शनिवार, 29 दिसंबर 2012

बस ये आक्रोश....ये संवेदनशीलता जाया न होने पाए

हमारा देश आक्रोश, अविश्वास, बेबसी   की आंच से सुलग  रहा है। व्यवस्था के प्रति ये क्रोध हर तबके के लोगों में है पर युवाओं में ज्यादा मुखर है। सही भी है,  देश की पतवार उनके हाथों में हैं शायद उनके हाथ ही सही दिशा में ले जाएँ। 

आज निर्भया हम सबसे दूर चली गयी है पर हमारे  ह्रदय में उसने हमेशा के लिए साहस, प्रेरणा की लौ जला  दी है, जो कभी बुझने वाली नहीं।निर्भया ने जिस हिम्मत से उन छः  नर-पिशाचों का सामना किया , भले ही उसके शरीर के चिथड़े कर दिए गए पर उसने आत्मसमर्पण नहीं किया . उसके इसी साहस ने सबकी आत्मा को झिंझोड़ दिया है। ज़रा सी बात पर हम लोग निराश हो जाते हैं, हिम्मत हार जाते हैं और यहाँ एक लड़की, अपने शरीर पर भीषण अत्याचार सहती रही पर हार नहीं मानी,अंत तक लडती रही। 
हर युवा की संवेदनशीलता को इस घटना ने गहरे तक छुआ  है।

आज इस काले शनिवार के दिन ही दो संवेदनशील युवाओं की प्रतिक्रियायें मिली एक तो मेरी पिछली पोस्ट पर  summary  (इनका नाम  नहीं पता, ब्लॉग आइ डी यही है ) की प्रतिक्रिया जो आक्रोश से भरी हुई है।
summary के शब्द हम सबके मन की भावनाएं व्यक्त करते हैं।

चलो , न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी .....कम से कम हमारी इटैलियन मेम (सोनिया गांधी ) तो यही सोच रही होंगी . मैडम शीला दिक्षित बहुत हिम्मत वाली महिला हैं . मिलने नहीं गयीं लड़की से पर आज सुबह उनकी फोटो  अखबार में कैंडल जलाते हुए . इस वर्ष कई मंत्रियों ने अपने बोल्ड विचार व्यक्त किये विभिन्न विषयों पे। पिछले  2 हफ़्तों में कई बुद्धिजीवियों ने स्त्रियों के मानक बताये .
क्या करना चाहिए , क्या नहीं ... बाहर जाना चाहिए तो कैसे .. कपडे पहनने चाहिए तो कैसे ... कुछ ने कहा ... लड्कियूं को फिल्म नहीं देखनी चाहिए ... जीन्स पहनने से वे लड़कों को उकसाती हैं .
रात 6 बजे के बाद घर से बहार नहीं निकलना चाहिए ... 1 महिला वैज्ञानिक ने तो यहाँ तक बोला कि  'दामिनी'/निर्भया ' ने उन लोगों को उकसाया . वो रात को 10 बजे पिक्चर देखने क्यूँ निकली ?
अच्छी बात है ... तो फिर ये लोक्तंत्र का बाजा क्यूँ ? चुनाव क्यूँ ? खाड़ी देशों के तरह .. महिलायों को घर में बिठा कर रखो ... 5 क्लास के बाद नज़रबंद कर दो ... जो मार काट के गद्दी पे बैठ जाये वो PM . क्यूँ कल्पना चावला सुनीता विल्लिअम्स का example देते हो ...वे दोनों यहाँ से निकल गयीं तो कुछ कर दिखाया ..वर्ना यहाँ ..double standard politics mentality का शिकार बन चुकी होतीं ....क्यूँ कहते हो ..उन्हें भारत की मूल नागरिक ? इस हिसाब से तो उन्होंने भारत की नाक कटा दी .. जीन्स पहन के ......अमेरिकी क्यूँ लड़कियों को j जींस पहने देख उत्तेजित नहीं होते ..वे नामर्द हैं क्या ? सारे मर्द यहाँ भारत वर्ष में पैदा हुए ... दु:शाशन से लेकर गोपाल कांडा तक ......
we don't want insensible , incapable and careless government . Its pity that when whole nation was expecting some quick , strict action from gov that time gov acted as a silent spectator without having any strategy to deal with the situation. RIP my little sister. we are sorry .

एक संवेदनशील युवा लड़के ने बहुत व्यथित होकर एक कहानी सा लिखा है। 
कहानी अंग्रेजी में है,जिसका हिंदी अनुवाद यहाँ है 
" एक सफ़ेद रंग की कार 'भारत माता चौक' के पास एक मिनट के लिए रुकी . फिर तुरंत आँखों से ओझल हो गयी। कार  से एक मैले-कुचैले चादर में लिपटी एक आकृति सड़क के किनारे धकेल दी गयी थी। उसकी मैली चादर पर नज़र पड़ते ही उसे रास्ते में रहने वाली भिखारिन समझ लोग आगे बढ़ जाते।
एक कीमती साडी में एक औरत अपने बच्चे को गोद में लिए उसके पास से गुजर रही थी। उस आकृति ने उस औरत की साडी पकड़ कर खींचना चाहा  . उस औरत  ने उसे जोर से झिड़क दिया और आगे बढ़ गयी। सौ के करीब लोग उसके पास से गुजरे, उसमे से दस लोगो ने उसकी तरफ देखा भी पर किसी ने नोटिस नहीं लिया।

सड़क के पार से एक जोड़ी मूक आँखें उस आकृति को घूर रही थीं। 'यह कुछ अलग सा क्या है ? " उन मूक आँखों में ये भाव कौंधे , तब तक वो आकृति कितने ही लोगो के पैर , उनकी पेंट  के पायंचे, साडी का किनारा खींच  कर अपनी तरफ उनका ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश कर रही थी। पर लोग उसका हाथ झटक कर आगे बढ़ जाते। एक जोड़ी मूक आँखें उसे घूरती रहीं, फिर धीरे से उसके कान खड़े  हो गए और वह अपनी दुम  हिलाता उठ खड़ा हुआ।उस चादर में लिपटी आकृति की तरफ देख कर भौंकने लगा। फिर भी किसी ने ध्यान नहीं दिया। अब वह अपने छोटे छोटे पैरों से  सड़क को पार कर उस आकृति के पास जाकर भौंकने लगा . हर गुजरते कदमों के साथ उसके भौंकने की आवाज़ बढती जा रही थी। उसकी आवाज़ से कुछ लोगों ने डर  कर अपने कदमों की गति तेज कर दी पर भौंकने की वजह पर ध्यान नहीं दिया। 
अब वह कुत्ता सड़क पर आगे-पीछे भागते हुए भौंकने लगा। कुछ लोगो ने उसे छोटे छोटे पत्थर और पानी की बोतल फेंक कर मारा । उसने एक आदमी का पैंट पकड़ कर खींचा तो उस आदमी ने बगल से एक लाठी उठा कर उसे दे मारा। पर वह कुत्ता फिर भी नहीं हटा, उस आकृति के पास जाकर भौंकने लगा। उस आकृति की पनीली आँखें उस कुत्ते के आँखों से मिलीं और उसका भौंकना पंचम सुर तक पहुँच गया . अब वह हर आने-जाने वाले के कपडे पकड़ कर खींचने लगा। एक छोटी सी भीड़ उस कुत्ते के पास जमा हो गयी और लोग उस कुत्ते को पागल समझ कर उसके  ऊपर पत्थर फेंकने और उसे  लाठी से मारने लगे। फिर भी लोगो का ध्यान उस मैली कुचैली आकृति पर नहीं गया जिसके लिए वह कुत्ता भौंक रहा था .
कुत्ते को पागल समझकर दो भिखारी जैसे लोग उस सड़क की दूसरी तरफ जाने  लगे और उस आकृति को भी अपने साथ चलने के लिए उसकी चादर पकड़ कर खींचा । चादर खींचते ही वह आकृति लुढ़क पड़ी ,लोगो ने देखा वह एक लड़की थी,जिसके  कपडे फटे हुए थे और वह खून से लथपथ थी।
 भीड़ में से किसी ने नंबर डायल किया 101 और पता बताया ,'भारत माता चौक ' 
थोड़ी ही देर में पुलिस वैन आकर लड़की को ले गयी .लड़की ने दो दिन बाद अस्पताल में दम तोड़ दिया। लगातार भौंकने की वजह से पत्थर और लाठियां खा कर कुत्ता पहले ही मर  चुका  था।
 पुलिस को इतनी तत्परता से लड़की को अस्पताल पहुंचाने के लिए राज्य की तरफ से पुरस्कृत किया गया।

रविवार, 23 दिसंबर 2012

किसे सुनाएँ हाल-ए-दिल...नज़र और जुबां पे सबके ताले पड़े हुए हैं

दिल्ली में घटी उस शर्मनाक घटना पर फेसबुक मेरी त्वरित प्रतिक्रिया थी,
"दिल्ली में वहशीपन की इस घटना पर सबका खून खौल रहा है .पर सिर्फ खून खौलने की नहीं, खून का ये उबाल बनाए रखने की जरूरत है, जब तक ऐसी घटनाएं बंद न हो जाएँ;.
दोषियों को सजा न मिल जाए और लडकियां अपने आप को सुरक्षित न महसूस करने लगें।
ये नहीं कि कुछ दिनों में हम इसे भूल जाएँ और फिर किसी अगली खबर का इंतज़ार हो। "

सबसे ज्यादा इस बात का डर था कि  सबका गुस्सा पानी के बुलबुले सा बैठ न जाए। 
पर संतोष है कि ये उबाल  एक जलता ज्वालामुखी बन गया है, जिस से दहकता लावा निकलता ही जा रहा है। 
सही भी है, पता नहीं कितने दिनों का जमा आक्रोश है, यह।  रोज ही ऐसी ख़बरें सुनने  को मिलती हैं और गुस्से में बेबसी से मुट्ठियाँ  भिंच  कर रह जाती हैं। 
पर अब और नहीं, आज हर वर्ग के युवक-युवतियां आक्रोशित हैं, उस पीड़िता को न्याय दिलाने के लिए कटिबद्ध हैं और ऐसी व्यवस्था चाहते हैं कि आगे चलकर ऐसी घटनाएँ न हों, महिलायें सड़कों पर खुद को सुरक्षित महसूस कर सकें। 
बस इतनी सी उनकी मांगें, इतनी सी उनकी चिंता और हमारे प्रशासकों, देश के संचालकों के पास उन्हें आश्वस्त करने के लिए दो शब्द भी नहीं ??
जिनके हाथों में शासन की बागडोर है ,क्या उन्हें ये सब मजाक लग रहा है ? सिर्फ बच्चों का ऊधम  लग रहा है जो इसे पूरी तरह नज़रंदाज़ कर अपने सुरक्षित कमरे में बैठकर चाय के सिप के साथ राजनीति की गोटियाँ बिठाने में व्यस्त हैं ??

अगर घर के  किसी बच्चे या बच्चों को कोई बात गलत लगती है और वे अपना आक्रोश जताते हैं तो 'घर के  बड़े उनकी पीठ सहलाते हैं, उन्हें आश्वस्त करते हैं, उन्हें दिलासा देते हैं कि अब ऐसा नहीं होगा और वे इसे सुधारने की पूरी कोशिश करेंगे।'
इन मंत्रियों, शीला दीक्षित, सुशील कुमार शिंदे ,सोनिया गांधी हमारे मूक बधिर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति इन सबसे इतनी सी ही अपेक्षा थी कि वे इस जनसमूह को दिलासा देते और प्रॉमिस करते कि "एक निश्चित अवधि के अन्दर उन दोषियों को सजा मिलेगी। वे क़ानून ,व्यवस्था इतनी कड़ी कर देंगे कि रेप जैसे दुष्कर्म करने से पहले दुष्कर्मियों  रूह काँप जायेगी। लडकियां  खुद को सुरक्षित महसूस करेंगी।" 
ये सब क्या इतना कठिन कार्य है? जिसे कार्यान्वित करने का आत्मविश्वास उनके पास नहीं है। ये क्या गरीबी हटाने और बेरोजगारी दूर करने जैसी माँगें  हैं, जिनके लिए उन्हें योजनायें बनानी है, समय लेना है। 
ये sheer apathy है सिर्फ उदासीनता, सिरे से नज़रंदाज़ करना और इस मुद्दे को अहमियत नहीं देना। क्यूंकि ये लोग उनके वोट बैंक नहीं हैं। आज अगर ये सारे नेता इन युवाओं का साथ भी दे दें तो उन्हे पता है  
इन युवाओं की अपनी सोच है, जरूरी नहीं कि उन्हें ये वोट दें। यहाँ हर वर्ग के युवा थे, जाति ,अल्पसंख्यक का भेदभाव नहीं था, इसलिए इन राजनीतिज्ञों की रूचि भी नहीं रही होगी। 

पर एक बार चुनाव जीत कर जब शासन की बागडोर हाथ में ले ली फिर तो वे परिवार के मुखिया से हो गए। युवाओं के इस आन्दोलन में वे उनके बीच आते, युवाओं से दो बाते करते, टी वी  के माध्यम से ही उन्हें सन्देश देते .उनके साथ बने रहते तो उनकी संवेदनशीलता भी जाहिर होती। पर उन्हें परवाह ही नहीं है। बल्कि आन्दोलन के दुसरे दिन तो पुलिस को जिस तरह आंसू गैस, लाठी चार्ज , पानी की बौछार करने के निर्देश दिए गए ,यह किसी कठोर शासक की तानाशाही जैसा रवैया ही था . शांतिपूर्वक अपनी बात कहने का भी हक़ नहीं। आपको वोट देकर जिताया गया, शासन की बागडोर सौंपी गयी। पर अब आपका जैसा मन हो व्यवस्था चलायें . कानून व्यवस्था की धज्जियां उड़ती रहें, गरीबी ,महंगाई,बेरोजगारी दूर करना  तो दूर, एक सुरक्षित माहौल तक भी नहीं दिया जा सकता। जनता को सिर्फ सहना है, वो मुहं नहीं खोल सकती। और मुहं खोलने की जुर्रत की तो फिर उसे बंद करवाने के कई तरीके आजमाए जायेंगे। पुलिस बल, जनता की रक्षा के लिए नहीं , वह नेताओं की शान बढाने के लिए है . एक राजनीतिज्ञ की सुरक्षा के लिए तीन पुलिसकर्मी नियुक्त हैं, जबकि 700 आम जनता के लिए मात्र एक पुलिसकर्मी। कमाल का जनतंत्र है। 

प्रधानमंत्री 'मनमोहन सिंह' और राष्ट्रपति 'प्रणव मुखर्जी' ने तो मुहं नहीं खोले . वे भावहीन चेहरा लिए लिखी लिखाई स्पीच पढेंगे 'राष्ट्र के नाम सन्देश ' . (आज सुबह पढ़ा भी और जनता को ज्ञान दिया कि 'हिंसा किसी समस्या का हल नहीं।' मूक बधिर तो वे थे ही अब क्या नेत्रहीन भी हो गए कि उन्हें दिखाई नहीं दिया , जनता तो शांतिपूर्वक बैठी थी, पर उनपर आंसू गैस के गोले छोड़े गए और पानी की बौछार की गयी और लाठी चार्ज भी ) राष्ट्र के जनता की क्या फिकर करनी? चुनाव सन्निकट होगा, तो अपने वोटबैंक को संबोधित किया जाएगा, उन्हें झूठे आश्वासन दिए जायेंगे।   शीला दीक्षित ने मुहं खोला  भी तो अपने फायदे के लिए, 'दिल्ली पुलिस' पर दोष लगा, खुद को बरी करने की कोशिश। केंद्र में सरकार क्या उनकी पार्टी की नहीं है ?? वे गृहमन्त्री से बात नहीं कर सकती ? शीला  के एक और बयान ने हैरान किया, वे बरखा दत्त को दिए इंटरव्यू में कह रही थीं, "उन्हें पीडिता को देखने की हिम्मत नहीं है, उसके माता -पिता से मिलने की हिम्मत नहीं है,वे रो पड़ेंगी . डा नर्स उस लड़की का अच्छा ख्याल रख रहे हैं। वे उनसे हालचाल पूछ कर संतुष्ट हो जाती हैं। " यही बातें इनकी मानसिकता दर्शाती हैं। उनके राज्य में ये जघन्य घटना घटी है और वे इसकी जिम्मेवारी नहीं लेना चाहतीं। उनके पास कहने के लिए दो शब्द भी नहीं ? क्या उनके परिवार में किसी के साथ कोई दुर्घटना घटे तो वे बस डा. से हालचाल पूछ कर रह जायेंगी ? कोई भी आपदा आने पर हर देश के मुखिया, अस्पताल में जाकर पीड़ितों का हालचाल पूछते हैं, तो क्या वे असंवेदनशील हैं ?? और शीला दीक्षित  खुद को इतना संवेदनशील समझती हैं कि  उन्हें रो पड़ने का डर  है? तो रो पड़तीं , बेहोशी में भी उस पीडिता की आँखों में आंसू थे, कैसा मर्मान्तक कष्ट झेला  था उसने। 

हमारे प्रधानमन्त्री गृहमंत्री सब ये राग अलाप रहे हैं कि 'हम इनका दुःख समझते हैं हमारी भी तीन बेटियाँ है। " किसी का दुःख समझने के लिए बेटियों के माँ -बाप होना जरूरी नहीं , एक संवेदनशील ह्रदय होना चाहिए।  मेरे सहित कई लोगों के सिर्फ बेटे हैं तो क्या उनका मन आहत नहीं है? उन्हें इनका दुःख महसूस नहीं हो रहा?  इन सबके ,इतने हास्यास्पद बयान ये जाहिर कर रहे हैं कि ऐसी स्थितियों से निबटने के लिए हमारे नेता सक्षम नहीं हैं। वे सिर्फ लिखी लिखाई स्पीच पढने और जलसों में फूल और शॉल  ग्रहण करने के योग्य हैं। 

इस घटना पर बहुत लोग ज्ञान  बघार रहे हैं। शबाना आज़मी कह रही हैं, 'दोषियों को सजा देना समस्या का हल नहीं है बल्कि उन्हें समाज से बहिष्कृत कर देना चाहिए, उसे कोई  नौकरी न मिले,वो समाज में सर उठा कर न चल सके आदि आदि।' पता नहीं किस लोक की वासी हैं वे, उन्हें हमारे देश के व्यवस्था का पता ही नहीं। इतनी बड़ी जनसँख्या और इतने कम पुलिस बल, कौन उन पर नज़र रख पायेगा ? एक और बुद्धिजीवी महिला ने शबाना आज़मी की इस बात मेरे ऐतराज करने पर फेसबुक पर लिखा कि 'अगर कठोर सजा जैसे फांसी जैसी सजा दी जायेगी तो हमारे चाचा, भाई,पिता, दोस्त, पडोसी सब इस सजा के लिए पंक्तिबद्ध पाए जायेंगे, इसलिए शबाना आज़मी की सलाह मानी जाने चाहिए ।' 
तो इसलिए कि समाज में हमारे अपने भी ऐसा घृणित दुष्कर्म कर रहे हैं, हम कठोरतम सजा की अपेक्षा न करें? ये सही है, कठोरतम सजा के प्रावधान से अपराध ख़त्म नहीं हो जाते पर कम जरूर हो जाते हैं। आज ड्रंक ड्राइविंग , कार चलते वक़्त मोबाइल पर बातें करना आदि जैसी गलतियों के लिए सख्त सजा का प्रावधान है और काफी कमी आयी है, लोगों की ऐसी हरकतों में। पहले ही सोच लेना कि 'सात साल सश्रम कारावास की सजा' ही बहुत है, जबकि एक लड़की की पूरी ज़िन्दगी पर असर पड़ता है . उसका पूरा व्यक्तित्व बदल जाता है। उसे एक नॉर्मल रिलेशनशिप निभाने में कठिनाई आती है तो क्या यह उसके व्यक्तित्व की ह्त्या नहीं है ?? जरूरी है कि इस दुष्कर्म को गंभीरतम अपराध के रूप में लिया जाए ताकि रूह काँप जाए किसी की ऐसा अपराध करते। जब देश की राजधानी में इसके खिलाफ आन्दोलन चल रहे थे। मुंबई में नेपाल से अपने पति को ढूँढने आयी एक लड़की की मदद करने के बहाने उसके पति के तीन मित्रों ने अलग अलग जगह ले जाकर उसका रेप किया। ऐसा वे बस इसलिए कर पाए कि उन्हें पता है, पहले तो अपराध साबित ही नहीं होगा और साबित हो गया तब भी वे जल्द ही जेल से छूट जायेंगे। लोगो में एक भीषण डर  पैदा करने की बहुत जरूरत है और ऐसा तभी हो सकता है, जब वे अपने  साथी अपराधकर्मियों को कठोर  सजा पाते हुए देखें। 

इसके साथ लोगों की मानसिकता बदलनी भी बहुत जरूरी है। आज भी नारी चाहे हर क्षेत्र में पुरुषों के समकक्ष हो। पर अधिकाँश पुरषों के मन में ,उसके लिए सम्मान नहीं है, । कुछ आंकड़े  पढ़कर हैरानी हुई। दिल्ली में एक लाख महिलाओं  में से 500 रेप की शिकार हुई हैं। मुंबई में एक लाख में 250 , बैंगलोर, चेन्नई में 5 और कलकत्ता में एक लाख महिलाओं में दो महिलायें . और कलकत्ता का  ये आंकड़ा पिछले पांच साल से ऐसा ही है। क्यूँ है ऐसा? क्यूंकि दक्षिण में बंगाल में महिलाओं का सम्मान है। बंगाल में  छोटी लड़कियों को सिर्फ माँ कहा ही नहीं जाता ,उन्हें सम्मान भी दिया जाता है। 
दुःख हो रहा है,ऐसा कहते पर सच तो यही है कि  हमारे उत्तर भारत में लडकियां आज भी जायदाद समझी जाती हैं। उनका अलग अस्तित्व नहीं माना  जाता। अधिकाँश पुरुष, उनके ऊपर अपना अधिकार समझते हैं,। 
पर धीरे धीरे लडकियां जागरूक हो रही हैं। जिस तरह निर्भीक होकर दिल्ली में लड़कियों ने प्रदर्शन में भाग लिया है और उनके माता -पिता ने इसकी अनुमति दी, वो स्वागतयोग्य है।  अब नयी पीढ़ी अपने बेटे-बेटियों में भेदभाव  नहीं करेगी। बेटियों को भी उतना ही प्यार और सम्मान मिलेगा अपने माता -पिता से . और जब हर घर से शुरुआत होगी समाज को भी लड़कियों का सम्मान करना सीखना होगा। अभी इस परिवर्तन में  बहुत समय लगेगा पर आशा और प्रार्थना है कि हमारे बाद आने वाली पीढ़ियों को  ऐसे अपराध की ख़बरें भी सुनने  को न मिले। अब कोई और निर्भया रेप की शिकार न हो।

निर्भया ( टाइम्स ऑफ इण्डिया द्वारा उस साहसी लड़की को यही नाम दिया गया है ) के शीघ्र स्वस्थ होने की प्रार्थना में हाथ जुड़े हुए हैं। अब बस एक यही तमन्ना है, जल्द ही देख पाऊं कि मुस्कुराती हुई निर्भया  टी.वी. के माध्यम से हमसे मुखातिब हो रही है। चाहे उसे पूरी तरह ठीक होने में एक साल लग जाए, दुनिया के किसी भी कोने में उसे इलाज के लिए जाना पड़े पर हमें उसे मुस्कुराते हुए देखना है।

रविवार, 16 दिसंबर 2012

ज़िन्दगी इम्तहान लेती है

अभी कुछ दिनों पहले बहन की शादी में शामिल होने मुंबई से बाहर  गयी तो नेट पर किसी को नहीं बताया कि  लखनऊ जा रही हूँ क्यूंकि पिछली लखनऊ यात्रा की खबर कुछ मित्रो को दे दी थी पर शादी की गहमागहमी में उनसे मिलने के लिए यथेष्ट समय नहीं निकाल पाने के कारण बड़ा दुःख हुआ था । किसी से कुछ मिनटों के लिए स्टेशन पर मिली तो किसी से घर पर। जिसकी गाथा यहाँ और यहाँ लिख ही रखी  है। और इस बार यह भी प्रार्थना की थी कि खडूस सहयात्री मिले जिन्हें बातें करने में कोई रूचि  न हो ताकि मैं इत्मीनान से किताबें पढ़ सकूँ। फिर इस से भी सरल उपाय सोचा कि खुद ही खडूसियत  ओढ़ ली जाए ताकि कोई बातचीत शुरू ही न कर सके।

यात्रा से सम्बंधित कोई पोस्ट लिखने का न तो इरादा था और न ही कोई मैटेरिअल ही पास था। पर लखनऊ से वापसी के वक़्त कुछ ऐसे सहयात्री मिले , जिनके विषय में जानकार एक शॉक  सा ही लगा। 
वे तीन लोग थे, दो बीस-बाइस की उम्र के युवक और एक पचास के करीब का पुरुष। लड़कों के लम्बे बाल थे और हेवी एक्सेंट में अंग्रेजी बोल रहे थे। तीनो रिश्तेदार तो नहीं थे पर जिस तरह से वे  पुरुष उन लड़कों का ख्याल रख रहे थे ,करीबी ही लग रहे थे। फिर भी समझ नहीं आ रहा था , कहीं एडमिशन के लिए जा रहे हैं तो यह पुरुष क्यूँ साथ है ? दोनों लड़के अकेले जा सकते हैं . अपनी दुबली काया  से स्पोर्ट्स मैन  भी नहीं लग रहे थे कि  कोच साथ हो। अगर किसी बैंड के मेंबर हैं तो कोई इंस्ट्रूमेंट साथ  नहीं था। होंगे कोई, मैंने ज्यादा  दिमाग नहीं लगाया और एक किताब लेकर ऊपरी बर्थ पर चली गई और थोड़ी ही देर में सो गई .

मेरा बेटा अंकुर  भी साथ था। उसे टी शर्ट- थ्री फोर्थ-चप्पल में देख और हाथो में मोटी अंग्रेजी की किताब ,कानो में हेड फोन लगाए देख वे लड़के उसके साथ कम्फर्टेबल हो गए और इनके बीच बात-चीत शुरू हो गयीं। शादी के  जागरण और देर तक पुस्तक पठन से मेरी आँखें जल्दी ही मुंद  गयीं। बीच बीच में देखती इनकी बातें चल ही रही हैं। अंकुर को यूँ भी  रतजगे की आदत है, उसे अच्छा साथ मिल गया था . करीब रात के दो बजे वे सब सोने गए। 

मुंबई पहुँचने पर अंकुर ने बताया कि  वे तीनो Rehab में हैं। मेरे चौंकने  पर उसने कहा, वो भी ऐसे ही चौंका था और मान नहीं रहा था तो उनलोगों ने मुंबई के पास एक Rehab Center का कार्ड दिखाया और बताया कि  वे दोनों लड़के ड्रग  एडिक्ट थे और वे पुरुष अल्कोहलिक (शराबी ) अब तीनो उस एडिक्शन से उबर चुके हैं और सेंटर के प्रोग्राम के तहत आम लोगो (इसके लिए वे 'मेनस्ट्रीम पीपल ' जैसे टर्म इस्तेमाल कर रहे थे)  में घुलने मिलने की कोशिश कर रहे हैं . वे तीनो एक हफ्ते के लिए उन पुरुष के घर पर गए थे और अब सेंटर लौट रहे हैं। तीनो ने अंकुर को  अपनी अपनी कहानी सुनायी। 

उनकी कहानी उनकी ही जुबानी 

निशांत (19 वर्ष ) 

मैं अपने माता -पिता की इकलौती संतान हूँ .मैं नौ साल का था जब पहली बार सिगरेट पी। मेरे घर के सामने कुछ लड़के शाम  को सिगरेट पिया करते थे। मैं उनके आस-पास ही खड़ा रहता था। उनमे से ही एक ने पहली बार सिगरेट पिलाई और फिर आदत लग गयी। नवीं  कक्षा में था जब मेरे माता-पिता दुबई चले गए।मुझे हॉस्टल में नहीं रख कर मेरे चाचा की देखरेख में उनके घर पर रखा। पर चाचा के यहाँ मैं अजनबी जैसा ही था। बाहर के एक कमरे में रहता। उनके परिवार का कोई सदस्य मुझसे बात नहीं करता। बस समय पर खाना भिजवा देते कमरे में जिसे मैं कभी खाता, कभी नहीं। धीरे धीरे मैं हर तरह का नशा करने लगा। माँ से बहाने से पैसे मंगवाता, वे भी भेज देतीं। (निशांत ने अंकुर को अपने हाथ, छाती और गले के ज़ख्म भी दिखाए, जो इंजेक्शन लेने की  वजह से बने थे। बता रहा था घोड़ो को रेस के समय तेज दौड़ने के लिए कोई इंजेक्शन दिया जाता है, नशे के लिए ये लोग उसे लेते थे  ) पर इन सबके साथ मेरी पढ़ाई अच्छी चल रही थी। मैंने अच्छे  नबर से दसवीं और बारहवीं किया और मुंबई के  IHM  (होटल मैनेजमेंट ) में मेरा सेलेक्शन हो गया। मुंबई में हॉस्टल में आने के बाद मेरी नशे की आदत और बढ़ गयी। मैं एक लेक्चर अटेंड करता और नशे की तलब लग जाती, हॉस्टल में आकर इंजेक्शन लेता। पर एक दिन मैं सो कर ही नहीं उठ सका। आँखें खोलीं तो लगा आँखों के आगे पटाखे छूट रहे हैं, लाल-पीली रौशनी। बड़ी मुश्किल से उठा और मुझे लगा 'मेरे साथ कुछ भी ठीक  नहीं है,अब और नहीं,इन सबसे निकलना होगा' मैंने माँ को स्काइप पर मैसेज भेज 'मम्मा, आयम इन डीप ट्रबल, आई नीड योर हेल्प' संयोग से माँ भी ऑनलाइन थीं और उन्होंने टाइप  किया 'हाँ, बोलो बेटा " ये 'बोलो बेटा' पढ़कर मैं फूट फूट कर रोने लगा . माँ  ने तुरंत कॉल किया और अच्छी  बात ये रही कि माँ  मेरी सारी  बात सुनकर हिस्टिरिकल नहीं हुईं, चीखी-चिल्लाई नहीं। मुझे कोसा  नहीं, ये नहीं कहा,"ऐसा तुम कैसे कर सकते हो?' उन्होंने शान्ति से मेरी पूरी बात सुनी। मेरा धैर्य बंधाया। दो दिन बाद ही वे दुबई से मुंबई आयी। इस रिहैब सेंटर का पता लगाया और मुझे यहाँ भर्ती कर दिया। पिछले सोलह महीने से मैं यहाँ हूँ। पिछले कई महीने से मैंने बियर तक नहीं पी है। अब मैं बिलकुल स्वस्थ हूँ। मुझे यहाँ से छुटटी  मिल सकती है, पर मुझे यहाँ अच्छा लगता है। यहाँ आकर पता चला बिना ड्रग लिए, बिना कोई नशा किये भी खुश रहा जा सकता है। मैं ओबेराय होटल से एक कोर्स करने वाला हूँ और फिर बिना किसी नशा के नयी ज़िन्दगी शुरू करूँगा।

जावेद (22 वर्ष )

मैं देहरादून के एक बहुत ही महंगे स्कूल में पढ़ा .अच्छे नंबर से पास हुआ और दिल्ली के  'सेंट स्टीफेंस' जैसे प्रतिष्ठित कॉलेज में एडमिशन लिया । वहां पहले से ही मेरे स्कूल के सीनियर्स थे जो देहरादून में मेरे 'हॉस्टल  मेट्स' थे . उनलोगों ने मुझे अपने ग्रुप में शामिल कर लिया .अपने साथ बड़े बड़े राजनीतिज्ञों और मंत्रियों के घर पार्टियों में ले जाने लगे। वहाँ उनके बच्चों के साथ  वे लोग भी ड्रग्स लेते थे . फिर मेरे हाथ पैकेट्स भिजवाने लगे, कहते 'ये सीधा-साधा लड़का है, इस पर कोई शक नहीं करेगा।' मैं भी अपने सीनियर्स का काम करके खुश रहता था। धीरे धीरे मैं भी ड्रग्स लेने लगा और मैं 'ड्रग पेडलर' से 'ड्रग कंज्यूमर' और फिर 'ड्रग  एडिक्ट' बन गया। Rave Parties में जाने लगा और एक बार पुलिस की रेड में पकड़ा गया। मेरे मम्मी- डैडी   को खबर की गयी और मुझे कॉलेज से निकाल दिया गया। डैडी प्रिंसिपल से मिले, मुझसे एक बात  नहीं की और मम्मी के हाथ में टिकट रख दिया, "तुम्हे इसके साथ आना है, अकेले आना है, जो करना है करो। मुझे अब इस से कोई मतलब नहीं।" मैं अपने मम्मी- डैडी का इकलौता बेटा हूँ। मेरे कोई भाई-बहन नहीं हैं। जाहिर है डैडी  को मुझसे बहुत उम्मीदें थीं। उन्होंने मुझे दुनिया का बेस्ट दिया। पर मैंने उन्हें निराश किया .
इन सब बातों से मुझे इतना बड़ा झटका लगा कि मैं डिप्रेशन में चला गया। सात हफ़्तों तक मैं अपने कमरे से बाहर  नहीं निकला , न कुछ खाता -पीता था न किसी से बात करता था। मेरा वजन 35 किलो हो गया था। इतना कमजोर हो गया था कि मैं चल नहीं पाता  था। मेरा हाल सुनकर मेरी एक कजिन यू एस से आयी और उसने इस सेंटर  का पता लगाया . और मुझे यहाँ एडमिट कर दिया, यहाँ मैं व्हील चेयर पर आया था। अब मैं बिलकुल स्वस्थ हूँ। सारा नशा छोड़ दिया है। अब  धीरे धीरे हमें आम लोगो में घुलने-मिलने का मौका दिया जा रहा है। जल्द ही यहाँ से निकल कर मैं क़ानून  की पढ़ाई करूँगा और नशे के खिलाफ सख्त कानून बनाने पर जोर दूंगा  ताकि कोई जीवन बर्बाद न हो। 

धीरज (48 वर्ष ) 

मेरा बहुत बड़ा पारिवारिक बिजनेस है। जिसे मैं और मुझसे तीन वर्ष बड़े भाई मिल कर संभालते थे। दो साल पहले उनकी अचानक मृत्यु हो गयी। वे भाई से ज्यादा मेरे लिए दोस्त सामान थे। फिर भाभी ने अपना हिस्सा लेकर बिजनेस का बंटवारा कर दिया। अकेले बिजनेस संभालने में भी परेशानी होने लगी और मैंने शराब का सहारा ले लिया। मैं बेड  टी की जगह आधी बोतल व्हिस्की पीता। मीटिंग के दौरान भी शर्ट के अन्दर पिंट छुपा कर रखता और बीच बीच में बाथरूम में जाकर पीता। चौबीसों घंटे पीने लगा था। घर पर सब मुझसे दूर हो गए थे,मेरा सोलह साल का बेटा  मेरी बारह साल  की बेटी मेरे पास भी नहीं आते। बीवी भी दूर ही रहती . ये सब देख कर मैं और दुखी होता फिर और पीता। ऑफिस में भी सब पीठ पीछे मजाक उड़ाते और मैंने एक दिन फैसला किया इन सबसे उबरना होगा। पिछले छह महीने से इस सेंटर में हूँ। शराब को हाथ भी नहीं लगाता।  अभी एक हफ्ते के लिए घर गया था। बीवी बच्चे सब मेरे साथ एक्स्ट्रा स्वीट थे। मुझे पता था,वे जानबूझ कर ऐसी कोशिश कर रहे हैं पर मैं ये अटेंशन एन्जॉय कर रहा था। अब जल्द ही हमेशा के लिए घर लौट जाऊँगा और अपना बिजनेस संभालूँगा। 

जब 'अंकुर' ने उन सबकी कहानी सुनायी तो मैंने कहा, "मुझे पहले बताया  होता तो मैं भी उनसे बात करती और पूछती कि  आखिर उन्हें ड्रग  या शराब पीने के बाद क्या महसूस होता था, कैसी ख़ुशी मिलती थी कि  वे बार बार फिर उसकी तरफ  कदम बढाते। " 
बेटे ने बहुत गंभीरता से कहा, "शायद तुमसे वे लोग बाते नहीं करते क्यूंकि निशांत और जावेद कह रहे थे, 'पता नहीं तुम्हारी माँ क्या सोचेगी हमारे विषय में ' तो मैंने उनसे कहा 'नहीं, मेरी माँ एक राईटर है और बहुत कूल है।' (ये बच्चे लोग मेरे लिए हमेशा ये जुमला इस्तेमाल करते हैं कि ' तुम तो बहुत कूल हो ' कभी कभी लगता है कहीं ये लोग ऐसा तो नहीं सोच लेते कि माँ सबकुछ एक्सेप्ट कर लेगी। पर कोई बात नहीं तब मैं अपने 'अनकूल बिहेवियर' की झलक दे दूंगी उन्हें। वैसे भी यदा कदा दे ही देती हूँ ) 

पर अंकुर के मन में भी ये सवाल आया था और उसके पूछने पर उनलोगों ने कहा था, कि "उन्हें लगता था, ड्रग्स लेने के बाद वे ज्यादा जिंदादिल हो जाते हैं, उनके फ्रेंड्स को उनके साथ रहना अच्छा लगता है .अगर ड्रग्स नहीं लेंगे तो उनके दोस्त उन्हें पसंद नहीं करेंगे, उनसे दोस्ती नहीं बढ़ाएंगे । ये भीतर की insecurity और low self esteem  है  जो उन्हें ड्रग्स  को लेने उकसाती और फिर तो ड्रग्स  ही उन्हें और ड्रग्स  के लिए मजबूर करता ".. उस उन्नीस साल के लड़के की बात  सुनकर मैं हैरान थी। 
उसने आगे कहा था, "सबसे पहले जरूरत है यह स्वीकार करने की कि  आपके साथ सबकुछ ठीक नहीं है, आप नॉर्मल नहीं हैं। आप sick  है और आपको मदद की जरूरत है। हमें पता ही नहीं था कि बिना ड्रग  लिए भी खुश रहा जा सकता है। अब जैसे मैं  तुमसे बात कर रहा हूँ। तुम मुझे जज नहीं कर रहे। मेरी बातें सुन रहे हो। इस तरह हमें बिना जज किये हमारे बारे में बिना कोई राय बनाए भी लोग हमसे संवाद कर सकते हैं हम मेनस्ट्रीम के लोगो के बीच भी रह सकते हैं "

इन तीनो की कहानी  सुन बहुत ही अच्छा लगा। ज़िन्दगी चाहे रसातल में चली जाए पर बस एक हिम्मत की जरूरत होती है। अगर कोशिश की जाए तो सिर्फ उठ कर खड़ा ही नहीं हुआ जा सकता, सरपट दौड़ भी लगाई जा सकती है। किसी के साथ भी अगर बहुत बुरा हो गया होता है तो उसके बाद उस से ज्यादा बुरा नहीं हो सकता, सिर्फ अच्छा ही हो सकता है। 
हालांकि दोनों बच्चों के मन में एक मलाल भी है। निशांत के पैरेंट्स उसे दुबई बुला रहे हैं कि  वहां से कैटरिंग का कोई कोर्स कर ले। पर वो कहता है मेरी दसवी और बारहवी की परीक्षा के समय मेरे पैरेंट्स साथ नहीं थे तो अब मैं क्यूँ उनके  पास जाऊं? मैं भारत में ही रहकर कोर्स करूँगा। 
जावेद के पिता अब तक उस से बात नहीं करते। जावेद का कहना  है वो ये तमन्ना नहीं रखता कि  कुछ ऐसा बन जाए कि उसके पिता उस पर गर्व कर सकेँ । बस इतनी सी उसकी ख्वाइश है कि  कुछ ऐसा कर सके, ज़िन्दगी में कि  उसके पिता को कोई शर्मिंदगी न हो और वे उसका अस्तित्व  स्वीकार कर सकें .

जिस तरह से उन दोनों लडको ने इतने स्नेह से अंकुर को गले लगा कर विदा कहा था कि सोच कर मेरा मन भर आया। दोनों लड़कों के अन्दर एक छटपटाहट सी है कि समाज उन्हें स्वीकार कर ले। दुआ है अब उनके जीवन में अब बस अच्छा ही अच्छा हो .

(सहयात्रियों के नाम बदल दिए हैं )

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