बुधवार, 29 जून 2011

पुत्र के विरुद्ध ,पुत्रवधू के पक्ष में पिता की गवाही

पहले भी अखबारों की कुछ  ख़बरें...शेयर करती आई हूँ...आज ही Mumbai   Mirror में कुछ ऐसा पढ़ा कि लगा...ऐसी ख़बरें लोगो के सामने आनी चाहिए .

इसका एक पक्ष तो दुखद सा कटु सत्य  है. अंग्रेजों के इतने साल की गुलामी की वजह से गोरे रंग के प्रति हमारी रुझान आज भी  बनी हुई है. ढेर सारे विज्ञापन भी यही कहते हैं.Fair is Lovely .सामने से जो भी कहें लोग, पर मन ही मन हर कोई एक अदद गोरी बीवी और गोरे बच्चों की कामना रखता ही है. (यहाँ महिलाओं के विषय में जरूर कहूँगी...कि वे लोग  TDH (tall,dark and handsome )पर ही रीझती रहीं हैं और उन्हें पति के सांवले सलोने होने से  कोई शिकायत नहीं होती है }

इस गोरे रंग के प्रति आकर्षण ने एक महिला का जीवन नरक कर डाला. मई 2005 में मुंबई निवासी सत्ताईस वर्षीय लक्ष्मण शिंडे का विवाह हुआ. शादी के तुरंत बाद ही शिंडे अपनी पत्नी को उसके गहरे रंग की वजह से सताने लगा. उसका लोगो के सामने उपहास उड़ाता. कई बार घर से भी निकालने की कोशिश की. पर वो महिला दूसरी लाखों भारतीय महिलाओं की तरह सारी प्रताड़ना चुपचाप सहती रही. परन्तु पत्नी के काले रंग ने शिंडे को उस से शारीरिक सम्बन्ध बनाने से नहीं रोका. लेकिन अगर पत्नी गर्भवती हो जाती तो वह उसे दवा देकर...उसका गर्भपात करवा देता क्यूंकि उसे डर  था, उसके बच्चे भी काले रंग के होंगे और ये उसे बर्दाश्त नहीं था.  बार-बार गर्भपात से उस महिला का स्वास्थ्य गिरने लगा.

उसके बिगड़ते स्वास्थ्य का कारण उसके ससुर को पता चला. उन्होंने इसका विरोध किया और बेटे को समझाना चाहा....बेटे ने उन्हें धमकी दी...पर उन्हें लगा, ऐसे तो उनकी पुत्रवधू जीवित नहीं बचेगी और उन्होंने उसे अपने मायके भेज दिया. करीब एक साल तक वो मायके में रही..उसके पति ने उसकी कोई खोज-खबर नहीं ली. फिर दोनों परिवारों के बुजुर्ग लोगो के समझाने पर अच्छे व्यवहार का वायदा कर,शिंडे अपनी पत्नी को अपने घर लिवा गया. कुछ दिनों तक सब ठीक रहा. पर फिर जल्द ही उसके रंग को लेकर प्रताड़ना शुरू हो गयी. और जब वो फिर से गर्भवती  हुई तो उसपर गर्भपात के लिए दबाव डालने लगा.

उक्त  महिला अपने मायके आ गयी. २००७ में उसने एक बच्ची को जन्म दिया. सबको लगा,बच्ची के जन्म के बाद,शायद वह बदल जाएगा...पर उनकी आशाएं निर्मूल साबित हुईं. शिंडे ने पत्नी और बच्ची से कोई सम्बन्ध नहीं रखा. फिर भी उक्त महिला और उसके परिवार वाले सोचते रहे कि कुछ दिनों बाद शायद उसे अक्ल आ जाए और वो अपनी पत्नी को स्वीकार कर ले.

पर कुछ ही दिनों पहले शिंडे ने दूसरी शादी कर ली. अब महिला ने पुलिस में शिकायत दर्ज करवा दी है. इन सबमे एक सुखद बात ( जिसने इस पोस्ट को लिखने को प्रेरित किया) ये है कि.उक्त महिला के ससुर ने अपने परिवार वालों की इच्छा के विरुद्ध जाकर  अपने बेटे के विरुद्ध गवाही दी है. पुलिस से कहा है कि..."बेटे ने अपनी पत्नी को बहुत प्रताड़ित किया है और उसे सजा मिलनी चाहिए."

फिलहाल...लक्षम शिंडे फरार है और उसपर 'अपनी पत्नी को प्रताड़ित करने के'...'ब्रीच ऑफ ट्रस्ट के'...'दूसरी शादी करने  के '...'बिना पत्नी  की सहमति के जबरदस्ती गर्भपात करवाने के'  आरोप लगाए गए हैं. पुलिस ने उसे जल्द  ही पकड़ लेने का दावा किया है.

लक्षमण शिंडे पता नहीं कब पकड़ा जाएगा....उसके केस की सुनवाई कितने सालों के बाद होगी...कहा नहीं जा सकता. पर एक ससुर ने आगे बढ़कर अपने बेटे के खिलाफ गवाही दी है. यह एक स्वागतयोग्य दृष्टांत है.

सोमवार, 27 जून 2011

CNN की International Hero of the Year 2010 : अनुराधा कोइराला

नवम्बर 2010  में अमरीकी चैनल CNN  ने 'अनुराधा कोइराला ' को अपना  International Hero of the Year  चुना. जैसा कि सरनेम से ज्ञात होता है....अनुराधा जी , नेपाल से हैं और पिछले 20 वर्षों से एक ऐसे सामाजिक  कार्य में लगी हुई हैं...जिनके विषय में लोग बात करना भी नहीं चाहते और उसके अस्तित्व को भी अनदेखा करने की कोशिश करते हैं...और वो है...देह व्यापार से लड़कियों को बचाना.

1990 में अनुराधा जी ने मंदिर के बाहर भीख मांगती कुछ औरतों से उनके भीख मांगने का कारण  पूछा...और उनलोगों ने बताया कि वे सब दैहिक हिंसा की शिकार हुई है...और उन्हें अब कौन नौकरी देगा. अनुराधा एक स्कूल में अंग्रेजी की शिक्षिका थीं..उन्होंने अपने वेतन के पैसे में से उनलोगों को  सड़क के किनारे छोटी-मोटी चीज़ें जैसे सिगरेट...माचिस...टॉफी...आदि बेचने के लिए चीज़ें खरीदने को पैसे दिए.

 

उन्होंने दो कमरे का एक घर किराए पर लेकर इन औरतों और बच्चे के रहने की व्यवस्था की. धीरे-धीरे इस तरह की सताई हुई औरतें उनके पास सहायता के लिए आने लगी. उनके परिवार और समाज के लोग उन्हें पागल समझते थे जो देह व्यापार में संलग्न औरतों को इस से छुटकारा दिलाना चाहती थीं. (काश....ऐसा पागलपन हज़ार में से किसी एक को भी हो..पर  यहाँ करोड़ों में कोई एक ऐसा पागल होता है)
 

जल्दी ही इनकी देख-रेख के लिए उन्हें अपनी नौकरी भी छोडनी पड़ी...अब, ना उनके पास कोई पैसा था और ना ही किसी तरह का सहारा. फिर भी इन सताई  हुई औरतों के लिए कुछ करने का लगन और जुनून था. 1993 में उन्होंने 'मैती नेपाल ' की स्थापना  की. मैती का अर्थ है, "माँ का घर" UNICEF से मदद मिली....और कुछ और लोगो ने आर्थिक सहायता की.  1993 में शुरू किए गए उस दो कमरे से बढ़कर विगत 17 वर्षों में नेपाल के 29 जिलो में 'मैती नेपाल' की शाखाएं हैं. और देश-विदेश में फैले हज़ारों स्वयंसेवक हैं. मैती नेपाल के दो अस्पताल और एक क्लिनिक भी हैं. अब तक 12000 लड़कियों को उन्होंने देह-व्यापार से बचाया है. जिसमे 12 लडकियाँ सउदी और कुवैत से भी हैं. वे किसी भी उत्पीडित महिला या बच्चे को ना नहीं कह पातीं...और मैती नेपाल उन सब बेसहारों का घर है.

अनुराधा कोइराला
का कहना है कि "करीब दो लाख के करीब लडकियाँ आज भी....भारत के विभिन्न वेश्यालयों  में हैं" इन लड़कियों को सीमा पार करते वक्त ही पकड़ने के लिए अक्सर देह-व्यापार से बचाई गयी लड़कियों को ही नियुक्त किया जाता है. भारत-नेपाल सीमा पर करीब 10 पॉइंट पर 50 लडकियाँ नज़र रख रही हैं. हैं. ये लडकियाँ खुद उस स्थिति से गुजर चुकी हैं...इसलिए ये तुरंत पहचान लेती हैं कि 'कौन सी लड़की देह-व्यापार के लिए ले जाई जा रही है.' सिक्युरिटी फ़ोर्स के जवानो से ज्यादा इनकी नज़र तेज होती है. औसतन रोज चार लड़कियों को बचाया जा रहा है.

Human trafficking असामाजिक तत्व ही करते हैं..और वे बहुत खतरनाक  होते हैं. दो बार 'मैती नेपाल' के भवन को नष्ट किया जा चुका है. उसके स्वयंसेवकों पर हमले हो चुके हैं फिर भी इसके स्वयंसेवक पीछे नहीं हटते . ये लडकियाँ  जानती हैं कि आगे कैसी कांटो भरी जिंदगी होती है..इसलिए ये अपने बहनों को बचाने के लिए तत्पर रहती हैं.


नेपाल में '
मैती नेपाल ' के इस संघर्ष से  नेपाली लड़कियों को देह-व्यापार के लिए विभिन्न देशों में ले जाने के विरोध में काफी जागरूकता फैली. राजनीतिक पार्टियां इसे चुनावी एजेंडा बनाने लगीं. सरकार ने ५ सितम्बर कोAnti Trafficking  Day  घोषित कर दिया.  human trafficking में संलग्न लोगों को अदालत से सजा दी जाने लगी.' मैती नेपाल' , अब तक 496 लोगों को सजा दिलवाने में सहायक हुई है.

देह-व्यापार से बचाए लड़कियों के पुनः जीवन की शुरुआत के लिए  के लिए उन्हें तरहतरह के प्रशिक्षण दिए जाते हैं..जिस से वे अपनी आजीविका कमा सकें. समाज शास्त्रियों का कहना है कि अशिक्षा और गरीबी के करण ही लडकियाँ human  trafficking  का शिकार होती हैं...इसलिए  गाँव-गाँव में लड़कियों की शिक्षा और आत्मनिर्भरता पर भी जोर दिया जा रहा है. हालांकि नेपाल में  राजनीतिक आस्थिरता की वजह से इस मुहिम को अपेक्षित सफलता नहीं मिल रही है. फिर भी 'मैती  नेपाल' के स्वयंसेवक गाँव-गाँव जाकर लोगो में human trafficking  की असलियत बताते हैं. उन्हें किसी लोभ  का शिकार ना बनने की सलाह देते हैं  क्यूंकि अक्सर शहर में नौकरी के बहाने से एजेंट लड़कियों को गाँव से ले आते हैं
.


हाल में ही
CNN  ने एक 50 मिनट की documentary बनाई है...जिसकी   एंकरिंग  डेमी मूर ने की  है..इसमें अनुराधा कोइराला से बात करते हुए  उनके संगठन 'मैती नेपाल' को जानने के साथ-साथ. देह-व्यापार से बचाई कुछ  लड़कियों के इंटरव्यू भी हैं...जिन्हें सुन कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं..."राधिका ने प्रेम-विवाह किया था. उसके प्रेमी ने पहले तो पैसों की खातिर  उसे किडनी बेचने पर मजबूर किया...जब पैसे ख़त्म हो गए तो उसे बेच दिया. तीन साल पहले ही उसे कलकत्ता के एक वेश्यालय से मुक्त कराया गया पर उसके परिवार वाले ने उसे स्वीकार  करने से इनकार कर दिया. उस वेश्यालय की मालकिन ने उसके बेटे की जीभ जला दी क्यूंकि वो बहुत रोता था.
उसे 'मैती नेपाल' में ही आश्रय मिला.
 

नौ साल की गीता की कहानी तो और भी हृदयविदारक है जिसे मेकअप करके एक दिन में साठ आदमियों का सामना करना पड़ता था. मैती नेपाल की एक-एक लड़की  की कहानी ऐसी ही लोमहर्षक है.
बासठ वर्षीया  अनुराधा कोइराला का कहना है...'अभी बहुत काम बाकी है...जबतक नेपाल की सारी लड़कियों को उनके 'माँ के घर' वापस नहीं लाया जाता और बौर्डर के पार लड़कियों को भेजना नहीं रुक जाता..मेरा सपना पूरा नहीं होगा"

फिर भी उन्हें इस बात का संतोष है कि 'बचाई गयी एक भी लड़की वापस उस दोज़ख में नहीं लौटी है.'

जबकि  अक्सर कहानी- उपन्यास- फिल्मो में दिखाया जाता है कि ऐसे हादसों से गुजरी लड़की समाज में कभी जगह नहीं बना पाती...और उसे फिर वहीँ लौटना पड़ता है.
www.cnn.com

बुधवार, 22 जून 2011

एक पिता के प्यार, विश्वास और धैर्य की जीत

इच्छा तो थी कि 'शर्मीला इरोम'  से सम्बन्धित ही कुछ और लिखूं...परपिछली पोस्ट में टिप्पणियों में ही काफी विमर्श हो गया... और शायद लोग अब और ना पढना चाहें...(फिर भी कुछ दिन बाद उन टिप्पणियों के आधार पर ही कुछ लिखूंगी, जरूर) पर ये पोस्ट भी कहीं ना कहीं उन मुद्दों से ही सम्बंधित है.

"शर्मीला इरोम'
के सन्दर्भ में कुछ सज्जनों का कहना था  कि अकेला कोई व्यवस्था से नहीं  लड़ सकता...एक व्यापक जन-समूह की जरूरत होती है. कानून बहुत चिंतन-मनन के बाद बनाए जाते हैं. उन्हें नहीं बदला  जा सकता. अभी हाल में ही देखा...कपिल सिब्बल ने भी  बरखा दत्त को दिए अपने इंटरव्यू में कहा, "हमारा संविधान कई  महान लोगो ने काफी  विचार-विमर्श के बाद बनाए हैं...उसकी धाराएं यूँ ही नहीं बदली जा सकतीं. " (जबकि लगभग ९० बार क़ानून की धाराओं में संशोधन हो  चुका है...ये अलग बात है...तब राजनीतिज्ञ  इसमें अपना फायदा देखकर इसका समर्थन  करते रहे )

Father's  Day  भी अभी अभी गुजरा है...और इस पोस्ट में एक सच्ची घटना के ऊपर बनी फिल्म की चर्चा है...जिसमे तीन बातें मुख्य रूप से उभर कर आती हैं.

प्रथम, एक पिता का अपने बच्चों को पाने का संघर्ष (अक्सर कहानियाँ, सिर्फ माँ के संघर्ष को लेकर ही लिखी जाती हैं )
 

द्वितीय, उसका अकेले ही व्यवस्था के खिलाफ लड़ना
 

तृतीय, अपने जुनून से कानून में परिवर्तन करवाने में सक्षम होना,

 Evelyn एक अंग्रेजी फिल्म है...जो Desmond Doyle  की सच्ची कहानी पर आधारित है...जिसमे  1954   में उसने अपने बच्चों को  वापस अपनी कस्टडी में लेने के लिए  Irish court में केस लड़ा था  और जीत भी  गया था. Irish Children's  Act  में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए.

एवलिन एक सुनहरे लम्बे बालों वाली प्यारी सी बच्ची है. उसके पिता डेसमंड डोएल की नौकरी छूट  जाती है और उसकी माँ एवलिन और उसके दो छोटे भाइयों को छोड़कर किसी और पुरुष के साथ घर छोड़कर चली जाती है. डेसमंड पैसे और घर पर किसी महिला के अभाव में बच्चों की अच्छी तरह देखभाल नहीं कर पाता और जैसा कि विदेशों में नियम हैं..ऐसे हालात में बच्चों को प्रशासन अपनी देख-रेख में ले लेता है. चर्च द्वारा संरक्षित अनाथालय में गर्ल्स होस्टल में लड़की और बोयज़ हॉस्टल में लडको को भेज दिया जाता है.


स्वाभाविक रूप से बच्चे डरे हुए हैं. एवलिन को हॉस्टल छोड़ने उसके दादा जी आए हैं. वे  घबराई हुई एवलिन को पेडों से छन कर आती हुई सूरज की रोशनी की ओर देखने को कहते हैं...और बताते हैं
"ये Angel Rays हैं..और हमेशा तुम्हारी रक्षा करेंगी " इसके बाद जब भी  एवलिन किसी मुश्किल में पड़ती है...उदास होती है..वो Angel  Rays की तरफ देखती है..और उसे संबल मिलता है.  किसी भी  तरह की आस्था और विश्वास कितनी ही कठनाइयों से  लड़ने की हिम्मत पैदा कर देती है.

डेसमंड इसे  टेम्पररी व्यवस्था समझता है..और एक पब में गाना गा कर पैसे कमाना  शुरू कर देता है..इसके बाद जब वो बच्चों को लाने जाता है...तो उसे बच्चे नहीं सौंपे जाते.वो  केस कर देता है...पर जज कहते हैं..."तुम्हारे पास नौकरी नहीं है...रात में अपने पिता के साथ एक पब में गाते हो...(उसके पिता वायलिन बजाते हैं...और डेसमंड गाना गाता है) और शराब पीते हो. ऐसे हालात में बच्चों को तुम्हे नहीं सौंपा जा सकता .


डेसमंड अब शराब छोड़ देता है...और छोटे-मोटे काम..पेंटर-डेकोरेटर का काम शुरू कर देता है.चौबीसों घंटे काम करता है...अब एक अच्छा  वकील कर के अपने बच्चों की कस्टडी के लिए  याचिका दायर करता है. पर आयरिश क़ानून में बच्चों को पिता की देखभाल  में छोड़ने के लिए माँ की सहमति जरूरी होती है.  अगर माँ की मृत्यु हो गयी हो...उसी स्थिति में सिर्फ पिता की सहमति चाहिए होती है.पर यहाँ एवलिन की माँ जिंदा है...लेकिन कहाँ है...कोई खबर नहीं. डेसमंड फिर से केस हार जाता है,..और इस बार जज उसे सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की अनुमति भी नहीं देते.

अब कौन सा  उपाय है.??.पूछने पर वकील कहता है..अगर कानून में ही संशोधन की अपील की जाए तो कुछ संभव है..पर उसके लिए किसी बैरिस्टर को केस सौंपना होगा और बहुत सारे पैसे लगेंगे. डेसमंड फिर से दुगुनी मेहनत कर पैसे  जमा करता है...और वकील से समय ले मिलने जाता है. वकील एपोएंट्मेंट  कैंसल कर अपने फ़ार्म हाउस में छुट्टियाँ बिता रहा है. डेसमंड कंटीले तारों वाली बाउंड्री फलांग कर...अंदर जाने की कोशिश करता है...वकील के बड़े बड़े कुत्ते उसका पीछा करते हैं. किसी तरह भागते हुए वो नदी के बीच में जाकर वकील से मिलता  है..जहाँ वकील अपने एक दोस्त के साथ...एक नाव में फिशिंग कर रहा है
.

वकील के कहने पर कि ये केस किसी तरह भी हम नहीं जीत सकते हैं...डेसमंड उसे चैलेन्ज करता है..कि मैं अपने बच्चों को वापस लाने के लिए कुछ भी  करूँगा. वकील का मित्र अमेरिका से क़ानून की पढ़ाई करके आया है...वो ये केस लड़ने की पेशकश करता है...क्यूंकि अपने डिवोर्स में वो भी अपने बेटे की कस्टडी हार गया था...और एक पिता के दर्द को समझता है.


सरकार भी अपनी तरफ से केस जीतने की पूरी कोशिश करती है..और जिस जज ने इसके विरुद्ध फैसला दिया था उसे अब हाइ-कोर्ट से प्रमोट कर सुप्रीम कोर्ट में ले आती है. डेसमंड के वकील कानून मंत्री को भी विटनेस  बॉक्स में बुलाते हैं...और उन्हें बाइबल से उद्धरण पढ़ने को कहते हैं...(जिसपर, वहाँ का कानून आधारित है) जिसमे लिखा है...कि "बच्चों को  अपने घर से बढ़कर खुशियाँ कहीं नहीं मिल सकतीं". माँ की अनुपस्थिति के लिए भी ये लोग तर्क देते हैं कि चर्च  में हमेशा प्रार्थना करते  वक्त कहते हैं.....
..In  The  Name   of  The  Father  and  the  Son and the Holy Spirit  इसका अर्थ है कि एक पिता भी बच्चों की परवरिश करने में सक्षम है.

केस में कई उतार चढ़ाव  आते हैं...एवलिन की एक नन द्वारा पिटाई करने पर डेसमंड का गुस्से में नन का गला पकड़ लेना..डेसमंड के खिलाफ जाता है. फिर फैसले का दिन आ जाता है.
 

तीन जज में से हाईकोर्ट वाले जज तो इसके विरुद्ध फैसला देते हैं..जबकि बाकी दोनों जज इसके पक्ष में. उनका कहना है..कि "अब तक ऐसा उदाहरण नहीं है...लेकिन उदाहरण नहीं है तो उदाहरण बनाना चाहिए."
 

इस दौरान पूरे देश की  जनता, डेसमंड के साथ रहती ... अखबारों में रेडियो पर उसके इंटरव्यू लिए जाते हैं...उसे Best Man of  the Year का अवार्ड भी दिया जाता है. केस की एक एक पल की खबर की कमेंट्री की जाती है... पूरा आयरलैंड रेडिओ से कान लगाए बैठा होता है...एक टीचर के साथ एवलिन और तीन लडकियाँ भी खबरे सुन रही हैं...जैसे ही जीत की खबर आती है...एक लड़की भागती हुई जाती है...और हॉल में इकट्ठे हुए बच्चों से चिल्ला कर कहती है..."Now  We  All  can go Home"                         
 

जनमत डेसमंड के साथ था...पर इस से केस प्रभावित नहीं हुआ.पूरी न्यायिक प्रक्रिया के तहत ही डेसमंड डोएल ने ये केस लड़ा और जीता और अगली क्रिसमस में बच्चे उसके पास थे.

शर्मीला इरोम
अपने लिए नहीं...दूसरों के लिए लड़ रही हैं...उनके आन्दोलन के सामने ये एक बहुत छोटा सा उदाहरण है..पर हिम्मत करनेवालों की कभी  की हार नहीं होती...

किसी शायर ने कितना सही कहा है...
 
जज़्बा कोई अख़लाक से बेहतर नहीं होता।
कुछ भी यहां इंसान से बढ़कर नहीं होता।
कोशिश से ही इंसान को मिलती है मंजिलें,
मुट्ठी में कभी बंद मुक़द्दर नहीं होता।

शुक्रवार, 17 जून 2011

दूसरों की खातिर शहीद होने की राह पर : शर्मीला इरोम

अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के अनशन से पूरा देश हिल उठा...आम जनता....मिडिया..व्यस्त हो उठे  और प्रशासन.....राजनेता...त्रस्त हो गए

बाबा रामदेव का अनशन ख़त्म करवाने के लिए क्या क्या उपाय और तिकड़म लगाए गए...इस से सब वाकिफ हैं. वहीँ  साधू निगमानंद  ने ११५ दिनों  के अनशन  के बाद दम तोड़ दिया....और किसी को सुध नहीं आई. अब उनकी मौत के पीछे एक साज़िश थी....इस तरह की खबरे आ रही हैं.पर किसी स्वार्थवश सरकार की उदासीनता भी एक वजह तो थी ही.

पर एक और महिला पिछले ग्यारह साल से अनशन पर हैं....और आम जनता को खबर तक नहीं है. शर्मीला इरोम,
भारतीय सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम 1958 को हटाये की मांग को लेकर  11 सालों 
 से भूख हड़ताल  बैठी हैं.11 सितम्बर, 1958 को भारतीय संसद ने सशस्त्र सेना विशेषाधिकार क़ानून [आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (ए.एफ.एस.पी.ए)]  पारित किया . शुरू में इसे 'सात बहनों' के नाम से विख्यात पूर्वोत्तर के सात राज्यों असम, मणिपुर, अरुणांचल प्रदेश, मेघालय, नागालैंड, मिजोरम और त्रिपुरा में लागू किया गया . 1990 में इसे जम्मू कश्मीर में भी लागू कर दिया गया. बेकाबू आतंरिक सुरक्षा स्थिति को नियंत्रित करने केलिए सरकार द्वारा सेना को यह विशेषाधिकार दिया गया.

इम्फाल से 10 किलोमीटर मालोम (मणिपुर) गाँव के बस स्टॉप पर बस के इंतज़ार में खड़े 10 निहत्थे नागरिकों को उग्रवादी होने के संदेह पर गोलियों से निर्ममतापूर्वक मार दिया गया. मणिपुर के एक दैनिक अखबार 'हुयेल लानपाऊ' की स्तंभकार और गांधीवादी 35 वर्षीय इरोम शर्मिला 2 नवम्बर 2000 को इस क्रूर और अमानवीय क़ानून के विरोध में सत्याग्रह और आमरण अनशन पर अकेले बैठ गई.  6 नवम्बर 2000 को उन्हें 'आत्महत्या के प्रयास' के जुर्म में आई.पी.सी. की धारा 307 के तहत गिरफ़्तार किया गया और 20 नवम्बर 2000 को जबरन उनकी नाक में तरल पदार्थ डालने की कष्टदायक नली  डाली गई.  पिछले 11 साल से उनका सत्याग्रह जारी है. शर्मीला का कहना है कि जब तक भारत सरकार सेना के इस विशेषाधिकार क़ानून को पूर्णतः हटा नहीं लेती तबतक उनकी भूख़ हड़ताल जारी रहेगी.

शर्मिला के समर्थन में कई महिला अधिकार संगठनों ने इम्फाल के जे. एन. अस्पताल के बाहर क्रमिक भूख़ हड़ताल शुरू कर दी है, यानी कि समूह बनाकर प्रतिदिन भूख़ हड़ताल करना.  शर्मिला के समर्थन में मणिपुर स्टेट कमीशन फॉर वूमेन, नेशनल कैम्पेन फॉर पीपुल्स राइट टू इंफॉरमेशन, नेशनल कैम्पेन फॉर दलित ह्यूमन राइट्स, एकता पीपुल्स यूनियन ऑफ़ 
ह्यूमन राइट्स, ऑल इंडिया स्टुडेंट्स एसोसिएशन, फोरम फॉर डेमोक्रेटिक इनिसिएटिव्स, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी आदि शामि
ल हैं...विदेशों से भी कई संगठन उनका समर्थन कर रहे हैं...पर अपने देश के सरकार के कान पर जून नहीं रेंगती.
      
उनकी मांग सही है या नहीं.......वे पूरी की जा सकती हैं या नहीं....ये एक अलग विषय है. पर शर्मीला को अपना अनशन तोड़ने के लिए तैयार तो किया जा सकता है...क्या उनकी जान की कोई कीमत नहीं है? उन्हें भी जीने को एक ही जिंदगी मिली है. पिछले ग्यारह साल से उन्होंने मुहँ में कुछ नही डाला...किसी चीज़ का स्वाद नहीं जाना....ये सब उनके मौलिक अधिकार का हनन है..सरकार की जिम्मेवारी नहीं कि वो अपने एक नागरिक के मूलभूत अधिकारों की रक्षा करे??
  बाबा रामदेव के स्वास्थ्य की पल-पल खबर मिडिया में प्रसारित हो रही थी. उनके स्वास्थ्य बुलेटिन जारी किए जा रहे थे. सिर्फ नौ दिन के उपवास में उनके अंग-प्रत्यंगों पर होने  वाले दुष्प्रभावों की चर्चा की जा रही थी. १० साल के उपवास से ,शर्मीला के लीवर-किडनी-ह्रदय पर क्या असर हुआ है...इस से किसी को सरोकार नहीं. इसलिए कि वो एक  आम इंसान हैं?? यानि कि किसी आम इंसान को अपनी आवाज़ उठाने का कोई हक़ नहीं?? 

जबतक हज़ारों-लाखों की तादाद में उनके समर्थक ना हों...किसी को अपनी बात  कहने का हक़ नहीं...और अगर किसी ने कहने की कोशिश की भी  तो उसका कोई असर किसी पर नहीं पड़ेगा. उसका सारा प्रयास व्यर्थ जाएगा... चाहे वो अपनी जान भी क्यूँ ना दे दे. और हमें गर्व है कि हम एक जनतांत्रिक देश में रहते हैं...जहाँ का शासन जनता के लिए और जनता के द्वारा है.

शर्मीला के अनशन को बिलकुल ही नज़रंदाज़ किया जा रहा है...क्या इसलिए कि वे जिन मुद्दों के लिए लड़ रही हैं..उस से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता. अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जिन मुद्दों को लेकर आन्दोलन कर रहे हैं...उस से कहीं ना कहीं हमें भी लाभ होनेवाला है. इसीलिए हम भी उनका साथ दे रहे हैं....इसका अर्थ है..इतने स्वार्थी हैं हम.


मणिपुर के वासियों  की भाषा-रीती-रिवाज-रहन-सहन हमसे अलग हैं...पर है , तो वो  हमारे ही देश का एक अंग. वहाँ, भी उसी उत्साह से स्वतंत्रता दिवस..गणतंत्र दिवस मनाये जाते हैं...राष्ट्रगीत गाया जाता है. क्रिकेट विश्व-कप जीतने पर खुशियाँ मनाई जाती हैं...हिंदी फिल्मे देखी जाती हैं. फिर  वहां  की समस्याओं से...हमारी ही एक बहन के इस आमरण अनशन से हम यूँ निरपेक्ष कैसे रह सकते हैं??


वहाँ के मुख्यमंत्री...अन्य मंत्रीगण..सांसद क्यूँ नहीं प्रयास करते कि समझौते की कोई राह निकले...और शर्मीला अपना  अनशन ख़त्म करे. शायद केंद्र सरकार पर वहाँ की  उथल-पुथल से कोई दबाव नहीं पड़ता. इसलिए भी सरकार यूँ उदासीन है.


और मिडिया को भी शायद ये अहसास है कि शर्मीला इरोम के आन्दोलन को प्रमुखता देकर वह सरकार पर कोई दबाव नहीं बना सकती ,इसीलिए  वो भी चुप है.

यानि एक और निगमानंद ..अपने लोगो के हक़ के लिए लड़ते हुए
शहीद हो जाने की राह पर हैं...और हम सब चुपचाप, उसका यूँ  पल-पल मौत के मुहँ में जाना देखते रहेंगे.

रविवार, 12 जून 2011

फिल्म 'स्टेनली का डब्बा' के बहाने

किसी भी बच्चे के लिए उसके  टिफिन  का डब्बा कितना महत्वपूर्ण होता है..शायद हम नहीं महसूस कर सकते. अक्सर माताएं बच्चों को टिफिन में क्या देना है..इसका ख़ास ख्याल रखती हैं. माँ जिस प्यार से बच्चे के लिए टिफिन रखती है...बच्चा भी व्यक्त करे या ना...पर इसे महसूस जरूर करता है....{प्रसंगवश,याद आ गया ...आज ही अखबारों में "ज्योतिर्मय डे' (J Dey ) से जुड़े आलेख पढ़ रही थी .  मुंबई से निकलनेवाले एक अखबार 'Mid Day'  के क्राइम रिपोर्टर J Dey की  कल शनिवार की दोपहर...बीच सड़क पर गोली मारकर हत्या कर दी गयी. उनके एक सहयोगी ने उन्हें याद करते हुए कहा है...कि दो दिन पहले ही ,वे लोग साथ में लंच कर रहे थे...और J  Dey  ने अपना टिफिन खोलते हुए कहा था..""My mother packed it for me...It is a declaration of a mother's love....all her love goes into making it for you and that's why it tastes so good." J Dey को  हमारी विनम्र श्रद्धांजलि )

फिल्म 'स्टेनली का डब्बा ' में इसी टिफिन  के डब्बे के मध्यम से  एक बहुत ही संवेदनशील विषय को उठाने की कोशिश की गयी है. स्टेनली एक हंसमुख चुलबुला सा बच्चा है. और एक संभावित कहानीकार भी. टीचर ने अगर पूछ लिया..चेहरा गन्दा क्यूँ  है...तो पूरे एक्शन के साथ घटना बयाँ करता है कि माँ ने उसे कुछ लाने को भेजा..वहाँ उसने देखा एक छोटे लड़के को एक बड़ा लड़का पीट रहा था...फिर वो उस से भिड़ गया...और यूँ हाथ घुमाया...यूँ घूंसे जमाये...यूँ उठा कर पटका..." पूरा क्लास मंत्रमुग्ध हो उसकी बातें सुनता रहता है. टीचर के क्लास से बाहर जाते ही..बच्चे उसके पीछे पड़ जाते हैं..."स्टेनली फाइटिंग  की स्टोरी सुना,ना " और वो शुरू हो जाता है. रोज एक नई कहानी...जिसमे माँ ने उसे कहीं भेजा  होता  है.वो माँ पर एक रोचक निबंध भी लिखता है...कि 'उसकी माँ..बस से जम्प करती है...और ट्रेन में उछल कर चढ़ जाती है..उसकी माँ एक  सुपरवुमैन है '.

पर जब लंच-टाइम होता है तो स्टेनली चुपचाप बाहर जाने लगता है. और किसी बच्चे के पूछने पर कहता है... मैं कैंटीन से बड़ा पाव लेने जा रहा हूँ. उसके पास टिफिन नहीं होता. वो बाहर के नल से भर-पेट पानी पीकर आ जाता है. एक हिंदी के शिक्षक हैं. 'वर्मा सर' उनकी आदत है..लंच-टाइम में बच्चों  की क्लास में ही घूमते रहते हैं..और सबकी टिफिन से कुछ ना कुछ लेकर खाते रहते हैं. लेकिन स्टेनली को देखते  ही हिकारत से कहते हैं..'डब्बा तो कभी लाता नहीं.." (मुंबई में लंच-बॉक्स को डब्बा ही कहा जाता है...) अब स्टेनली कहने लगता है...'वो घर जा रहा है...माँ ने गरमागरम खाना बनाया है उसके लिए "


कुछ दिन बाद ही उसके दोस्त ये राज़ जान लेते हैं कि वो घर  नहीं जाता, बल्कि सड़कों पर घूम कर वापस आ जाता है. स्टेनली कहता है..उसके मम्मी-पापा प्लेन से शहर के बाहर गए हैं..इसलिए वो डब्बा नहीं ला रहा. एक बड़ा सा चार डब्बे  का टिफिन लानेवाला लड़का ऑफर करता है कि जबतक तुम्हारी मम्मी नहीं आ जाती...हम तुम्हारे साथ टिफिन शेयर करेंगे. "लेकिन वो खड़ूस "स्टेनली आशंका जताता है ( टीचर्स के  नाम रखने का सदियों से चलता आ रहा,  सिलसिला आज भी वैसे ही जारी है ) "  और बच्चे रास्ता निकाल लेते हैं कि वो क्लास में रहेंगे ही नहीं. अब शुरू होती है...उन वर्मा सर और बच्चों के बीच आँख मिचौली. रोज ही बच्चे अपने टिफिन खाने का स्थान बदल देते हैं...और वर्मा सर की पकड़ में नहीं आते. एक दिन वर्मा सर उन्हें टेरेस पे पकड़ लेते हैं...पर सारा गुस्सा स्टेनली पर निकलते हैं...कि "उसने डब्बा नहीं लाया...अब नो डब्बा नो स्कूल...अगर डब्बा नहीं लाया तो स्कूल भी नहीं आ सकता"


स्टेनली का स्कूल आना बंद हो जाता है...सारे दोस्त उदास हैं...अब  जाकर दर्शकों को पता चलता है कि स्टेनली डब्बा क्यूँ नहीं लाता है. क्यूंकि स्टेनली एक बाल-मजदूर है और शाम से देर रात तक , अपने चाचा के होटल में काम करता है. टेबल साफ़ करता है...लोगो को सर्व करता है...बड़ी-बड़ी कढाई-देगची साफ़  करता है , प्लेटें पोंछ कर रखता है...और सोने से पहले अपने माता-पिता की तस्वीर के आगे मोमबत्ती जला कर उनसे दो बातें करता  है,...जो एक एक्सीडेंट में मारे गए थे. इसीलिए स्टेनली की हर कहानी के केंद्र में 'माँ' होती है.
पता नहीं कितने दर्शक नोटिस करते हैं....पर फिल्म के पहले ही दृश्य में स्टेनली के चेहरे पर चोट के निशान होते हैं.

होटल में खाना बनाने वाला,अकरम उसका दोस्त है...और वो एक टूटे फूटे टिफिन का जुगाड़ करता है और उसमे होटल का बचा खाना भर कर फ्रिज में रख देता है. अब स्टेनली गर्व से वो टिफिन लेकर स्कूल जाता है..अपने दोस्तों को ...अपने टीचर्स को अपनी टिफिन के स्वादिष्ट व्यंजन  खिलाता है..और साथ में रोज एक कहानी भी कि कैसे उसकी माँ, ने सुबह चार बजे उठ कर आलूदम बनाए...पनीर, लाने वो इतनी दूर गयी...आलू  लाने दादर गयी क्यूंकि वहाँ आलू सस्ते मिलते हैं...आदि..आदि ..


दर्शकों के मन में सवाल उठ सकते हैं कि स्टेनली एक बाल-मजदूर  होते हुए भी इतने अच्छे  स्कूल में कैसे पढता है...अच्छी अंग्रेजी कैसे बोल लेता है. यहाँ मुंबई में कई कैथोलिक स्कूल हैं..जिनकी फीस आज भी ५,६ रुपये है....गरीब बच्चों को कॉपी किताब से लेकर स्कूल-ड्रेस...जूते तक स्कूल से मिला करते हैं. और इनकी पढ़ाई का स्तर इतना अच्छा है कि बड़े घर के बच्चे भी इसमें पढ़ते हैं.मेरी कॉलोनी में ही एक स्कूल है जिसमे कामवालियों के बच्चे, ऑटो चलाने वालों के बच्चों  के साथ मल्टीनेशनल कम्पनीज के  GM...CEO ' के बच्चे भी एक साथ पढ़ते हैं.(इसका  जिक्र मैने
इस पोस्ट में भी किया था )


इस फिल्म के लेखक -निर्देशक अमोल गुप्ते ने 'तारे जमीन पर' फिल्म की कहानी भी लिखी थी और उसके क्रिएटिव डायरेक्टर भी थे. 'वर्मा सर' के रूप में अमोल गुप्ते ने अच्छा अभिनय किया है..दिव्या दत्ता...राज़ जुत्शी...राहुल सिंह ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है...पर बाल कलाकार स्टेनली की भूमिका में पार्थो ने बहुत ही सहज अभिनय किया है.


पता नहीं..ऐसे कितने स्टेनली हमारे आस-पास हैं और वो फिल्म वाले स्टेनली जैसे भाग्यशाली भी नहीं कि स्कूल जा सकें. ऐसे ही एक स्टेनली का किस्सा डॉ. अमर कुमार जी ने अपने ब्लॉग कुछ तो है...जो कि  पर लिखा है. जिसे पढ़कर मुझे इस फिल्म की याद आई...और कुछ लिखने का मन हुआ.  हालांकि मन बहुत ही दुखी है...विक्षुब्ध है....हम देश की प्रगति पर गर्व करते हैं...बड़े बड़े मुद्दों  पर बहस करते हैं...पर जब अपने देश के इन मासूम-नाजुक  बिरवों की  ही साज-संभाल नहीं कर सकते फिर क्या फायदा इन सब बातों का.

आज
१२ जून है, बाल श्रम निषेध दिवस....पर क्या बदल जायेगा...आज या..आज के बाद

मंगलवार, 7 जून 2011

हिंदी ब्लॉगर्स कब कहेंगे....Blogs to Book deals

साहिल खान, अनुपम  मुखर्जी, अर्नब रे, प्रीति शेनॉय 
29 मई 2011 को टाइम्स ऑफ इंडिया के सन्डे एडिशन में एक आलेख पढ़ा ... From blogs to Book deals ....उसी समय ब्लॉग  पर  शेयर करने की इच्छा हुई लेकिन करीब  डेढ़ साल बाद संस्मरण की रेल के इंजन ने दूसरे ब्लॉग से इस ब्लॉग की तरफ का रुख किया था..सो उसे बीच में रोकने की इच्छा नहीं हुई.

वैसे पता नहीं , इस जानकारी का हम हिंदी में लिखने वालों के लिए कोई महत्त्व है या नहीं....शायद यह सब सपना सा ही लगे लेकिन अगर सपने  देखे ही नहीं जायेंगे तो पूरे कैसे होंगे....काश इस तरह के ख़ूबसूरत हादसे...हिन्दीवालों के साथ भी घटें. हालांकि इसके लिए पहले लोगो में किताबें  पढ़ने की रूचि और फिर उसके बाद किताब खरीद कर पढ़ने की आदत का चलन शुरू होना चाहिए. कोई भी प्रकाशक एक चतुर बिजनेसमैन ही होता है....अगर उसे लाभ नहीं होगा, तो वह कभी भी अपनी तरफ से किताब छापने की पहल नहीं करेगा.

शायद लोग  यह कहें..."किताब छपने की चाह ही क्यूँ...ब्लॉग से ही संतुष्ट रहना चाहिए " पर ये सत्य है कि किताब की पहुँच काफी दूर तक है, अभी भी जन-मानस का एक बड़ा हिस्सा net  savvy नहीं है . और जब आप लिखते हैं, तो वो जितने  ज्यादा लोगों की नज़रों से गुजरे, लिखने की सार्थकता इसी में है. मुझे ही कितने ही लोगो ने कहा है, "नेट पर कहानियां पढना मुश्किल लगता है....कभी किताब छपे तो बताइयेगा ".मेरी कहानी वाले ब्लॉग पर इस ब्लॉग के पाठकों से आधी उपस्थिति इस सत्य को उजागर भी करती है.

जबतक हमारे लिए यह सपना सच होता नहीं दिख रहा... अंग्रेजी में लिखनेवाले अपने साथी ब्लॉगर्स की दास्ताँ सुन ही दिल को तसल्ली दे सकते हैं.प्रस्तुत है उस आलेख के कुछ अंश का हिंदी अनुवाद.
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२२ साल के साहिल खान की दो किताब छप चुकी है, पर पुराने जमाने के नवोदित लेखकों की तरह उन्हें प्रकाशकों के यहाँ के चक्कर नहीं काटने पड़े ना ही बेकरारी से किसी फोन-कॉल का ही इंतज़ार करना पड़ा. उन्हें ये ब्रेक  अपने ब्लॉग की वजह से मिला

पुणे -स्थित ये ब्लॉगर अपने ब्लॉग
TheTossedSalad.com. पर किताबें -फिल्मे और रेस्टोरेंट की समीक्षाएं  लिखा करते थे. अचानक एक दिन  बैंगलोर के Grey Oak Publishers  से 'एक शॉर्ट  स्टोरी' लिखने का निवेदन आया .साहिल का कहना है ," उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि उनका लिखा कभी छापेगा....पर कहीं कोई तो मेरा ब्लॉग पढ़ रहा था और पसंद कर रहा था "
 

पिछले साल बारह युवा लेखकों की लिखी २८ कहानियों का संकलन प्रकाशित हुआ, जिसमे साहिल खान की कहानी The Untouched Guitar भी सम्मिलित है . जो एक कॉमन फ्रेंड की नज़र से एक कपल के डेटिंग, ब्रेक-अप और पैच-अप पर आधारित है .

प्रकाशक आजकल लगातार, नए टैलेंट की खोज में नेट पर नज़रें जमाये हुए हैं. दिल्ली  की
publishing consultant and editor. जया भट्टाचार्जी रोज़ का कहना है.."पहले रोज, नए लेखकों से मिलना..नई प्रतिभाएं ढूंढना एक मशक्कत भरा  कार्य होता था परन्तु अब सक्रिय ब्लोग्स के जरिये नई प्रतिभाएं  ढूंढना आसान हो गया है."    

University of Maryland के
Research scientist and assistant professor अर्नब रे  एक ऐसी ही प्रतिभा हैं. 2004 से वो अपने ब्लॉग The Random Thoughts of a Demented Mind  पर लिख रहे हैं, उनके 6,500 पाठक  उनके बी-ग्रेड बॉलिवुड फिल्म्स  या क्रिकेट या पौलिटिक्स पर लिखे उनके पोस्ट का इंतज़ार ही करते रहते हैं.

2009 में 237 पेज की उनकी एक किताब छपी ,
May I Hebb Your Attention Pliss, जिसकी 15,ooo कॉपियाँ बिक   गयीं. अर्नब रे ने पुस्तक में छपी सामग्री और शैली बिलकुल अपने ब्लॉग जैसी ही रखी थी  क्यूंकि उन्हें पता था...उनके पाठक क्या पसंद करते हैं.  दिल्ली स्थित Westland Publishers. 2012 में उनकी दूसरी पुस्तक प्रकाशित कर रहे हैं.  Harper Collins इंडिया की मार्केटिंग हेड 'लिपिका भूषण' का कहना है, " ब्लोगर्स प्रकाशकों  को एक सेफ्टी  नेट प्रदान कर रहे हैं, जहाँ नेट पर उनके नियमित पाठक पहले से मौजूद हैं और जो उनकी किसी छपी पुस्तक का इंतज़ार कर रहे हैं."

अनुपम मुखर्जी को अपने लेखन पर विश्वास नहीं था उन्होंने एक छद्म नाम से लिखना शुरू किया .2009 में Fake IPL player के नाम से उनका ब्लॉग बहुत  मशहूर हुआ जिसमे वे 'कोलकाता  नाईट रीडर्स टीम' की अंदरूनी बातें बढ़ा-चढ़ा कर लिखते थे. क्रिकेट प्रेमी  उनका लिखा हर  शब्द पढ़ने को बेताब रहते थे. नाईट राइडर्स की  टीम मैनेजमेंट  ने उन्हें poison pen नाम दे दिया.

1,50,000 visitors  और नियमित कमेंट्स ने उन्हें इतना विश्वास दे दिया कि अनुपम मुखर्जी ने,
Harper Collins  को FIP इमेल आई डी से कॉन्टैक्ट किया और एक किताब लिखने की इच्छा जाहिर की "The Gamechangers". नाम से एक किताब लिखने का कॉट्रेक्ट उन्हें मिल गया .
अनुपम मुखर्जी का कहना है कि  शायद प्रकाशक  को   नवोदित लेखकों की तरफ से
रोज सौ मेल  मिलते हों पर, मेरे ब्लॉग की वजह से उन्होंने मेरा नोटिस लिया"

जब से अनुपम मुखर्जी ने अपनी सही पहचान बतायी ,उन्हें एक अखबार  में एक कॉलम लिखने का भी ऑफर मिला और वे अब वे एक नियमित स्तम्भ  लिखते हैं.

पुणे स्थित ब्लॉगर प्रीति शेनॉय जो दो बच्चों की माँ भी  हैं,कहती हैं.."ब्लोगिंग लेखन में एक अनुशासन भी ला देता है."

उनकी पहली पुस्तक
34 Bubble Gums and Candies, उनके अपने जीवन की 34 सच्ची घटनाओं के संस्मरण का संकलन है. जो उनके ब्लॉग से लिया गया है. शेनॉय का कहना है ,"प्रकाशक को मेरी लेखन शैली बहुत अच्छी लगी "

उनकी पहली पुस्तक एक बेस्ट सेलर के रूप
में बिकने के बाद कई प्रकाशकों से उन्हें लिखने के ऑफर मिले. इसी वर्ष प्रकाशित  
Life Is What You Make It, नामक  नॉवेल की कामयाबी के बाद वे अब तीसरी पुस्तक लिखने में व्यस्त हैं .

अनुपम मुखर्जी का कहना है, " हर लेखक बनने की चाह रखनेवाले को अपना ब्लॉग जरूर बनाना चाहिए, सिर्फ अपने लिए ही सही. ये उनका स्पेस है...जहां  वे अपने लेखन के साथ प्रयोग कर सकते हैं और
बिना किसी दिशानिर्देश....बिना किसी बाध्यता के ..अपनी तरह से अपनी कहानी कह सकते हैं...दरअसल ब्लॉग अपनी लेखन के सैम्पल्स का एक ऑनलाइन पोर्टफोलियो होता है."

{ इस आलेख के लिए अपनी सहेली  राजी मेनन का भी  शुक्रिया अदा कर दूँ...,जिसने sms कर ये आलेख पढ़ने के लिए कहा ..वरना ब्लॉग्गिंग के चक्कर में कई महत्वपूर्ण और रोचक  आलेख छूट जाते हैं..पर एक मुसीबत भी गले पड़ गयी...उसने इस आलेख का जिक्र किसी ख़ास मकसद से किया था कि मैं भी  ऐसी कोई कोशिश करूँ......अब रोज उसके सवालों से बचने के बहाने तलाशती रहती हूँ.:)}

गुरुवार, 2 जून 2011

साथ रहीं...याद रहीं ये फिल्मे (संस्मरण-३)

जब हम दिल्ली से बॉम्बे,आए (हाँ! उस वक़्त बॉम्बे,मुंबई नहीं बना था) तो पाया  यहाँ पर लोग बड़े शौक से थियेटर में फिल्में देखा करते थे. एक दिन पतिदेव   ने ऑफिस से आने के बाद यूँ ही पूछ लिया--'DDLJ देखने चलना है?' (जरूर  ऑफिस में सब DDLJ  की चर्चा करते होंगे ) अब आपलोग गेस कर ही सकते हैं...मेरा जबाब  क्या रहा होगा....हाँ,सही गेस किया...:) हमलोग झटपट तैयार होकर थियेटर में पहुंचे. नवनीत ने   डी.सी.का टिकट लिया क्यूंकि हमारी तरफ वही सबसे अच्छा माना जाता था. जब थियेटर के अन्दर टॉर्चमैन ने टिकट देख सबसे आगेवाली सीट की तरफ इशारा किया तो हम सकते में आ गए. चाहे,मैं कितने ही दिनों बाद थियेटर आई थी.पर आगे वाली सीट पर बैठना मुझे गवारा नहीं था. यहाँ शायद डी.सी.का मतलब स्टाल था. मुझे दरवाजे पर ही ठिठकी देख नवनीत को भी लौटना पड़ा. पर हमारी किस्मत अच्छी थी,हमें बालकनी के टिकट ब्लैक में मिल गए. 

फिर तो पतिदेव को मन मार कर,जबरदस्ती फिल्मो के लिए साथ चलना ही पड़ता. बच्चे छोटे थे पर कभी तंग नहीं किया...बस Titanic देखते हुए  चार वर्षीय किंजल्क  ने हिचकियाँ भरनी शुरू कर दीं थीं. मैने दबे स्वर में डांटा, "पता है ना...ये सब झूठ होता है..नकली है सब"  दोनों हाथों से आँखे -नाक पोंछते कहता, "हाँ, मम्मा... पता है......पर 'रोज़' का क्या होगा?" {पूत के पाँव ,पालने में ही दिख रहे थे...तभी से 'रोज़' की चिंता ज्यादा थी :)}और ये लड़के, थियेटर में हमेशा एम्बैरेस करते हैं..चाहे वो छोटा भाई हो या बेटा

फिल्म
'कुछ कुछ होता है' देखने के बाद...Three  men in my  life  इतने निराश हुए कि मैने फैसला कर लिया..अब और सजा नहीं देनी इन्हें. गोद में चढ़े , छोटे बेटे, कनिष्क ने भी मुहँ बनाते हुए कहा, "बौक्छिंग  नहीं थी " किंजल्क ने तुरंत समर्थन किया  'कितनी बोरिंग फिल्म थी..' पतिदेव को  फिल्म के बीच -बीच में बाहर के चक्कर लगाते देख ही चुकी थी. 
हालांकि  मुझे इनलोगों की पसंद की फिल्मे अब तक उनके साथ देखनी पड़ती हैं. चाहे वो पतिदेव की मनपसंद.."सत्या ' हो या "शूट  आउट इन लोखंडवाला "..बच्चों के  साथ भी ढेर सारी एनीमेशन फिल्मे.."हैरी पॉटर "..जय हनुमान "..सब देखनी पड़ीं. हैरी पॉटर तो मुझे भी पसंद है..पर 'जय हनुमान ' में मैं सचमुच सो गयी थी. {अब शायद मुझे लोग, नास्तिक कहना  शुरू कर दें :)}

कुछ ही दिनों बाद ,पास के फ़्लैट में ही शिफ्ट हुई ,'सीमा दुधानी '. मेरी तरह फिल्मो की शौक़ीन. बस बड़े बेटे किंजल्क को को स्कूल बस पर  चढ़ा , (आफ्टरनून  शिफ्ट थी उसकी) हम फिल्मे देखने चले जाते...
दिल तो पागल है..बौर्डर ,गुप्त ..परदेस,चाची 420 आदि उसके साथ देखी. उसका डेढ़ साल का बेटा बहुत तंग करता, वह  आधी फिल्म में हॉल से बाहर ही रहती..फिर भी फिल्म देखने से बाज़ नहीं आती. मेरे  दो साल के बेटे ने तो 'जख्म' जैसी फिल्म भी चुपचाप देखी थी. (आखिर माँ का असर तो पड़ेगा )आज बताने पर जरूर कहता है,"'जख्म' दिखा कर कितना जख्म दिया, मुझे"

फिर कई फ्रेंड्स  बनी..रूपी, सोना, शशि, पद्मजा, शम्पा...इन सबके साथ फिल्मावलोकन चलता रहा. अक्सर मॉर्निंग वाक में ही प्लान बन जाता. एक बार मैने और रूपी ने डिम्पल कपाडिया की फिल्म
"लीला " देखने का प्लान किया..साथ टहलती एक और फ्रेंड ने भी साथ आने की इच्छा जताई. हॉल जाकर पता चला, ये फिल्म तो इंग्लिश में है. तीसरी फ्रेंड  को बिलकुल ही अंग्रेजी नहीं आती थी. हमें बहुत ही गिल्ट महसूस होने लगा. हमें लगा,  बेचारी के पैसे बर्बाद हो गए. पर डिम्पल की ख़ूबसूरत कॉटन साड़ियों ने क्षतिपूर्ति कर दी होगी. वो उन साड़ियों पर ही फ़िदा हो गयी.

इन सब फ्रेंड्स में शम्पा की पसंद मुझसे बहुत मिलती थी. उसके साथ मैने कई कला फिल्मे देखीं, 
खामोश पानी, , मीनाक्षी, १५, पार्क एवेन्यू, चमेली,अनुरणन ...आदि .

'खामोश पानी'  की शूटिंग पकिस्तान के रियल लोकेशन पर की गयी है. इस फिल्म को देखकर जाना ,आज भी पकिस्तान के छोटे शहरों में आम पुरुषों  का लिबास 'पठानी  सूट'(घुटनों तक की कमीज़ और शलवार ) ही है .वरना वीर-ज़ारा में कहीं भी असली पकिस्तान के दर्शन नहीं हैं.(किरण खेर को इस फिल्म के लिए नेशनल अवार्ड मिला है...निर्देशिका साबिहा सुमर और ज्यादातर कलाकार पकिस्तान के हैं )

फिल्म ,
मीनाक्षी में हमलोग सिर्फ पांच लोग थे हॉल में, एक जोड़ा तो खाली हॉल मिलेगा, यही सोचकर आया था. एक व्यक्ति,अकेला था...जो थोड़ी देर बाद ही उठ कर चला गया. इंटरवल में चाय तक नहीं मिली. 'फ़ूड स्टॉल ' बंद ही रहा. पर मैं कुछ लकी लोगों  में से हूँ, जिन्होंने मीनाक्षी देखी. फिल्म रिलीज़ होने के बाद उसके एक गाने को लेकर कुछ कंट्रोवर्सी हुई और दस दिनों के अंदर  ही नकचढ़े मकबूल फ़िदा हुसैन साहब ने फिल्म ही उतार ली थियेटर  से (फिल्म कुछ ख़ास नहीं थी...पर छायांकन गज़ब का था  .एकदम ख़ूबसूरत पेंटिंग  की तरह.)

"अनुरणन'
देखते वक्त तो टिकट -विंडो पर ही बता दिया कि और दो  लोग भी आ जाएंगे तो फिल्म शुरू होगी, अन्यथा हमारे पैसे वापस हो जाएंगे. (वैसे पहली बार , राहुल बोस-रीमा सेन-रजत कपूर की कोई इतनी बोरिंग कला फिल्म देखी....कोई और नहीं आता तो अच्छा ही होता ,हमारे पैसे बच जाते पर सबसे क्लासिक  था ..फिल्म देखने  के बाद, शम्पा का कमेन्ट.."ये राहुल बोस मर क्यूँ गया...लास्ट में.??..फिर खुद ही जबाब दे दिया.."इतना बोर हो गया था,इस फिल्म में काम करके कि मर गया (अब फिर लोग ,एतराज करेंगे ...कहानी क्यूँ बता दी :)} इस फिल्म में हाथ से फेंट कर बनाई  गयी कॉफी का उल्लेख है...जो अब शायद ही कोई बनाता  हो...लेकिन  उस कॉफी के स्वाद के आगे क्या  बरिस्ता...क्या CCD..सबकी कॉफी फेल है

'चमेली '
फिल्म देखने के बाद मुंबई का शुक्रिया अदा किया. ये मुंबई ही है,जहाँ दो महिलाएँ , हाउसफुल में 'चमेली' जैसी फिल्म देख कर आ  गयीं. दर्शकों  में बस एकाध महिलाएँ और थीं.

और फिर ,शम्पा के पति का ट्रांसफर हो गया और वो मुंबई छोड़कर चली गयी . इस बीच कुछ और फेंड्स तो बन गयी थीं...जिनके साथ, मैं  मॉर्निंग वाक के लिए जाती थी पर फिल्म, मैं शम्पा के साथ ही देखती और डिस्कस...राजी और वैशाली के  साथ करती.

शम्पा के जाने के बाद इनलोगों ने अपने ग्रुप के साथ चलने के लिए कहा.पर मुझे जबरदस्ती किसी ग्रुप में शामिल होना , अच्छा नहीं लगा...टालती रहती. आखिर राजी ने धमकी दी...."
मिक्स्ड डबल्स " {ये कोंकणा सेन और रणवीर शौरी अभिनीत  hilarious फिल्म है,  कोई टेनिस मैच नहीं :)}) देखने के लिए ,ग्यारह बजे निकलना है  तैयार रहना."
 मैने ना कह दिया...ठीक १०.४५ में राजी का फोन आया...".तैयार हो"?? ..और मेरे ना कहने पर उसने कहा, "पंद्रह मिनट टाइम है...तैयार होकर नीचे आओ..वरना इतनी जोर-जोर से गाड़ी का हॉर्न बजाउंगी  कि बिल्डिंग वाले तुम्हे नीचे भेज देंगे. "

सो मुझ बिचारी ने बिल्डिंग वालों का ख्याल करके इन लोगो के साथ फिल्मे देखना शुरू कर दिया. :)

राजी,मेधा,वैशाली,शर्मीला, अनीता...इनलोगों के साथ इतनी  अच्छी जमी  कि लगा ही नहीं कभी मैं, इनके ग्रुप का हिस्सा नहीं थी.....आजकल फिल्मे इनके साथ ही देखी जाती हैं. (जिनके बारे में यदा- कदा यहाँ लिखती रहती हूँ ) कभी-कभी पैसे बचाने के चक्कर में हमलोग  सुबह दस बजे के शो के लिए भी जाते हैं {मल्टीप्लेक्स में मॉर्निंग शो के टिकट के पैसे कम होते हैं.:)} . पर बिल्डिंग से निकलते, सब फ्रेंड्स मनाते रहते हैं..".ईश्वर करे...कोई ना मिले..".वरना सुबह-सुबह फिल्म के लिए जा रहे हैं,कहना अच्छा नहीं लगेगा.{बचपन से ही लड़कियों को जो डरने की आदत पड़ जाती है...ताउम्र साथ नहीं छोडती :)}
पता नहीं क्यूँ...जिन लोगो को फिल्मो का शौक नहीं है...वे लोग फिल्म देखना...समय और पैसे की बर्बादी ही समझते हैं...

इन सारी सहेलियों के सरनेम 'मेनन' 'अय्यर', 'शेट्टी' , 'चाफेकर', 'मोटवाणी' हैं. जाहिर है, ज्यादातर दक्षिण भारतीय हैं पर हिंदी कला फिल्मो में इनकी रूचि देख सुखद आश्चर्य होता है. बस एक बार हद हो गयी जब ये लोग जबरदस्ती मुझे अपने साथ सुपरहिट तमिल फिल्म '
आर्यन' दिखाने ले गईं . उसके हीरो 'सूर्या' की सब जबरदस्त फैन हैं. ( हिंदी वाले सूर्या को बस नगमा की बहन ज्योतिका (साउथ की  टॉप हिरोइन ) के पति के रूप में ही जानते हैं )
मैंने भी उनलोगों से कहा 'मेरे साथ अब तुमलोगों को हमारी भाषा की एक भोजपुरी फिल्म भी देखनी पड़ेगी'.
सबने समवेत स्वर में कहा 'वी वोंट माईंड' पर भोजपुरी फिल्म तो हमने ही नहीं देखी..शायद 'अस्सी ' रिलीज़ हो तो कुछ फ्रेंड्स को ले जाऊं ...पर पहले फीडबैक देखकर. :)

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...