मंगलवार, 28 अगस्त 2012

सहज..सरल..गरिमामयी हेमा मालिनी

हेमा मालिनी अपनी बेटी आहना और इशा के साथ 

मैने नहीं सोचा था , 'हेमा मालिनी ' से सम्बंधित कोई पोस्ट लिखूंगी कभी. पर कुछ उनकी बातें करने का मन हो आया और मन की बात ये ब्लॉग ना सुने {और आपलोग ना पढ़ें  :)} तो फिर कौन सुने...:)


जब हेमा मालिनी शिखर पर थीं , तब मैं उनकी फ़िल्में नहीं देखती थीं. वैसे तो उस वक़्त,घर से  गिनी-चुनी फ़िल्में ही दिखाई जाती थीं..फिर भी उनमें हेमा मालिनी की फ़िल्में नहीं होती थीं और ना ही कभी देखने की इच्छा होती थी. उनका अभिनय, उनका ग्लैमरस रूप कुछ ख़ास पसंद नहीं आता था. हमें तो सलोनी सी सीधी सादी 'जया भादुड़ी 'पसंद थीं और हम थे उनके जबरदस्त फैन. अपनी छोटी सी बुद्धि से सोच लिया था कि ये दोनों एक दूसरे की विरोधी हैं. जो हेमा मालिनी को पसंद ना करने का एक और कारण बन गया . हालांकि फिल्म 'किनारा' और 'खुशबू'...जरूर देखी...रिलीज़ होने के कई साल बाद टी.वी. पर. और हेमा मालिनी के अभिनय ने मुत्तासिर भी किया पर सारा क्रेडिट हमने ,दे दिया गुलज़ार को कि उन्होंने हेमा जी से इतना अच्छा अभिनय करवा लिया और रोल भी तो बहुत बढ़िया था. पूरी कहानी नायिका के गिर्द घूमती थी.' मीरा ' फिल्म में हेमा मालिनी बहुत ही अच्छी लगी थीं..फिल्म भी बहुत अच्छी  बनी थी (फिर से एक बार देखने की इच्छा है ) पर इस फिल्म से जुड़े एक विवाद ने पहले से ही उनके प्रति विमुख  कर दिया था. गुलज़ार ने शादी के बाद राखी के जन्मदिन की पार्टी में सबके सामने राखी को 'मीरा' का रोल ऑफर किया था. पर बहुत जल्द ही दोनों अलग हो गए और बाद में यह रोल गुलज़ार ने 'हेमा मालिनी को दे दिया . उन दिनों पत्रिकाओं में यह चर्चा का विषय था. हालांकि इसमें हेमा मालिनी का क्या दोष...पर कच्ची उम्र में इतनी समझ थोड़े ही होती है हम तो फिर से उनके फैन बनने से रह गए. और फिर उनकी  बाल बच्चों वाले धर्मेन्द्र से शादी की खबर ने तो उनके फैन बनने की हर उम्मीद का दिया ही बुझा दिया. 

लेकिन.. लेकिन..जब वर्षों बाद उन्हें 'जी फिल्म अवार्ड शो' में स्टेज पर  थोड़ा करीब से देखा तो जैसे मंत्रमुग्ध रह गयी. उनकी खूबसूरती पर नहीं (वो तो माशाल्लाह है ही ) ...उनकी सादगी, गरिमा, अंदाज़ पर .एक प्लेन आसमानी रंग की साड़ी पहनी थीं उन्होंने और स्टेज पर जिस तरह आत्मविश्वास से लहराती हुई चाल से वे गयीं और अवार्ड लेकर जिस मुद्रा में खड़ी हुईं. लगा वो ट्रॉफी ही धन्य हो गयी.  नृत्यांगना होने से उनकी चाल में, उनके खड़े होने , एक गरिमा तो है ही. उनके सभी  posture  बहुत ही अच्छे होते हैं. अवार्ड लेते समय भी उन्होंने कुछ बडबोलापन नहीं दिखाया . उनके व्यक्तित्व का एक नया पहलू सामने आया. 

उसके बाद कई बार उन्हें टी.वी. पर इंटरव्यू में देखा. खुल कर हंसती है...बिना किसी बनावटीपन के सहजता से मन की बात कह देती हैं. करण जौहर के शो कॉफी विद करण में वे आई थीं..शो में बड़ी सरलता से कह दिया.."ईशा (उनकी बिटिया ) इस शो को लेकर बहुत  नर्वस थी कि उसकी माँ पूरे शो  में इंग्लिश में कैसे बोल पाएगी...मुझे अच्छी इंग्लिश नहीं आती." फिर हंस कर करण जौहर से पूछा, 'मैने ठीक बोला,ना?" उसी शो में करण जौहर ने एक सवाल पूछा था ,"आज के जो प्रमुख बैचलर हीरो हैं,अगर उनमे से किसी को अपनी बेटी से शादी के लिए चुनना हो तो आप किसे चुनेंगी?" और हेमा जी ने कह दिया ' अभिषेक बच्चन को ' मुझे नहीं लगता दूसरी नायिकाएं इस ट्रिकी सवाल का सीधा उत्तर देतीं. उसी शो में जीनत अमान भी आई थीं. वे बता रही थीं, हेमा जी जब फिल्म की शूटिंग  करती थीं तो स्पॉट  बॉय से लेकर हीरो,डायरेक्टर, प्रोड्यूसर सब उनके प्रेम में पड़े होते थे. पर ये ऐसे शो करती थीं,जैसे उन्हें यह सब पता ही नहीं. चुपचाप अपना काम ख़त्म करतीं और चली जातीं. " शायद ही हेमा मालिनी कभी ,किसी विवाद में पड़ी हों . 

एक इंटरव्यू में देखा..'बागबान में उनके काम और उनकी खूबसूरती की बहुत तारीफ़ हो रही थी. ' पर हेमा मालिनी ने शिकायत की ,'होली खेले रघुवीरा...में मुझे ज्यादा डांस करने का मौका नहीं मिला...कुछ और डांस करने का अवसर मिलता तो अच्छा लगता..' बच्चों जैसी ही लगी कुछ ये शिकायत . वे हमेशा पौलीटिकली  करेक्ट होने की कोशिश नहीं करतीं.

अभी इन्डियन आइडल शो में वे धर्मेन्द्र के साथ आई थीं ख़ूबसूरत तो लग ही रही थीं.  वैसे मुझे लगता है..चाहे कितने भी तराशे हुए नैन नक्श हों...अगर चेहरे पर खुशनुमा भाव ना हों तो कोई भी स्त्री/पुरुष सुन्दर नहीं लग सकता/सकती . बड़ी-बड़ी आँखें,सुतवां नाक..पंखुड़ी से होंठ किसी को ख़ूबसूरत नहीं बनाते बल्कि पूरे चेहरे पर जो भाव खिले होते हैं...वही ख़ूबसूरत बनाते हैं. कितनी बार साधारण नैन-नक्श वाले लोग भी बहुत अच्छे लगते हैं..वो उनका खुशनुमा व्यक्तित्व ही होता है . नैन-नक्श तो उपरवाले की देन है..पर अपना व्यक्तित्व निखारना खुद के हाथों में है. और हेमा जी को उपरवाले ने खूबसूरती तो दी ही है...उनकी pleasant personality  ने उसे द्विगुणित कर दिया है {हो सकता है..हेमा मालिनी को नापसंद करने वाले अपनी भृकुटियाँ  चढ़ाएं :)} .
उस प्रोग्राम में आशा भोसले के कहने  पर आशा भोसले,सुनिधि चौहान और इतने सारे बढ़िया गाने वालों के बीच ,बिना सुर के  भारी दक्षिण  भारतीय उच्चारण के साथ एक उर्दू शब्दों से भरे गीत की दो पंक्तियाँ गा दीं.  और गाने के  बाद जोर से हंसी भीं कि ' मैने आप सबके सामने गाने की हिम्मत कर ली '  

एक और घटना के विषय में पढ़ा था कहीं, हेमा जी को इस्कॉन मंदिर जाना था . रास्ते में उनकी कार खराब हो गयी. ड्राइवर बोनट उठा कर देखने लगा, पर हेमा जी ने इंतज़ार नहीं किया और एक ऑटो-रिक्शा को हाथ दिखा,बैठ गयीं. मंदिर पहुँच कर उतर कर वे आगे बढ़ गयीं. जब ऑटो रिक्शा वाले ने पैसे मांगे तो वे बड़े पेशो-पेश में पड़ी. अब ये बड़ी नायिकाएं कोई मध्यम वर्गीय गृहणियां तो हैं नहीं कि घर से बाहर निकलें तो पर्स जरूर साथ में रखें ',क्या पता रास्ते में सब्जी लेनी हो..ब्रेड लेना हो या और कुछ :)' .पर तब तक ऑटोवाला भी उन्हें सामने से देख कर पहचान गया था और उसने हाथ जोड़कर पैसे लेने से इनकार कर दिया. (वरना किसी को फोन कर पैसों का इंतजाम करवातीं ,शायद ). 
प्रसंगवश एक और मार्मिक घटना याद आ रही है , जब हेमा जी ने भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ग्रहण की तो  टोकन स्वरुप कुछ पैसे जमा करने थे . फिर से पर्स उनके पास नहीं था. प्रमोद महाजन ने अपने पास से दस रुपये का नोट दिया .उसके बाद हमेशा वे उन्हें मजाक में याद दिलाते 'मेरा दस रुपये  का नोट उधार है आप पर.' जब प्रमोद महाजन की मृत्यु हुई तो उनके पार्थिव शरीर के पास हेमा जी अश्रुपूरित नेत्रों से वो दस का नोट रख कर आ गयीं.

मैने हेमा मालिनी का  प्रत्येक  पब्लिक एपियरेंस नहीं देखा है...हो सकता है ,कुछ लोग मेरी बातों से इत्तफाक ना रखें. पर मेरा औब्ज़र्वेशन यही है. और फिर जिस तरह उन्होंने अपनी शर्तों पर अपना जीवन जिया है..अपने अकेले के दम पर दोनों बेटियों को बड़ा किया है, उनके प्रति मन में सम्मान ही जागता है. धर्मेन्द्र जरूर उनके परिवार का हिस्सा रहे पर मुझे नहीं लगता ,अपनी बेटियों के परवरिश के लिए या किसी भी चीज़ के लिए वे धर्मेन्द्र पर निर्भर रहीं. धर्मेन्द्र ज्यादातर अपने पुराने घर में या अपने लोनावाला वाले फ़ार्म हाउस में ही रहते हैं (अब सुना है,ऐसा..वरना हमें क्या पता ) .ईशा देओल की शादी की तैयारियां भी वे अकेली ही करती नज़र आयीं . 
फिल्मों में अभिनय ..घर-परिवार की जिम्मेवारियाँ ...निर्देशक और प्रोड्यूसर की भूमिका..राज्यसभा की सदस्यता...इन सारी जिम्मेवारियों के बीच भी,उन्होंने  अपने नृत्य -प्रेम को एक पल के लिए भी धूमिल नहीं होने दिया. नृत्य उनका पहला प्यार है और देश-विदेश में लगातार अपने नृत्य कार्यक्रम प्रस्तुत कर उन्होंने इसके प्रति अपनी अगाध निष्ठा और समर्पण ही जताया है. 
इशा देओल , अच्छी खिलाड़ी थीं, फुटबौल बहुत अच्छा खेलती थीं,अपनी स्कूल की टीम में भी थीं.पर  मालिनी ने अपनी दोनों बेटियों को नृत्य की विधिवत शिक्षा भी दिलवाई . इशा और आहना के साथ जब वे स्टेज पर नृत्य प्रस्तुत करती हैं तो वो समां दर्शनीय होता है. वैसे भी हर नृत्य प्रस्तुति की तरह हेमा जी का नृत्य प्रदर्शन भी स्वर्गिक आनंद देनेवाला होता है.

अक्सर ऐसा होता है कि जिन्हें हम परदे पर अच्छे किरदार निभाते देखते हैं,उसके प्रशंसक हो जाते हैं. पर कई बार ऐसा भी होता है, जो हमें परदे पर बिलकुल पसंद नहीं आते .परदे की  दुनिया के बाहर उनके व्यक्तित्व की झलक हमें उनका मुरीद  बना देती है.

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

किन किन चीज़ों के लिए आखिर लड़ें महिलाएँ??

चोखेरबाली, ब्लॉग  पर आर.अनुराधा जी की इस पोस्ट ने तो बिलकुल चौंका दिया. मुझे इसकी बिलकुल ही जानकारी नहीं थी कि 1859 में केरल की अवर्ण औरतों को शरीर के उपरी भाग को ढकने का अधिकार मिला. यानि कि अब वे अंगवस्त्र या ब्लाउज पहन सकती थीं. इसके पहले ऊँची जाति की स्त्रियों को भी घर के भीतर और मंदिर में  ब्लाउज पहनने की इजाज़त नहीं थी...और निम्न  जाति की स्त्रियों को कहीं भी अंगवस्त्र पहनने की मनाही थी. 

ब्लाउज पहनने पर ऊँची जाति के पुरुष लम्बे डंडे पर छुरी बाँध कर उस ब्लाउज को फाड़ दिया करते थे. कई बार वे ऐसी औरतों को रस्सी से बांधकर पेड़ पर लटका दिया करते थे..ताकि दूसरी औरतों को सबक मिले. धीरे धीरे समय बदलने लगा....केरल के लोगों में श्रीलंका में जाकर चाय बगान में काम करने , बेहतर आर्थिक स्थिति ,इसाई धर्म परिवर्तन आदि से जागरूकता फैली और औरतें शालीन कपड़े पहनने लगीं. पुरुषों का पुनः विरोध शुरू हुआ तो सारी स्त्रियों ने मिलकर इसका सामना किया और वे पूरे कपड़े पहनकर बाहर निकलने लगीं. (slut walk की याद आती है...जब बेतुकी बंदिशें लगाई जाती  हैं तो ऐसी ही प्रतिक्रियाएँ होती हैं. ).

आखिर पचास साल के संघर्ष के बाद 1859   में स्त्रियों को यह अधिकार मिले कि वे अपने शरीर का उपरी हिस्सा ढँक सकती हैं यानि कि ब्लाउज पहन सकती हैं .

1859 यानि करीब डेढ़ सौ साल पहले इसका अर्थ बहुत पुरानी  बात नहीं है, यह. हमारे परदादा -परनाना के समय की ही बात है. क्या स्त्रियों का अपनी इच्छानुसार अपने लिए ही कोई निर्णय लेना,सदा से पुरुषों को खटकता आया है. समय के अनुसार वे नहीं बदल सकतीं? उन्हें अपनी पुरानी स्थिति में बदलाव का कोई हक़ नहीं? पहले पूरे कपड़े पहने तो क्यूँ पहने..और अब पूरे कपड़े क्यूँ नहीं पहने यानि ना जीते चैन ना मरते चैन. 

प्रसिद्द कथा-लेखिका 'शिवानी ' ने अपने शान्तिनिकेतन के दिनों के संस्मरण  में लिखा था कि 'शान्तिनिकेतन में बहुत सारी आदिवासी महिलाएँ घास काटने आया करती थीं. शिवानी जी और उनकी सहेलियों ने उनके लिए ब्लाउज सिले और उन्हें पहनने को दिए. उन महिलाओं  ने पहनने के बाद , वे ब्लाउज निकाल कर उन्हें वापस कर दिए कि उन्हें इसे पहनने में शर्म आती है. ' अभी अनुराधा जी की ये पोस्ट पढ़कर मुझे ये घटना याद आ गयी. जरूर उन्हें सामजिक अस्वीकृति का ही डर होगा...इसीलिए ये हिचक होगी. 

कुछ समय पहले तक स्त्रियों का चप्पल पहनना, छाता लेना भी सहज स्वीकार्य नहीं था. मेरे बचपन  की ही बात है...मेरे पिताजी की पोस्टिंग एक छोटे से कस्बे में हुई थी. उस इलाके में घरों में झाडू -बर्तन  करने वाली बाइयां चप्पल नहीं पहनती थीं. एक काम वाली बाई  ने चप्पल पहनना शुरू किया था, उसकी बहुत आलोचना होती थी. मेरे घर एक बूढी औरत छोटे-मोटे काम करने आती थी.वो हमेशा कहती..'वो तो चप्पल पहन कर घूमती है..जैसे महारानी हो कहीं की..कहती है..पैर जलते हैं...मेरी इतनी उम्र हो गयी..हमारे पैर तो नहीं जले कभी.' मेरी उनसे अक्सर बहस हो जाती. अब यहाँ लोग ये ना कहने लगें, स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है. उनके समाज में ही स्त्रियों को चप्पल पहनने का प्रचलन नहीं होगा .चप्पल पहनने वाली स्त्रियों की आलोचना की जाती होगी. इसीलिए और उन बूढी महिला का रिएक्शन भी स्टीरियो टाइप ही होगा.

सामाजिक प्रचलन का ख्याल तो हमारी भूतपूर्व प्रधान मंत्री 'इंदिरा गांधी' को भी रखना पड़ता था. वर्षों पहले,धर्मयुग में 'पी.डी. टंडन' का एक संस्मरण पढ़ा था. इंदिरा गांधी को धूप बिलकुल बर्दाश्त नहीं होती थी और उन्हें अपने चुनावी दौरों के लिए गाँव -कस्बों में धूप  में जाना पड़ता था. पर वे छतरी नहीं लेती थीं क्यूंकि गाँव में औरतों के छतरी लेने का प्रचलन नहीं था. और शायद अपने चुनावी दौरों में  वे उनमे से एक दिखना चाहती थीं. एक बार वे कार से उतर कर चिलचिलाती धूप में सभा-स्थल की तरफ जा रही थीं . पी.डी. टंडन भी साथ थे...उन्होंने छाता  आगे बढ़ाया  पर इंदिरा जी ने मना कर दिया और कहा.."हम स्त्रियों के पास अपना छाता है'...उन्होंने सर पर आँचल रख कर छोटा सा घूँघट निकाल लिया. पी.डी. टंडन ने तुरंत कैमरे से तस्वीर खींच ली. उस संस्मरण के साथ, इंदिरा गांधी की वो तस्वीर भी छपी थी. (शायद नेट पर भी उपलब्ध हो वो तस्वीर) .अब उस इलाके में जिस स्त्री ने भी पहली बार छतरी ली होगी..उसे तो ना जाने कितनी बातें सुननी पड़ी होंगी..कितना विरोध सहना पड़ा होगा. 

पता नहीं...ये सब सोच सोच कर ही एक थकान सी तारी हो जाती है,मन पर. किन किन चीज़ों के लिए आखिर लड़ें  महिलाएँ??. ब्लाउज पहनने के अधिकार के लिए,..चप्पल पहनने के लिए....छतरी लेने के लिए... इतनी छोटी-छोटी चीज़ों के लिए भी उन्हें लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ती है...ताने सुनने पड़ते हैं..प्रताड़नायें झेलनी पड़ती हैं...विरोध सहना पड़ता है. फिर बड़ी चीज़ों के लिए तो उनका संघर्ष दुगुना-चौगुना-सौ गुणा  हो जाएगा..बहुत ही त्रासदायक स्थिति है. 

बस हौसला बना रहे...बहुत लंबा है,सफ़र और मंजिल बहुत दूर. दरख्तों का साया भी नहीं..पैरों तले समतल जमीन भी नहीं...आस-पास खुशनुमा वातावरण भी नहीं...जंगली जानवरों से बचते,उसी कंटीली खुरदरी जमीन पर लहुलुहान पैरों से चलकर आने वाली पीढ़ियों के लिए रास्ते बनाने हैं...कि उन्हें तो मंजिल मिले. 

शनिवार, 18 अगस्त 2012

SMS की सुविधा कितनी लाभदायक ??



जब मेरे बेटे ने कहा,"पांच sms से ज्यादा जा ही नहीं रहे...क्या हो गया है मेरे फोन को? " तब तक मैने ये खबर सुनी या पढ़ी नहीं थी कि सरकार ने sms द्वारा अफवाहें फैलाने पर रोक लगाने के लिए सामूहिक sms भेजने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है.  मैं तो आदतवश शुरू हो गयी.."आखिरकार इन मोबाइल कंपनियों को कुछ अक्कल तो आई....कितने ही छात्रों की पढ़ाई..कैरियर सब चौपट कर  दिया है इस sms  की सुविधा ने...कितना समय बर्बाद होता है इस के पीछे. ये एक दिन में सौ sms...पांच सौ sms  के  फ्री पैकेज की सुविधा देना पागलपन है."
जब भी किसी टीनेजर के माता-पिता से मुलाक़ात होती है....सबकी एक शिकायत कॉमन होती कि बच्चे सारा समय sms पर लगे होते हैं. कहीं किसी फैमिली गैदरिंग में गए हों...किसी फंक्शन..पूजा-पाठ...विवाह-समारोह ,कहीं भी हों...नज़रें सामने होती हैं पर अंगुलियाँ दनादन टाइप करती जाती हैं. 

सिर्फ बच्चे ही क्यूँ कभी कभी...किसी मित्र/सहेली  का sms  मिलता है जो आला अफसर हैं, महत्वपूर्ण पद पर काम  कर रहे /रही हैं....और किसी मीटिंग में मेज के नीचे से sms करते/करती  हैं कि बोर हो रहें/रहीं हैं..वगैरह... वगैरह.{अगर इसे मेरे वे दोस्त पढ़ लें तो शायद फिर तो वे मुझे कब्भी ऐसी सिचुएशन में sms   ना करें ....ये रिस्क लेकर भी लिख दिया :) }  पर खैर उन्हें इतनी समझ तो है कि कब काम पर ध्यान देना है और कब वे ज़रा सी छूट ले सकते हैं. लेकिन इन चौदह - पंद्रह साल के बच्चों को कितनी अक्कल  है?? और इस उम्र में दोस्ती ही सबसे महत्वपूर्ण और सबसे प्यारी चीज़ लगती है...और इन्हें लगता है....हर पल दोस्त की खबर रखना ही सच्ची दोस्ती  की परिभाषा है.

जब मोबाइल फोन का आविष्कार किया गया तो मूलतः इसका उदेश्य एक-दूसरे से बात करना ही था. फिर इसमें कुछ  VAS   (Value Added Services  ) का समावेश किया गया. जिसमे   , रिंगटोन,  song download    वगैरह प्रमुख थे. मोबाइल कंपनियों को आशा थी कि ज्यादा आमदनी तो कॉल से ही होगी. इन  VAS से थोड़ी बहुत अतिरिक्त आमदनी हो जायेगी. पर हुआ इसके बिलकुल विपरीत, सिर्फ sms से ही भारत में मोबाइल कंपनियों को 5000 करोड़ की आमदनी होती है. 

मोबाइल से तस्वीरें खींचना , ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग करना...रेडियो सुनना,गाने सुनना, टॉर्च का काम  लेना.. GPS  के सहारे किसी भी जगह का पता ढूँढना संभव है. कैलकुलेटर, घड़ी., ..इन सारी चीजों की सुविधा मोबाइल पर उपलब्ध है. 
एक चुटकुला भी है..." एक लड़का दुकानदार से एक एक कर पूछता है, इस मोबाइल में कैमरा है?.,रेडियो  है.?., घड़ी है?....टॉर्च.है?..." दुकानदार  कहता है..'हाँ सबकुछ है...और आप इस से कभी कभी बात भी कर सकते हैं.:)" 

पर इन सारी चीज़ों से सबसे अधिक लोकप्रिय हुआ SMS .मोबाइल कंपनियों को SMS की सुविधा प्रदान करने में कोई खर्च नहीं आता...अगर खर्च आता भी है, तो वो है 'एक पैसा'. जबकि इस से आमदनी इन्हें खूब होती है. 50 पैसे से लेकर एक रुपये पचास पैसे तक.  किसी टी.वी प्रोग्राम में sms  से संदेश भेजने पर इसका खर्च 3 रुपये से लेकर 6 रुपये तक आता है. इस से मोबाइल कंपनियों को बहुत आमदनी होती है. मोबाइल फोन पर जो सुविधाएं उपलब्ध होती हैं. उन्हें apps   कहते हैं...और इस sms की सुविधा को' killer apps ' और यह सही अर्थों में killer साबित हुआ जब पूरे भारत में ही sms के जरिये अफवाहें फैलायीं जाने लगीं कि असम और उत्तरपूर्व के लोगों को निशाना बनाया जाएगा . दक्षिण भारत में भी sms  के जरिये अफवाहों का बाज़ार गर्म होने लगा कि उत्तरपूर्व के लोगों पर हमले शुरू हो गए हैं और आने वाले दिनों में ये बढ़ते ही जायेंगे. उत्तरपूर्व के अभिभावक परेशान होकर अपने बच्चों को फ़ौरन वापस बुलाने लगे. छात्र भी 'जान है तो जहान है 'की सोच ताबड़तोड़ अपने शहर जाने की तैयारी करने लगे.15 से 17 अगस्त के बीच... बैंगलोर से गुवाहाटी के लिए 29,363 अनारक्षित   टिकट बेचे गए.  आठ स्पेशल ट्रेनें चलाई गयीं. 
सरकार, पुलिस ,मिडिया ,राजनीतिज्ञ और कुछ गैर सरकारी संस्थाओं की पहल से स्थिति सामान्य हुई . फिर भी जहरीले sms  ने जो जहर फैलाया था उस पर काबू पाने में समय लग गया.

मुंबई में भी आज़ाद मैदान में जो दंगे हुए ,इसके पीछे SMS  का ही हाथ बताया जाता है. जिस शख्स ने पुलिस की राइफल छीन ली थी उसने पूछताछ में यही बताया कि उसे एक sms   के द्वारा ही इस रैली का पता चला था. sms   सिर्फ एक तकनीकी सुविधा है...पर गलत इस्तेमाल पर कहर ढाने की क्षमता रखती है. 
फिलहाल सरकार ने सामूहिक sms  भेजने पर एक रोक लगा दी है. यह रोक पंद्रह दिनों के लिए है. पर इस सौ ...पांच सौ... -हज़ार फ्री   sms के पैकेज की सुविधा पर भी जरा गंभीरता से विचार करना चाहिए. 

हालांकि बच्चे भले ही  इसका दुरूपयोग करें ...पर स्कूल-कॉलेज-ऑफिस में इसका जम कर फायदा उठाया जाता है. कोई भी खबर सर्कुलेट करनी हो तो sms का ही सहारा लिया जाता है. और आजकल तो पैकेज की सुविधा के मोहताज होने की भी जरूरत नहीं BBM  और wts app है..जहाँ ग्रुप चैट चलते हैं. एक साथ  कई लोगों के साथ बात की जा सकती है.

 कभी कभी चार बच्चे एक साथ बैठे होते हैं पर चारों अपनी अपनी मोबाइल पर व्यस्त. वे आपस में ना जुड़ कर दूर-दराज के दोस्तों से जुड़े होते हैं. ये मोबाइल अगर दूर वालों को करीब ला रही है तो बड़ी तेजी से करीब के लोगों को दूर भी करती जा रही है. कितनी ही बार किसी बात की शुरुआत  हुई और किसी एक का मोबाइल टुनटुना उठा...अगर साइलेंट पर रख कर आगे बात जारी भी रखी जाती है तब भी सारा ध्यान मोबाइल की तरफ लगा होता है कि किसका मैसेज है..क्या मैसेज है...सामने वाला व्यक्ति गौण हो जाता है.

अब अपने बच्चों के लिए कुछ नियम बनाना ही अंतिम उपाय है. घर में आने के बाद वे मोबाइल स्विच ऑफ कर दें या अभिभावक के सुपुर्द कर दें. पढ़ाई के वक़्त मोबाइल साथ ना रखें. पर बच्चे भी "तू डाल- डाल मैं पात-पात "..वाली कहावत पर विश्वास करते हैं. जितने नियम बनाए जायेंगे वे उसे भंग करने के सौ तरीके निकाल लेंगे...ये सदियों से चलता आ रहा है...और शायद चलता ही रहेगा..

शनिवार, 4 अगस्त 2012

निश्छल सी दोस्ती के पावन से दिन

 "मैं कभी बतलाता नहीं.....पर अँधेरे से डरता हूँ, मैं माँ...मेरी माँ .."..फिल्म 'तारे ज़मीन पर '  का यह गीत,  पाषाण ह्रदय को भी द्रवित कर देता है. किसी प्रोग्राम में टी.वी.पर. ..स्टेज पर या पारिवारिक महफ़िल में ही किसी ने भी डूब कर गाया  इस गीत को तो सुनने वालों की आँखें छलक उठती हैं.   फिल्म में तो इसका फिल्मांकन और भी मर्मस्पर्शी है. एक छोटा सा बच्चा हॉस्टल में अकेला अपनी माँ को याद कर उदास है...रो रहा है और बैकग्राउंड में यह गीत बज रहा है. पर मैं  जब भी इस गीत का फिल्मांकन देखती हूँ...मन तो भीगता है..पर कुछ जोर का खटक भी जाता है.

हॉस्टल में ऐसा कभी होता ही नहीं कि कोई नया बच्चा आए और सब उसे अकेला छोड़ दें. जैसा कि इस फिल्म में दिखाया गया है...वो बिस्तर पर अकेला बैठा है..आस-पास बच्चे उछल-कूद,मस्ती कर रहे हैं पर कोई उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रहा..ऐसे ही मेस में भी खाने के टेबल पर आस-पास के बच्चे चहक रहे हैं...और इस बच्चे से कोई बात नहीं कर रहा. जबकि असलियत में बिलकुल इसका उल्टा होता है (कहा जा सकता है...फिल्म वाले इतनी छूट ले सकते हैं...पर जब फिल्म की इतनी तारीफ़ होती है,उसे अवार्ड्स मिलते हैं....फिल्म  यथार्थवादी कही जाती है तो ये छोटी बातें खटक  जाती हैं ) .मुझे कुछ ज्यादा ही खटकती हैं क्यूंकि मैं भी उसी उम्र में हॉस्टल में गयी थी...और मेरा अपना अनुभव बिलकुल अलग था . मेरे बाद भी हर साल, हॉस्टल में नई लडकियाँ आतीं और बाकी सब उन्हें घेर कर खड़ी हो जातीं....उनसे तरह-तरह के सवाल पूछे जाते...कभी भी कोई उन्हें एक पल को भी अकेला नहीं छोड़ता. 

मेरा हॉस्टल जाना भी अनायास  ही हुआ. अब मौका भी है तो दस्तूर क्यूँ ना निभा दूँ {शेखी बघारने की :)} . मुझे नेशनल स्कॉलरशिप मिली थी और स्कॉलरशिप की शर्त थी कि अमुक स्कूल में ही पढना है..सो हॉस्टल में एडमिशन हो गया. पर पिताजी हमेशा की तरह व्यस्त थे..मुझे हॉस्टल पहुंचाने के लिए छुट्टी नहीं ले पा रहे थे. सेशन शुरू हो गया था.और एक दिन मैं बरामदे में खड़ी  हो अपने बाकी फ्रेंड्स को स्कूल जाते देख रही थी...ऑफिस जाते हुए पापा की नज़र मुझ पर पड़ी और ऑफिस से उन्होंने चपरासी से माँ को संदेश भेजा कि "तैयारी कर लें...दोपहर की ट्रेन से मुझे हॉस्टल  छोड़ने जाना है ."..माँ तो घबरा ही गयीं..पर खैर,तैयारी तो पूरी थी ही..और आज के स्कूल की तरह नखरे भी नहीं थे...कि ये चाहिए.. वो चाहिए...

हॉस्टल में कई कमरे थे और बीच में एक बड़ा सा हॉल था. मुझे हॉल में ही एक बेड मिला था. माँ के सामने ही बिस्तर बिछा उस पर नई चादर बिछा दी गयी थी. { प्याजी रंग की धारी वाली चादर थी..ये भी याद है..:)} मेरे मन में मिक्स्ड फीलिंग्स थीं. परिवार से बिछड़ने का दुख भी हो रहा था..रोने में शर्म भी आ रही थी..और एक नए माहौल में सिर्फ लड़कियों के बीच रहने  का अलग सा रोमांच भी हो रहा था. मेरी माताश्री ने मुझे थोड़ा एम्बैरेस भी कर दिया था, मेट्रन से यह कह कर कि' इसे अपने बाल कंघी करने और कपड़े धोने नहीं आते ' . मेट्रन ने आश्वस्त किया "कोई बात नहीं...सब सीख जाएगी ..बड़ी लडकियाँ उसकी मदद कर देंगीं. मेरे शहर की ही एक पूर्वपरिचित और सीनियर थीं, 'उषा जयसवाल'. उन्होंने भी माँ को दिलासा दिया..'वे मेरा पूरा ख्याल रखेंगी.." ...जाते समय जब पिताजी ने कुछ नोट और कुछ छुट्टे पैसे दिए तो 'कभी हम खुद को कभी हथेली पर पड़े  पैसे को देखते हैं" वाला हाल हुआ...आजतक पैसे तो मिले ही नहीं थे कभी, वो भी इत्ते सारे....अब ये अलग रोमांचकारी अनुभव .

पैरेंट्स के जाने के बाद लड़कियों ने मुझे घेर लिया...तरह तरह के सवाल कर रही थीं. जब 'स्टडी आवर' आया तो  स्टडी  रूम में सब अपनी किताबें खोल कर बैठ गयीं. पाठ्य-पुस्तकें  मेरे पास भी जरूर होंगीं...पर मैं नंदन या पराग ही  पढ़ रही थी..इतना मुझे पक्का याद है...क्यूंकि मेट्रन के राउंड  लगा कर जाते ही...कुछ लडकियाँ मेरे पास आ कर पत्रिका को  उलट-पुलट कर देखने लगी थीं. 
डिनर के बाद जब कमरे में सब सोने आए, रूम की हेड (हर रूम की एक हेड हुआ करती थीं ) ज्योत्स्ना दी ने बड़े प्यार से बातें की और कहा,' मसहरी ( mosquito net )निकालो..तुम्हारे बिस्तर पर लगा दें .' मैने मसहरी निकाल कर बिस्तर पर रखा ही था कि दूसरे कमरे से तीन -चार लडकियाँ आ गयीं ( हॉस्टल में किसी नई लड़की के आते ही अक्सर ऐसा होता ..सब उसे देखने..उस से मिलने आते  ) .
कुछ देर उनलोगों ने मुझसे बातें की {क्या क्या बातें की..ये अब याद नहीं..:( } फिर आपस में कहा...'इसे अपने रूम में ले चलते हैं...एक बेड खाली है...एक नई लड़की आनी ही है...इसको ही ले चलते हैं..मेट्रन दी से बात करके सुबह शिफ्ट कर लेंगे " वे लोग चली गयीं. 

मैं तो अबूझ सी खड़ी थी. पर ज्योत्सना दी बहुत नाराज़ हो गयीं...अपनी दूसरी रूम मेट्स से कहने लगीं..'ये लोग ऐसा ही करती हैं...कोई अच्छी लड़की आई  नहीं कि उसे अपने रूम में ले जाती हैं...मेट्रन दी भी उनकी बात मान लेती हैं " और ज्योत्सना दी मारे गुस्से के अपने बिस्तर पर लगी मसहरी  में चली गयीं. मुझे कोई हेल्प नहीं की. बाकी लड़कियों ने भी उनके डर से या फिर ये सोचकर कि अब मैं उनके रूम में रहने वाली तो हूँ नहीं..मसहरी लगाने में मेरी मदद नहीं की. मुझे तो कुछ आता ही नहीं था...मैं यूँ ही बिस्तर पर लेट कर फिर से 'पराग' पढ़ने लगी. मेरे शहर वाली 'उषा दी' मुझे देखने आयीं...कि "मैं ठीक हूँ ना.." उनसे भी ज्योत्सना दी ने गुस्से में कहा.."चंद्रा दी लोग इसे अपने रूम में ले जा रही हैं..." उन्होंने कुछ जबाब नहीं दिया...मुझसे कहा.."मेरे  रूम में चलो....बिना मसहरी के सोवोगी तो मच्छर उठा ले जायेंगे "

दूसरे दिन मैं अभी ब्रश ही कर रही थी..कि सुबह ही मेरा सारा सामान चंद्रा दी ने अपने रूम में शिफ्ट करवा लिया. अपना पूरा स्कूली-हॉस्टल जीवन मैने उसी कमरे में बिताया. और फिर जब मैं टेंथ में आई तो वो 'रश्मि दी' का रूम कहलाने लगा. ज्योत्सना दी से भी बाद में अच्छी दोस्ती हो गयी..कोई वैमनस्य नहीं रहा. इस रूम में सबने मेरा बहुत ख्याल रखा. चंद्रा  दी मेरे कपड़े..मेरा बॉक्स संभाल देतीं. रानी दी मेरा  कबर्ड व्यवस्थित कर देतीं...मेरे बाल कंघी कर के संवार देतीं.  मेरे पैसे का हिसाब भी वे ही लोग रखतीं . अनीता दी ने तो कितनी ही बार मेरे कपड़े भी धो दिए. मैं बाल्टी में भिगो कर आती और वे जाकर साफ़ कर देतीं. एक बार केमिस्ट्री के एग्जाम के पहले मैं बहुत नर्वस हो गयी थी और रोने लगी कि 'मुझे कुछ याद नहीं..मैं फेल हो जाउंगी" अनीता दी ने अपनी पढाई छोड़कर मुझे रिवाइज़ करवाया...और डांट भी लगाई कि "सब याद है, क्यूँ घबरा रही हो."  अंजू मेरी जूनियर थी...पर बहुत प्रोटेक्टिव थी. घंटो हमलोग स्कूल के बरामदे में टहला करते और  झूठ-मूठ की हांकते ..कि हमारे घर के बगीचे में ये फूल हैं...ये पेड़ हैं..:) सबके साथ रहकर इतना लगाव हो गया था कि जब हम छुट्टियों में घर जाते तो एक-दूसरे को लम्बे-लम्बे ख़त लिखा करते. 

हॉस्टल में सुबह साढ़े पांच बजे उठकर, प्रार्थना फिर व्यायाम...नाश्ता..पढ़ाई...खाना और फिर स्कूल. स्कूल से आकर नाश्ता फिर दो घंटे मैदान में खेलना कम्पलसरी ..फिर प्रार्थना..पढ़ाई.. डिनर और फिर दस बजे बत्ती बंद. एग्जाम के दिनों में कैसे चोरी चोरी मेट्रन दी के सो जाने के बाद हमलोग बत्ती जलाकर पढ़ते थे. नाश्ता -खाना तो खैर बहुत ही खराब था...जिक्र के लायक भी नहीं. पर दूसरी एक्टिविटीज़ में हम इतने व्यस्त रहते थे कि हमारा इस तरफ ध्यान भी नहीं जाता. पर अब सोचकर हंसी आती है...खाना ऐसा (पौष्टिक तो ज़रा भी नहीं..घी,दूध,फल, हरी सब्जी का नामोनिशान नहीं ) लेकिन हमलोग खेल-कूद ..व्यायाम कितना किया करते थे. अक्सर स्कूल में भी एक पीरियड गेम का होता था. और आज के बच्चे पिज्जा..बर्गर..मैगी के शौक़ीन लेकिन फिजिकल एक्टिविटी नदारद. 

प्रत्येक शनिवार की शाम पढ़ाई से छुट्टी और सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ करते थे. शायद ही हमारी हिंदी पाठ्य-पुस्तक की कोई कहानी हो जिसका नाट्य रूपान्तर कर हमने नाटक ना किया हो. ज्यादातर ये काम मेरे जिम्मे ही होता था..शायद लेखन के बीज वहीँ से पड़े. वैदेही,सुधा, नीला आदि  बहुत अच्छा नृत्य करती थी और सुषमा,अमृता ,निशा, साधना...बहुत अच्छा गाती थीं. शाम का अंत हमेशा अन्त्याक्षरी से होता. मेस की घंटी हमें सुनायी ही नहीं देती {शायद इसलिए भी कि उस दिन खिचड़ी मिला करती थी :)} कमला बाई बडबडाती हुई हमें बुलाने आती. 

कई डे स्कॉलर्स से भी अच्छी दोस्ती थी. शर्मिला ढेर सारे बाल पॉकेट बुक्स लाती थी. ममता,शिल्पा,वंदना नई नई फ़िल्में देख कर आतीं और हमें मय एक्टिंग के पूरी कहानी सुनातीं. सरिता-वंदना-संगीता -शिल्पा और मेरा एक ग्रुप था. स्कूल आवर्स में हम हमेशा साथ होते पर इम्तहान के दिनों में आपस में कम्पीटीशन भी बहुत होते थे. सब ऐसे एक्ट करते जैसे कुछ आता ही नहीं. एक दूसरे को शक की निगाहों से देखा करते और जब रिजल्ट आता तो एक दूसरे पर ताने कसते..'पढ़ा नहीं था..फिर नंबर कैसे आ गए??" 


नवीं-दसवीं में सुधा और अमृता मेरी पक्की सहेलियाँ बन गयीं थीं. हम तीनो को किताबें पढ़ने का चस्का लग चुका था. 'गुनाहों का देवता' पढ़कर कितना रोये थे हम :)...उन्ही दिनों ईनाम में मुझे "रोमियो जूलियट" और भगवती चरण वर्मा की 'चित्रलेखा' मिली थी .(तब चित्रलेखा क्या समझ आई होगी..) घर पर पैरेंट्स को ईनाम में मिली 'रोमियो-जूलियट ' दिखाते हुए शर्म भी आ रही थी. और स्कूल वालों पर गुस्सा भी कि इतनी कंजूसी करते हैं..ईनाम में लाइब्रेरी से लाकर पुस्तकें बाँट देते हैं...कप या मेडल नहीं खरीद सकते जिसे हम घर में सजा सकें ..लोगों को भी पता चलता. अब सोचती हूँ...किताब से बढ़कर दूसरा और क्या अच्छा ईनाम हो सकता है.

सरस्वती पूजा की तैयारियाँ हमेशा याद आती हैं...दिनों पहले से हम व्यस्त हो जाते...चंदा इकट्ठा करना...अल्पना बनाना..कलश पेंट करना...पूरी रात जागकर प्रसाद की प्लेट लगाना और सजावट करना. सरस्वती-पूजा के बाद होली की छुट्टी तक रोज रात में सोयी हुई लड़कियों के बालों में गुलाल  डाल देना...सफ़ेद पेंट से उनकी दाढ़ी-मूंछे बना देना. फिर वो मैदान में कबड्डी खेलते हुए सुर्खी(लाल-मिटटी जिस से हम मैदान के बीचोबीच सरस्वती देवी की मूर्ति तक एक चौड़ा रास्ता बनाते थे और उसपर चौक पाउडर से अल्पना)  से होली खेलना...और उसके बाद मेट्रन दी से डांट खाना और फिर सजा भी भुगतना...वे भी क्या दिन थे...हॉस्टल  की कितनी ही बातों का  जिक्र अपनी कई पोस्ट में कर चुकी हूँ...पर बातें हैं कि ख़त्म नहीं होतीं :)

जब दसवीं  के बाद हॉस्टल छोड़कर आने लगी तो पूरे हॉस्टल की लडकियाँ गेट तक छोड़ने आई थीं..और सब हिचकियाँ भर रही थीं ( दसवीं की हर लड़की के घर जाते समय यही दृश्य होता था ) इस बार भी मुझे रोने में शरम आ रही थी...पर स्थिति विपरीत थी...जब हॉस्टल आई थी तो  लड़कियों के सामने झिझक हो रही थी..और इस बार पैरेंट्स के सामने. 

(ये संयोग ही है कि पिछले साल के फ्रेंडशिप डे पर के.जी.क्लास से लेकर हॉस्टल आने तक के पहले की दोस्ती की यादें लिखी थीं और उसके बाद ही ये पोस्ट लिखने की सोची थी...पर आज फ्रेंडशिप डे के दिन ही उसे लिखने का  मुहूर्त हुआ.यानि कि कॉलेज के दोस्तों की यादें .अब अगले फ्रेंडशिप डे पर...यानि कि पक्का ये भी है कि अगले एक साल तक ब्लोगिंग करती रहूंगी :)
बहरहाल..मेरे भूले-बिसरे-पुराने दोस्तों के साथ आप सब दोस्तों को भी मित्रता दिवस की अनेक...असीम...अशेष...अनंत...अपरिमित शुभकामनाएं )

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...