से मेरे आस-पास के लोग भी काफी  हद तक प्रभावित हुए हैं.
पतिदेव खुश हैं कि अब उन्हें,अपने  व्यस्त रहने पर ज्यादा शिकायतें नहीं सुननी पड़तीं. 
कहीं भी जाना हो तो सहेलियाँ,आधा घंटे पहले याद से फोन कर देती हैं कि 'अब, लैप टॉप  बंद कर ..तैयार होना,शुरू करो.'
मेरी कामवाली  बाई बेचारी भी बहुत को-औपेरेटिव है, देर से आएगी  तो कहेगी..'सबसे पहले आपका टेबल साफ़ कर दूँ, आपको काम करना होगा'. कभी कुछ  नहीं मिलने पर कहेगी.."नहीं नहीं..आप काम करो..मैं ढूंढ लूंगी" बेचारी को अगर पता चल गया कि इन सब काम के मुझे पैसे नहीं मिलते तो मुझे दुनिया का सबसे बड़ा पागल समझेगी. मुझे पागल समझने से तो अच्छा है,उसका यह भ्रम बना रहे.:)

पर सबसे प्यारी प्रतिक्रिया मेरे छोटे बेटे की रही { माँ ,थोड़ी पार्शियल हो ही जाती है :) }

इतने लोगो के  उत्साहवर्धक कमेन्ट और लगातार अखबारों  में मेरी पोस्ट प्रकाशित होते देख, उसने कहा,"हमलोगों को बड़ा करने में कितना  टाइम वेस्ट किया ना...अगर लगातार लिखती रहती तो क्या पता हिंदी की 'शोभा डे' हो जाती या फिर उनसे भी  आगे निकल  जाती."
मैने उसे समझा दिया..."इतने दिन अनुभव भी तो बटोरे...जिन्हें अब लिख पा रही हूँ " पर उसका इतना समझना ही संतोष दे गया.

सोचा था.एक साल पूरा हो जाने के बाद ब्लॉग्गिंग से कुछ दिन का ब्रेक लूंगी. शायद मन में यह ख्याल भी होगा कि विषय भी ढूँढने पड़ेंगे लिखने को..एक अंतराल आ जायेगा. पर फिलहाल तो ऐसे आसार नज़र नहीं आते, कुछ विषय जो ब्लॉग्गिंग शुरू करने से पहले सोच रखे थे...आज भी वे बाट जोह रहे हैं,अपने लिखे जाने का....सो आपलोग  यूँ ही झेलते रहिए मेरा लेखन...:)


आप सबो का.. यूँ साथ बने रहने का...मेरी हौसला-अफजाई का...विचारों के आदान-प्रदान का....बहुत बहुत शुक्रिया.

बुधवार, 12 जनवरी 2011

"वाइफ स्वाप" बनाम "माँ एक्सचेंज"

हमारे टी.वी. के सारे के सारे रियलिटी शोज़ किसी ना किसी विदेशी चैनल के शोज़ की नक़ल होते हैं...चाहे वो 'कौन बनेगा करोडपति' हो, 'बिग बॉस' हो, या फिर ,'इंडियन आइडल', 'रोडीज', 'मास्टर शेफ', 'जंगल में मंगल' या 'फिअर फैक्टर'. पर एक प्रोग्राम स्टार वर्ल्ड पर देखा करती थी और हमेशा हम फ्रेंड्स चर्चा करते थे कि इस एक शो की नक़ल नहीं की जा सकती. या इस शो पर आधारित कोई शो नहीं बन सकता और वो था  Wife Swap क्यूंकि हमें यकीन नहीं होता था कि भारत में कोई महिला यूँ तैयार हो जायेगी,नितांत किसी अपरिचित के घर में आठ दिन बिताने को. सिर्फ बिताने को ही नहीं,उसके घर की सारी जिम्मेवारी लेने को.

पर जब से सोनी चैनल पर "माँ एक्सचेंज ' प्रोग्राम के प्रोमोज आने लगे, हैरानी हुई कि यहाँ कि महिलाएँ भी तैयार हो गयीं, घर की  अदला-बदली को. आज इसके पहले एपिसोड का प्रसारण था. और मशहूर  मॉडल-अभिनेत्री पूजा बेदी एक मध्यमवर्गीय कॉमेडियन के घर आठ दिनों के लिए शिफ्ट हो गयीं और उनकी पत्नी 'अनुराधा' ,पूजा-बेदी के घर.


प्रोग्राम का फॉरमेट वही है जो  Wife Swap  का था. चार दिन महिला को उस घर के कायदे-क़ानून के अनुसार रहने पड़ते हैं और बाकी के चार दिन वो उस घर के सदस्यों के लिए अपने नियम बनाती है, जिसका पालन उन्हें हर हाल में करना होता है.


लेकिन दोनों प्रोग्राम की समानताएं बस यहीं समाप्त हो जाती हैं. Wife Swap में सचमुच ऐसा लगता था कि अनजान महिला, उस घर में आकर वहाँ के नियम के अनुसार रहने की कोशिश कर रही है. और घर वाले भी उसे उस घर की स्वामिनी  की तरह ही स्वीकार कर रहे हैं. पर जैसे हॉलीवुड फिल्मो के फूहड़ रीमेक बन कर रह जाती हैं...अपनी बॉलिवुड फिल्मे. ठीक वैसा ही ये प्रोग्राम है . इसमें बिलकुल जाहिर हो रहा था कि प्रोग्राम को मसालेदार बनाने के लिए, घर वालों  को निर्देश दिए गए हैं
.
पूजा बेदी के घर , अनुराधा (नई महिला)  के आते ही...पूजा की बेटी की सहेलियाँ आकर जोर-जोर से गाना बजा कर डांस करने लगती हैं. वे लोग अनुराधा के खाने में ढेर सारी मिर्च डाल देती हैं. पूजा की बाई भी उसे नए-नए तरीके से परेशान करती है.

वैसे ही पूजा बेदी के साथ उन कॉमेडियन का व्यवहार भी बहुत ही नकली और ओवर द टॉप लगता है. सहजता नहीं दिखती. अगर निर्माता-निर्देशक ,किसी प्रोग्राम की नक़ल ही करते हैं तो उसका पूरा कांसेप्ट समझ कर ईमानदारी से बनाने की कोशिश क्यूँ नहीं करते? उन्हें भारतीय दर्शक ,इतने बेवकूफ क्यों लगते हैं कि वे subtle comedy  नहीं समझ पायेंगे...या अन्तर्निहित बात उन्हें समझ नहीं आएगी...हर बात जोर-जोर से बोल कर हाव-भाव के साथ दिखानी जरूरी लगती है उन्हें.


अगर इस प्रोग्राम को ईमानदारी से बनाने की कोशिश की गयी होती तो शायद देखने लायक बन पड़ती पर इसमें अपनी सोच का तड़का लगा...बिलकुल ही जायका खराब कर दिया है.  फिर भी मनोरंजन के साधन के नाम पर सिर्फ टी.वी.प्रोग्राम पर ही निर्भर, हमारे देशवासी शायद ये प्रोग्राम भी नियमित देखें   और इसे हिट  बना दे.


दो शब्द पूजा बेदी के लिए. वे अपने कपड़ों..अपने बोलचाल से बिलकुल एक सोशल बटरफ्लाई ही लगती हैं...लेकिन इस प्रोग्राम में भी उनकी warm personality  उभर कर आई है. वे  जिस घर में गयी हैं,वहाँ सचमुच अपनी तरफ से सुधार लाने की और घर के सदस्यों को खुश रखने की कोशिश करती हैं.


मेरे आस पास भी पूजा बेदी के दो प्रशंसक हैं. एक तो मेरी सहेली,राजी जो काफी साल पहले, पूजा का इंटरव्यू लेने गयी थी...और पूजा ने बिना किसी नाज-नखरे के समय दिया था और बिलकुल एक सहेली की तरह बात की थी...अपने हाथ से कॉफी बना कर भी पिलाई थी उसे.

और दूसरा मेरा बेटा, उसके कॉलेज फेस्टिवल में सेलिब्रिटीज़ को आमंत्रित करने की जिम्मेवारी उसे सौंपी गयी थी. उसके अनुभवों  पर एक पोस्ट लिखी जा सकती है. कई सारे बहुत नामालूम  से सेलिब्रिटी ने बहुत रुड्ली बात की और कई लोगो ने बहुत विनम्रता और प्यार से. देवानंद अनजान नंबर देख भी , फोन उठाते हैं, और sing-song way...में थोड़ा गा कर बोलते हैं.."whooo iizz calling.." गेस्ट का आमंत्रण स्वीकार तो नहीं किया पर बात प्यार से की.


पूजा बेदी ने फोन पर भी नम्रता से बात की...अपनी गाड़ी से आयीं. प्रोग्राम से पहले आ गयीं...जल्दी जाने के नखरे नहीं किए. और जब अंकुर ने हाथ मिलाया तो एकदम से चिंता की "तुम्हारा हाथ गर्म क्यूँ है..तुम्हे बुखार लग रहा है" (उसे बुखार था..पर प्रोग्राम की वजह से जाना पड़ा) फिर उसकी तारीफ़ भी की कि ऐसा ही कमिटमेंट होना चाहिए..आदि"


शायद इसी से कहते है, कभी सहजता नहीं छोड़नी चाहिए...कब, हमारा कोई छोटा सा gesture.....हमारी कोई  छोटी सी बात,  किसी के दिल में जगह बना लेती है...हमें खबर भी नहीं होती

सुरेख सीकरी (सूत्रधार), पूजा बेदी अपने बच्चों के साथ, कॉमेडियन  राजू निगम अपने परिवार के साथ

शनिवार, 8 जनवरी 2011

रिश्ते....वफ़ा... ऐतबार...तेज हवाओं में जैसे जलते चिराग

(चित्र सतीश पंचम जी के सौजन्य से )
कभी नहीं सोचा था, 'अवैध ' या 'विवाहेतर सम्बन्ध ' जैसे  विषय पर कभी कुछ लिखूंगी...इसलिए भी कि यह एक रोग मध्यम वर्ग से कुछ दूर ही रहता है. मध्यम वर्गीय पुरुष, कैरियर  बनाने में...सर पर एक छत की जुगाड़ में...बच्चों की उच्च -शिक्षा के प्रबंध  में और फिर भविष्य सुरक्षित करने के उपायों में आपादमस्तक इतने आलिप्त  रहते हैं कि उनके ह्रदय के दरवाजे पर पत्नी के सिवा कोई और मोहतरमा दस्तक नहीं दे पातीं. (अगर दे भी तो दरीचों को कस कर बंद कर लेने के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं होता ) अब यह उनकी मजबूरी के तहत है..या स्वेच्छा से, ये तो वे ही जानें. शायद पुरुष-मित्रों के सामने दिल खोल कर रखते  हों पर हम महिलाएँ तो यही सोच खुश हो जाती हैं कि आस-पास चलती बयार से वे बेखबर ही रहते हैं. (अपवाद हर जगह हैं...यहाँ,बहुसंख्यक की बात हो रही है ) बेखबर ना भी हों तो जरा पड़ोसी, कलीग या फिर पत्नी की सहेली से दो मीठी बातें कर लीं  (harmless flirting ) इस से ज्यादा ये लोग अफोर्ड नहीं कर पाते या फिर पुरानी प्रेमिकाओं को दिए-लिए या देने  की सोच कर लिखे गए पत्र बांच कर ही तसल्ली पा लेते हैं ( मध्यमवर्गीय महिलाओं की खुशकिस्मति :)}


लेकिन फिर इस विषय पर मुझे लिखने की क्या सूझी??...दरअसल कभी-कभी शहर  के अंदेशे से मियाँजी की तरह दुबले भी होना चाहिए { योगा..वाक ..कुछ ना कर पाया, यही सही :)} लेकिन असल बात ये है कि आजकल मेरी कामवाली बाई इसी वजह से बहुत त्रस्त है....और रोज ही अपना दुखड़ा रो जाती है.  उसकी उम्र का तो पता नहीं...क्यूंकि इन लोगो की शादी बहुत जल्दी हो जाती है. दो बेटियों की शादी हो गयी है...वे गाँव में हैं. अकेले यहाँ अपने पति के साथ रहती है. सुबह से शाम तक कई घरों में काम करती है..छः हज़ार तक कमा लेती है.उसकी  अपनी झोपड़ी है. कहती तो है कि उसने अपने पैसों से बनवाया है,पति के पैसो से नहीं. पर उसका दुख है कि पति ड्राइवर है. दस-बारह हज़ार रुपये कमाता है. पर सारे पैसे उसके सामने रहने वाली, एक औरत पर खर्च कर देता है, जो पांच बच्चों की माँ है. इसे सिर्फ पंद्रह सौ रुपये देता है. और यह उसके कपड़े साफ़ करती है. खाना  बनाती है. खाने में भी उसे रोज मच्छी-मटन चाहिए.अच्छा खाना नहीं बनाने पर, उसे गालियाँ देता है...और जब यह पलट कर कुछ बोलती है तो हाथ उठाता है.


मैं उसे समझाती हूँ...तुम अपना पेट पाल  सकती हो....अपने पति पर आश्रित नहीं हो...छोड़ दो उसका खाना  बनाना...उसके कपड़े धोना....इस तरह दुखी होने से क्या  फायदा?? पर मेरे लिए कहना आसान है. रोज अपनी आँखों के सामने पति का दूसरी औरत को पैसे, कपड़े ला कर देना...घूमने लेकर जाना..बर्दाश्त करना कितना  मुश्किल है ये तो उसका दिल ही जानता होगा.


मेरे समझाने पर कहती है.."अब से अयेसायीच  करेगी" कहने को तो वह कह देती है. पर उसका असली  दुख है कि वह दूसरी औरत को पैसे क्यूँ देता है. उसके प्रति आसक्त क्यूँ है?? रोज ही बडबडाती रहती  है..."मेरा आदमी उदर  को गया..पीछू से ये भी गयी "... "कल इगारे बजे रात को आए दोनों ..क्या मालूम किदर को गए थे?"...."मेरे आदमी को भी अक्कल नई है....उसका आदमी तो कुछ कमाता  नई...ऐसी  औरत लोग को समझना मांगता ना...मेरे आदमी के पिच्छे  क्यूँ पड़ी है??"


अब इस प्रश्न का जबाब किसी के  पास है?? जबाब तो नहीं...पर सोचने को मजबूर कर देती हैं...ऐसी बातें.


आखिर क्या वजह है...कि उच्च  और निम्न वर्ग में ऐसी घटनाएं आम हैं? कई सारे बड़े बड़े  नाम हैं..'धर्मेन्द्र'.. 'आमिर खान'.. 'सैफ'..'महेश भट्ट ' 'शशि थरूर'...'अज़हरुद्दीन'...'संजय  सिंह'....आदि  (नामो की फेहरिस्त बड़ी लम्बी है..कहाँ तक लिखे कोई ) जो काफी दिनों तक वैवाहिक जीवन बिताने के बाद ..दूसरी महिला के प्रति आकृष्ट हो गए.


शायद वजह ये है कि पहली पत्नी उनके संघर्ष की साक्षी होती है. उनका फ्रस्ट्रेशन...हताशा...नाराज़गी,सब देखा होता है. पर जब ये सफलता  के शिखर पर  पहुँच जाते हैं...तब सिर्फ ऊँची ऊँची बातें करते हैं...दरियादिली दिखाते हैं....quotable quotes उच्चारित करते हैं. हैं. उनके व्यक्तित्व का सिर्फ उजला पक्ष ही सामने आता है..जिसे देखकर कन्याएँ बलिहारी जाती हैं...और इन अधेड़ पुरुषों का खूब ego massage होता है. अब पत्नी तो इतनी तारीफ़ करने से रही क्यूंकि उसने वो काला पक्ष भी देखा होता है...जब लोगों  को कितनी गालियाँ दी गयी होती हैं...कितने चाल  चले गए होते हैं....कितनी जोड़-तोड़ की गयी होती है. इसलिए वो अब उनके अनमोल वचन से प्रभावित नहीं होती.


और भी बहुत से कारण हैं...रूप-यौवन...अपनी पत्नी की ज़िन्दगी का केंद्र बिंदु ना होना. क्यूंकि पत्नी पर घर की, बच्चों की जिम्मेवारियाँ बढ़ जाती हैं. और वो अब पति को undivided attention  नहीं दे पाती..जो ये बालाएँ बखूबी कर लेती हैं.


इतने दिनों पत्नी के सान्निध्य में रहने से उन्हें स्त्री मन की भी अच्छी पहचान हो जाती है. स्त्रियों की पसंद-नापसंद भी ये अच्छी तरह जान लेते हैं. पर उनका मेल इगो उसे अपनी पत्नी के साथ आजमाने नहीं देता. यह सब वे दूसरी महिला-कन्या को इम्प्रेस करने में उपयोग करते हैं. अब इस उम्र में थोड़ी मेच्योरिटी  भी आ गयी होती है. अपनी शुरूआती दिनों में की गयी  गलतियां वे नहीं दुहराते और ये सारे गुण,दूसरी औरतों को आकृष्ट करते हैं.


मशहूर फिल्म निर्देशक (मासूम  और मिस्टर इण्डिया फेम वाले ) शेखर कपूर ने "मेधा" (जो अब मेधा जलोटा हैं ) के साथ अपनी शादी टूटने की पूरी जिम्मेवारी अपने ऊपर ली  थी. उनके एक इंटरव्यू में पढ़ा था कि.." वो  कैरियर के शुरुआत के दिन थे..वे काफी फ्रस्ट्रेटेड  रहते थे...अपने आप में ही गुम रहते थे...मेधा ने बहुत कोशिश की पर वे उनका साथ नहीं निभा पाए"


काफी दिनों बाद 'सुचित्रा कृष्णमूर्ति' ने एक इंटरव्यू में स्वीकार किया था कि 'शेखर कपूर ने अपनी पहली शादी में अपनी गलतियों से सीखा है...और अब वे उन्हें नहीं दुहराते.' (ये दीगर  बात है कि शायद शादी के दस साल बाद ,अब ये दोनों भी अलग हो गए हैं.)


महमूद के गायक बेटे "अली' ने साफ़-साफ़ कहा था कि बच्चों के स्कूल की वजह से शूटिंग्स पर उनकी पत्नी उनके साथ ट्रैवेल नहीं कर सकती...इसलिए अपना अकेलापन दूर करने को उन्होंने दूसरी शादी की (कोई उनसे पूछे कि पत्नी अपना अकेलापन दूर करने को क्या करे....शायद जबाब होगा...उसके पास बच्चे और घर हैं )


जब पत्नी को पति की इस नई आसक्ति का पता चलता है तो वो विरोध  करती है...भला-बुरा कहती है...कड़वी बातें कहती है..जिस से पुरुष और भी दूर होता जाता है...और अंततः हमेशा  के लिए दूर हो जाता है.


शायद कुछ लोग कहेंगे...पत्नी की भी गलती होती है...हो सकता है...पर कई जगह पति भी पूरी तरह गलत होता है तो पत्नी तो किनारा नहीं कर लेती. पर यह सब अनादिकाल  से चलता आ रहा है...और कभी विलुप्त होगा, ऐसा प्रतीत तो नहीं होता.


बस मध्यम-वर्ग इन सबसे बचा ही रहे...और अपनी नून-तेल-लकड़ी की माथापच्ची में ही जुटा रहे...यही बेहतर है

बुधवार, 5 जनवरी 2011

दीदार-ए-युसुफ खान

'कॉफी विद करण' कोई बहुत ही उत्कृष्ट प्रोग्राम नहीं है पर मनोरंजक तो है ही....और याद रह जाए तो मैं कभी मिस नहीं करती. करीब एक हफ्ते पहले से ही प्रोमोज देख रही थी,कि इस बार अमिताभ बच्चन आ रहे हैं पर उनके साथ आए गेस्ट को देखने की  मुझे ज्यादा उत्सुकता थी. और कैमरा था कि एक झलक  श्वेता की दिखा कर फिर से अमिताभ बच्चन पर टिक जाता. श्वेता बहुत ही स्लिम लग रहीं  थीं  और पहली बार एक ऑफ शोल्डर मॉडर्न ड्रेस में थी. श्वेता बच्चन नंदा  हमेशा बहुत ही शर्मीली, कैमरे से दूर रहनेवाली रही हैं. उन्हें  काफी करीब से भी देखने का मौका मिला पर तब तो इतनी स्लिम  नहीं थी. एक ढीलीढाली सी सलवार कमीज़ पहने थीं और बालो को पीछे कर एक रबर बैंड से बाँध रखा था .लिपस्टिक की हल्की  सी रेखा भी नहीं. माथे पर लाल टीका लगा हुआ था  (एकता कपूर की तरह) माँ ने घर से निकलते वक्त लगाया होगा. पर प्रोग्राम में तो सीधी किसी फैशन शो के रैम्प पर चलने वाली श्वेता लग रही थीं.


प्रोग्राम में पिता-बेटी की गुफ्तगू में कई अनोखी बातें भी पता चलीं . बच्चन  परिवार का कोई भी व्यक्ति घर में आई किसी भी पत्रिका या अखबार का कोई आलेख पढता है तो हाशिए पर अपना नाम लिख देता है जिस से दूसरे सदस्य को भी पता चल जाए कि यह आर्टिकल दूसरे ने पढ़ रखी है और फिर उस विषय पर डिस्कस किया जा सके. करण के पूछने पर कि "क्या ऐश्वर्या भी ये रूल फॉलो करती हैं?" दोनों ने एक स्वर से कहा.."हाँ, वे  ARB लिखती हैं."


जब श्वेता से पूछ गया कि अमिताभ बच्चन की एक कमजोरी बताएँ....तो उसने कहा," डैड बहुत जल्दी पैनिक हो जाते हैं..जैसे मैं बीमार पड़ गयी तो घबरा जाते हैं और फिर मुझे ही डांटना शुरू कर देते हैं." अमिताभ ने भी जबाब दिया,..."वो इसलिए कि मैं बहुत ज्यादा केयर करता हूँ" पर श्वेता ने कहा ,"लेकिन मैं बीमार हूँ...मुझे आप कैसे डांट सकते हैं?"


यह बात मैने भी गौर की है. हम सब ऐसा करते हैं. मैं छोटी थी तब भी ऐसे ही डांट सुनती थी और आज मैं भी एक्जैक्टली ऐसा ही करती हूँ. होता ये है कि हम घबरा जाते हैं...बच्चे को बीमार देख,हमें अच्छा नहीं लगता. और हम उसे ही डांटने लगते हैं, "कहा था ना..स्वेटर पहनो..ठंढ में बाहर मत जाओ...आइसक्रीम मत खाओ...पर सुनना ही नहीं है..वगैरह..वगैरह." पर दरअसल जो बीमार है...उसे, उस वक्त ये सब नहीं कहना चाहिए. लेकिन  सच ये भी है कि बस उसी वक्त वे चुपचाप सुन लेंगे.लेकिन इसे सही तो नहीं कहा जा सकता और ऐसा करना भी नहीं  चाहिए. सोचा तो है....मैं भी ऐसा नहीं करुँगी..पर कितना अमल  हो पाता है,पता नहीं.


अमिताभ बच्चन की एक आदत पर श्वेता और करण दोनों बहुत हँसे, वे बहुत ही organized हैं .एक चश्मा, बेडरूम में..दूसरा ड्राइंगरूम में..तीसरा कार में ऐसे ही inhaler भी (उन्हें दमा है) ...बेडरूम , ड्राइंगरूम, बाथरूम,कार..सब जगह रहती  है. अमिताभ बच्चन के  सफाई देने पर श्वेता ने कहा.."पॉकेट में एक चश्मा और एक inhaler ही काफी है..नॉर्मल लोग ऐसा नहीं करते" और ये तो सच है...ऐसा नहीं कि कोई चाहे तो चार चश्मे नहीं बनवा सकता. पर कोई करता नहीं ऐसा.


एक बात और अमिताभ ने अपने बुरे दिनों की बताई  कि जब उनकी फिल्मे फ्लॉप हो रही थीं. तो प्रीतीश नंदी ने Illustrated Weekly में फ्रंट पेज पर बोल्ड अक्षरों में छाप  दिया था " FINISHED  " अमिताभ ने अपने टेबल पर वो पन्ना खोल कर रख दिया था और रोज़ ,सुबह शाम वे उस पेज को देखा करते  और कसम खाया करते कि इस इबारत को  बदल डालना है.


एक बार सिमी गरेवाल के शो में भी बच्चन परिवार आया था और अमिताभ ने बताया कि उनके दोस्त,परिवारजन सब  उनके  KBC होस्ट  करने के विरुद्ध  थे. पर उन दिनों वे  इतने क़र्ज़  में डूबे हुए थे और इतने जरूरतमंद थे कि सेट पर  झाडू तक लगाने को तैयार थे (प्रतीकात्मक रूप में  ही यह कहा होगा..पर वैसी बुरी स्थिति से उबर कर आना, जीवट वाले ही कर सकते हैं. )


अमिताभ बच्चन sms सेवा का भी भरपूर उपयोग करते हैं. पूरे परिवार का  एक sms ग्रुप है. और वे लोग एक दूसरे को हर एक्टिविटी की खबर करते रहते हैं. उन्होंने शाहरुख़ खान और धोनी द्वारा उनके sms का उत्तर नहीं दिए जाने की शिकायत भी की.(जिसके लिए शाहरुख़ खान ने अगले प्रोग्राम में हाथ जोड़कर माफ़ी मांगी, न्यूज़ चैनल वालो ने ये दृश्य सौ बार तो दिखाए ही होंगे ) श्वेता ने यहाँ भी पापा को प्यार भरी  झिड़की दी.."कम ऑन डैड...वो जानते भी नहीं होंगे कि सच में आपने  sms किया है."


करण जौहर के एक प्रश्न पर प्रोग्राम में ठहाके गूँज उठे..जब करण ने पूछा, "जया आंटी की कोई कमजोरी बतायें " अमिताभ का तुरन्त जबाब था.."मरवाना है क्या?" :) श्वेता ने भी कहा..".मुझे तुम्हारा शो....कॉफी हैम्पर '(जीती जाने वाली बास्केट) कुछ भी नहीं चाहिए..पर माँ के विरुद्ध  एक शब्द नहीं कह सकती.


आप सब सोच रहे होंगे...शीर्षक  में दिलीप कुमार हैं...और चर्चा अमिताभ और श्वेता की .दरअसल ज्यादा महत्वपूर्ण  बात तो अंत के लिए बचा कर रख ली जाती है,ना.. श्वेता को मैने मुंबई से दिल्ली जाने वाली फ्लाईट  में करीब से देखा था. और उसी प्लेन में दिलीप कुमार भी थे. वैसे वे लोग बिजनेस क्लास  में थे और उन दोनों की आया हमलोगों के साथ एक्जक्यूटिव क्लास में.:( दिलीप-सायरा के साथ वाली लड़की तो काफी स्मार्ट थी. पर श्वेता के बच्चो की आया तो नारंगी रंग के बड़े से क्लिप और चटख नारंगी रंग के साधारण से  सूट में प्लेन में अलग सी ही दिख  रही थी.


मेरे पतिदेव ने कई सालों  तक एक टेलिविज़न चैनल में जॉब की है.(कमर्शियल साइड)  लिहाज़ा अवार्ड फंक्शन वगैरह में काफी करीब से बड़े बड़े स्टार्स को देखने  का मौका मिला है.खासकर हम रिहर्सल देखने जाया करते थे. जहाँ कोई भीड़-भाड़ नहीं होती थी और सारे स्टार बिना किसी मेकअप के रिहर्सल करते और आस-पास आकर बैठ जाते. एक बार फ्लाईट में हृतिक रौशन,जैकी श्रौफ़,सुष्मिता सेन वगैरह भी मिले थे.पर कभी किसी की ऑटोग्राफ लेने की नहीं सोची.


पर दिलीप कुमार तो legend हैं. उनका ऑटोग्राफ लेने का मौका मैं नहीं छोड़ने वाली  थी. दिल्ली एयरपोर्ट पर पति से  बस कहा कि 'मैं दिलीप कुमार का औटोग्राफ लेने जा रही हूँ'...उन्हें 'हाँ'....'ना' कहने का ऑप्शन ही नहीं दिया और सामान कलेक्ट करने की जिम्मेवारी उनपर छोड़ मैं चल दी,दिलीप कुमार को ढूँढने.  पर वे तो कहीं नज़र ही नही आ रहे थे. तभी कुछ दूरी पर सायरा बानो अपनी उसी आया के साथ खड़ी दिखीं. सोचा....ऑटोग्राफ के बहाने थोड़ी देर उनके पास ही रुका जाए. दिलीप साहब जहाँ भी होंगे, आयेंगे तो यहीं. पर उनकी तरफ बढ़ते हुए ख्याल आया कि ऑटोग्राफ लूंगी किसपर??  कोई डायरी वगैरह तो है नहीं. पर्स में एक पेन तो मिल गया (जो एक पार्टी में हाउजी खेलने के लिए रख  छोड़ा था ) और पर्स में से दो बिल निकले एक लौंड्री  के और एक टेलर के.{ 'रॉक ऑन' फिल्म  का वो गाना हमेशा याद आता है.." मेरी लौंड्री का एक बिल...एक आधी पढ़ी नोवेल" :)} ...मैने उस बिल को ही  पलट कर ,पर्स से आईना निकाला (अभी लास्ट पोस्ट में ही पर्स में आइने के महत्त्व का उल्लेख किया है....जिस काम के लिए रखा जाता है...वो तो संकोचवश कभी नहीं किया...पर दूसरे कार्यों  में बहुत साथ दिया, इस छोटे से शीशे ने )  आइने को उलट कर, उसपर वो लौंड्री का बिल बिछाया और कलम  लेकर सायरा जी के पास पहुँच गयी. वहाँ  समय भी काटना था  और सायरा बानो की, 'जंगली' छोड़ कोई और फिल्म  याद ही नहीं आ रही थी..जिसका जिक्र कर के थोड़ा बातचीत आगे बढाऊं. जंगली का ही जिक्र किया..फिर याद आया कहीं पढ़ा था 'वे भोजपुरी में फिल्म बनाने की सोच रही थीं क्यूंकि विदेशो में उसका अच्छा मार्केट है....उन्होंने कनाडा में बसे  भारतीयों  के भोजपुरी प्रेम  का जिक्र किया था ,(अब समीर जी और अदा इस पर रौशनी डाल सकते हैं )..पर सायरा जी थोड़ा भाव खा रही थीं...जबाब तो दे रही थीं...पर जरा अनमने ढंग से फिर मैने पूछ  ही लिया,.."दिलीप जी ..नज़र नहीं आ रहे "


सायरा जी ने कहा, "साहब को पायलट अपनी केबिन में और लोगो से मिलाने ले गए हैं " {कौन नहीं  है उनका मुरीद :)}


मैने कुछ और पूछा ..और सायरा जी जबाब दे ही रही थीं...कि अपनी सदाबहार मुस्कान के साथ,दिलीप जी खरामा ,खरामा  इस तरफ आते दिखे.  कुर्तानुमा  सफ़ेद शर्ट और सफ़ेद पैंट पहन रखी थी उन्होंने. माथे पर झुके बाल भी  सही सलामत थे, वो मशहूर  लट भी. (विग तो नहीं लग रहा था ) .मैने ध्यान ही नहीं दिया कि सायरा जी की बात ख़त्म नहीं हुई है.और दिलीप कुमार की तरफ बढ़ गयी. सायरा जी के आग्नेय नेत्र पीठ पर महसूस हो रहे थे पर उसे निरस्त्र करने को दिलीप जी की शीतल मुस्कान  सामने ही थी:) . मैने झट से इस बार टेलर वाला  बिल सामने बढ़ा दिया..(याद नहीं..पर 'ऑटोग्राफ प्लीज़' ही कहा होगा) दिलीप कुमार ने झुक कर साइन कर दिया. पर उनका सिग्नेचर कुछ समझ में नहीं आ रहा था और मैने पूछ ही लिया " आपने दिलीप कुमार के नाम से साइन किया है या युसुफ़ खान नाम से "


दिलीप कुमार ने फिर मुस्कुरा कर कहा.."दिलीप लिखा है....कहिए तो युसुफ भी लिख दूँ..??" इस दिलकश अंदाज़ में कहा था कि अगर उम्र का वो  फासला नहीं होता ..और ये डायलॉग उन्होंने अपने स्टार वाले दिनों  में कहे होते  तो मैं तो वहीँ बेहोश ही हो गयी होती.:)


"लिख दीजिये..." चहक कर बस इतना ही कहा. और उन्होंने इस बार स्पष्ट शब्दों में युसुफ लिख दिया.


मुझे ऑटोग्राफ लेते देख..कुछ और लोगों की  हिम्मत बढ़ी और उनलोगों ने भी दिलीप जी को घेर लिया.

अब, मुझे अपने पति-बच्चो की सुध आई .पतिदेव ने अकेले सामान संभाला था और अब उन्हें ये किस्से भी सुनने थे.

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