मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

फुलवारी और छत वाली पिकनिक


हर साल 31 दिसंबर को कोई न कोई बचपन के उन भूले-बिसरे दिनों की याद दिला ही देता है और हम सोचते हैं ,हम भी लिख लिख कर उन दिनों को जरूर याद करेंगे {पढ़ना आपकी मजबूरी :)} . उम्र कितनी भी हो जाए पर बचपन के वे चमकीले दिन अपनी चमक नहीं खोते और यादों की गठरी में नगीने से चमकते रहते हैं.
 

सतीश चन्द्र सत्यार्थी ने जब फेसबुक पर ये लिखा ,"बचपन में गांव में एक जनवरी के दिन हम बच्चा पार्टी मिलके पिकनिक करते थे. कोई अपने घर से आटा लाता था, कोई आलू, कोई तेल-मसाले. और गाँव से बाहर मैदान वगैरह में जाके ईंट वगैरह जोड़कर चूल्हा बनाया जाता था और खाना बनता था - पूरी, परांठे, आलूदम, खीर. किसी को बनाना तो आता नहीं था तो खाना अक्सर जल जाता या कच्चा रह जाता था. लेकिन उस दिन हम बच्चा पार्टी एकदम प्राउड, सेल्फ-डिपेंडेंट टाइप रहते.

सबके घर में उ
ससे बेहतर खाना बना होता उस दिन लेकिन हमलोग घरवालों के सामने एकदम चौड़े रहते कि आज घर में नहीं खायेंगे. हमलोगों का खुद का मस्त खाना बन रहा है. घरवाले और आस-पड़ोस वाले भी मजे लेते कि हमलोगों को भी थोडा चखाओ भई. लेकिन जिसने पिकनिक में आलू-आटा-नगद या कोई और सामान न दिया हो या खाना बनाने, बर्तन धोने में योगदान न दिया हो उसको भोजन स्थल के 500 मीटर के दायरे में फटकने की भी इजाजत नहीं होती थी.

पिकनिक ख़त्म होने के बाद कालिख से काला हुआ बर्तन लेकर घर आने पर गालियों और डंडे की भरपूर संभावना होती थी. उस बर्तन को चुपके से रसोई के गंदे बर्तनों के ढेर में सरका देना कोई हंसी-खेल का काम नहीं था. उसके लिए हाई लेवल की प्रतिभा और कंसेन्ट्रेशन चाहिए होता है, गुरु
.
 


इसे पढ़कर ,इसी से मिलती जुलती याद मुझे भी हो आयी .

उस साल नव वर्ष पर ,हम ढेर सारे भाई-बहन गाँव में  थे. और हमने पहली जनवरी को पिकनिक मनाने की सोची. .मैं और नेतरहाट में पढने वाले राजू भैया ही सबसे बड़े थे ,जरूर हम दोनों में से ही किसी का आइडिया रहा होगा. मैं चाहूँ तो सारा क्रेडिट खुद ले सकती हूँ क्यूंकि राजू भैया को तो ये सब याद भी नहीं होगा  (शायद ) . पर मैं ईमानदार हूँ, ऐसा करुँगी नहीं. :) हमने ईया-बाबा के सामने अपनी इच्छा रखी . और हमारे दादा-दादी हम बच्चों की हर इच्छा पूरी करते थे .(तब इच्छाएं भी तो कितनी  मासूम होती थीं ) .घर के पास ही एक नयी फुलवारी बनी थी, जिसमें छोटे-छोटे  आम-लीची -अमरुद-महुए-आंवले  के कलम (पौधे ) लगे थे . हम रोज शाम को पौधों को देखने  जाते कि वे कितने बड़े हो गए हैं . उस फुलवारी में ही पिकनिक मनाने की इजाज़त मिल गयी . हमने गोभी-मटर वाली खिचड़ी बनाने की सोची. चाची जिन्हें हम छोटी मम्मी कहते हैं ने बनाने की विधि बता दी  और सारा सामान दे दिया. पास में रहने वाली दो बहनें बेबी-डेज़ी पूरे समय हमारे साथ रहती थीं ,सो वे भी शामिल हो गयीं . बाहरी बरामदे में...अहाते में  गाय-बैलों की देखभाल करने वाले 'प्रसाद काका' और 'शालिक काका' के बच्चे हमेशा जमे रहते और हमारा कोई भी काम दौड़ कर पूरा किया करते थे .वे भी साथ हो लिए. पन्द्र-सोलह बच्चों का काफिला, रसद, बर्तन, जलावन की लकडियाँ, चटाई-चादर  सब लेकर फुलवारी की तरफ रवाना हो गया . घर पर कह दिया गया 'हमारा खाना नहीं बनेगा' .  


हम सबकी औसत उम्र ग्यारह-बारह साल की थी. किसी ने रसोई में कभी कदम नहीं रखा था .पर आत्मविश्वास से लबरेज़ थे  कि 'हम सब कर लेंगे' . ईंटें  लाकर चूल्हा बनाया गया .पर लकड़ी तो सुलगे ही न .सबने कोशिश कर ली, फूंक मार-मार कर ,आँखें धुएं से भर जाएँ पर एक लपट न उठे . आखिर पास के खेतों में काम कर रहे  बिजली या फूलदेव किसी ने तो आकर मदद की और लकडियाँ जल उठीं . बड़ा सा पीतल का बर्तन (जिस पर मिटटी  का लेप लगा था ताकि बर्तन न जले ) चढ़ा दिया गया . (इस बार मेरा बेटा गाँव गया था तो इतने बड़े बर्तन  देखकर हैरान रह गया . बोला, "ऐसे बर्तन तो caterers  के पास होते हैं ". आज के बच्चे हलवाई शब्द भी नहीं जानते ) 

आस-पास तमाशा देखने वाले छोटे छोटे बच्चों की भीड़ खड़ी थी . चाची के के बताये निर्देशानुसार खिचड़ी पकती रही. (इतना याद तो नहीं, पर जरूर बनाने में फूलदेव  ने मदद की होगी ) बीच बीच में आपसी झगडा , रूठना-मनाना ...फिर ये कहते घर की तरफ चले जाना कि 'हमें नहीं मनाना पिकनिक ' और फिर आधे रास्ते से ही लौट आना. सब चलता रहा . जब खिचड़ी पक गयी तो एक मुश्किल  हुई.. हमें घेर कर खड़े छोटे-छोटे दर्शकों  के बीच बैठकर सिर्फ हमलोग कैसे खा लें , इसलिए उन्हें भी बिठाया गया और केले के पत्ते पर खिचड़ी परोसी जाने लगी. अब खिचड़ी अच्छी  बनी थी या  बच्चे भूखे थे ,थोड़ी देर में ही हमें डर लगने लगा कि खिचड़ी कम न पड़ जाए . मैं और राजू भैया परसने का काम कर रहे थे और आखिर में हुआ ये कि हम दोनों के लिए खिचड़ी नहीं बची. तब तक दिन के चार बज चुके थे . हमारा काफिला सरो सामान के साथ वापस लौट चला. मैंने  और भैया ने तय किया कि 'हमने नहीं खाया है', ये घर पर नहीं बतायेंगे . बर्तन आँगन में रखा गया और  बाकी बच्चे बाहर खेलने लगे. तय किया था , 'नहीं बताएँगे' पर भूख तो भूख होती है, हम दोनों किचन में जाकर डब्बे टटोलने लगे . छोटी मम्मी  की अनुभवी आँखें  समझ गयीं और उन्होंने पूछ लिया ,"भूख लगी है ?" हम तो चुप लगा गए पर खेलने से ब्रेक लेकर पानी पीने आयी संध्या ने जोर से बोल दिया, "इनलोगों के लिए तो खिचड़ी बची ही नहीं .इनलोगों ने सबको खिला दिया...और वो गाँव  के बच्चों के नाम गिनाने लगी कि कौन कौन खड़ा होकर  देख रहा था ." उन दिनों गाँव में गैस तो थी नहीं , और काकी शाम का खाना  बनाने के लिए .मिट्टी का चूल्हा और रसोई मिटटी से लीप रही थीं.  हमारे लिए कुछ बनाया नहीं जा सकता था सो हमें दही -चूड़ा (पोहा )  का भोग लगाना पड़ा. जो हम दोनों को ही बहुत पसंद था .


इसके बाद गाँव में हर साल पिकनिक मनाने का चलन शुरू हो गया . जब भी मैं गाँव जाती तो पिकनिक के किस्से सुनती. अब लडकियां  बड़ी हो रहीं थीं और खाना बनाना सीख गयी थीं .अब खिचड़ी की जगह खीर-पूरी-सब्जी या पुलाव-आलूदम बनता . शुरू में सारे बच्चे मिलकर पिकनिक  मनाते थे. फिर लड़के लड़कियों के अलग ग्रुप हो  गए. एक बार दोनों ग्रुप आस-पास ही पिकनिक मना रहे थे. और लड़कियों ने जाकर लड़कों की कुछ मदद कर दी. पास से गुजरते किसी बुजुर्ग ने देख लिया ,अब उनके पेट में दर्द कैसे न हो...उन्होंने गाँव  में जाकर हंगामा कर  दिया .एकाध  माता-पिता अपनी बेटियों को पिकनिक के बीच से उठा कर ले गए. फिर वे घर के आस-पास अपनी नज़रों के  सामने ही पिकनिक की इजाज़त देने लगे . फिर भी पहली जनवरी को पिकनिक मनाना बंद नहीं हुआ. (शायद अब भी मनाया जाता हो...इस बार घर पर फोन करुँगी तो पूछूंगी, )

मेरी पिकनिक तो फुलवारी से अब छत पर शिफ्ट हो गयी थी. महल्ले के सारे बच्चे मिलकर छत पर लकड़ी के बुरादे वाले चूल्हे पर गोभी मटर वाली खिचड़ी बनाते. ज्यादातर काम पड़ोस वाली प्रतिमा दी ही करतीं. जो हम सबसे उम्र में बड़ी थीं, पर हमेशा हमारे साथ खेलतीं. हम सब तो उबले आलू छीलने ,पानी लाने और सामान ढोने जैसे काम ही करते. रूठना-मनाना यहाँ भी बहुत होता. ज्यादातर इसलिए कि 'हमें कोई काम नहीं करने दिया' :) .

अब तो समय के साथ पिकनिक का स्वरुप ही बदल गया है . बड़े शहरों में तो पिकनिक का मतलब...सी-बीच  या गार्डेन में रेडीमेड या घर से बना  कर लाये पैक्ड खाने के साथ म्यूजिक-डांस ,गेम्स यही सब होता है. या फिर barbeque . बुरा यह भी नहीं. दौड़ती भागती ज़िन्दगी से कुछ पल चुरा कर सबके साथ हंस बोल लें ,इतना भी काफी है .

आप सब की ज़िन्दगी में भी ऐसे खुशियों भरे पल की भरमार हो...आगामी वर्ष सारी इच्छाएं पूरी करे और निष्कंटक गुजरे.

नव वर्ष की अनंत शुभकामनाएं !!

सोमवार, 23 दिसंबर 2013

जीना इसी का नाम है

 ये पोस्ट सत्रह दिसंबर को ही लिखनी थी. समय पर किया काम ही अच्छा लगता है पर अन्यान्य कारणों से नहीं हो  पाया. पर मन में था तो हफ्ते भर बाद ही सही.  
सोलह दिसंबर का दिन मेरे लिए दो वजहों से रोज से बहुत अलग था.
एक तो निर्भया के साथ पिछले साल इसी दिन वह हादसा हुआ था. टी.वी.,अखबार, सोशल नेटवर्क सब जगह  उस घटना की ही चर्चा थी कि कैसे निर्भया अपने शरीर में शक्ति  के आखिरी कतरे तक जी जान से लड़ी थी .आत्मसमर्पण नहीं किया था ,भले ही उसके शरीर की दुर्दशा कर दी गयी और भयंकर कष्ट झेलकर आखिर वह इस दुनिया से विदा हो गयी . निर्भया  के इस बलिदान से ,उस समय जो गुस्से का जलजला उठा वो युवाओं में विरोध की ताकत दे गया. हर उम्र के लोगों ने पानी की मार झेली ,पुलिस के डंडे खाए और विरोध जारी रखा .आखिर क़ानून को सख्त बनाना पड़ा. निर्भया तो चली गयी पर देश की सारी लड़कियों में साहस का एक बीज जरूर प्रतिरोपित कर गयी . क्यूंकि वह आखिरी दम तक लड़ी थी , अपने ऊपर हो रहे अत्याचार का पुरजोर विरोध किया था .और जब होश आया तो उसने ये नहीं कहा कि वो 'शर्म से मर जाना चाहती है ' उसने कहा,'वो जीना चाहती है '

एक लड़की के इस साहस से लोगों को बहुत बल मिला. कई लोग कहते हैं , निर्भया के साथ हुए इस हादसे के बाद रेप की संख्या बढ़ गयी है. ऐसी  बहुत सारी खबरे मिलने लगी हैं. जबकि हुआ ये है कि  लडकियां अब शिकायत दर्ज करवाने लगी हैं, उनके माता-पिता ,रिश्तेदार भी उसे चुप रहने की सलाह देने की जगह ,पुलिस में जाकर रिपोर्ट करवा रहे हैं . क्यूंकि अब यह शर्म से मर जाने की बात नहीं है बल्कि जीकर अपराधी को सजा दिलवाना ज्यादा महत्वपूर्ण है.
सिर्फ रेप ही नहीं, छेडछाड , अनचाहे स्पर्श का भी विरोध किया जा रहा है .

वरना अब तक होता ये आया है कि ऐसी विकृत मानसिकता वाले  लोग समाज में  विभिन्न रिश्तों का लबादा ओढ़ कर बचते आ रहे थे/हैं. हमारे समाज की शायद ही कोई ऐसी लड़की हो जिसे भीड़-भाड़ में ,बस, ट्रेन या अपने जाने-पहचाने लोगों से कभी किसी अनचाहे स्पर्श का सामना न करना पड़ा हो. हमारे पड़ोस की एक लड़की थी , उसे एक बूढ़े मास्टर पढ़ाने आते थे . उसकी माँ आवाजें लगाती रहती और वो छत पर हमारे साथ बैठी रहती, बड़ी अनिच्छा से पढ़ने जाती. बताती कि माता-पिता मास्टर साहब (?) के पैर  छूकर प्रणाम करने को कहते और मास्टर साहब इस तरह से उसकी पीठ पर हाथ फेर कर आशीर्वाद देते कि वो वितृष्णा से भर  जाती. पर अपने माता-पिता से वो कुछ कह नहीं पाती, पैर छूने से मना करती थी तो उसे डांट ही पड़ती . पढने से हट कर सारा ध्यान इसमें लगा होता कि कैसे वह जल्दी से पैर छूकर भागे कि वे उसे आशीर्वाद न दे  सकें .
एक फ्रेंड है ,उसकी शादी के कुछ ही दिनों बाद ससुराल में एक पूजा हुई , पूजा पर वही पति के साथ  बैठी थी. पर खानदानी  पुजारी बार बार बहाने से उसका हाथ स्पर्श करे.

वो खानदानी पुजारी और ये घर की नयी बहू , कुछ कह भी न सके.

ऐसी या इस से भयावह जाने कितनी कहानियां हमारे आस-पास बिखरी पड़ी हैं. पर अब लगता है, इनमे कमी आएगी. अब लडकियां शर्म-संकोच छोड़कर विरोध कर रही हैं. और अच्छी बात ये है कि उनका विरोध अनसुना नहीं किया जा रहा . लोग ध्यान देने लगे हैं और उनके विरोध में शामिल भी हो रहे हैं. माएं अब लड़कियों पर ज्यादा ध्यान देने लगी हैं . उन्हें कम उम्र में ही आगाह करने लगी हैं, इस से अच्छी बात ये हुई है कि ऐसी किसी घटना का सामना करना पड़ा तो लड़की  उसी वक़्त विरोध कर सकती हैं क्यूंकि उसे पता है ,अब उसकी बात सुनी जायेगी और उसके पैरेंट्स उसके साथ होंगें. मिडिया में किसी बात का भी बहुत शोर होता है , चौबीसों घंटे वही चर्चा . कभी-कभी परिवार के साथ न्यूज़ चैनल्स देखना मुश्किल हो जाता है. चाहे कितना भी कम टी.वी. ऑन करें पर इन विषयों से बचना मुश्किल होता है. पर एक अच्छी बात ये होती है कि ये शब्द सुनते ही अब नज़रें झुकाने ,वहाँ से चले जाने का प्रचलन ख़त्म हो गया है. अब ये  सामान्य से शब्द लगने लगे हैं.  इन विषयों पर बात होनी जरूरी थी. शर्म -संकोच की दीवार टूटनी जरूरी थी. जब ऐसी विकृतियाँ समाज में हैं तो उसपर बात क्यूँ  न की जाए, उनसे बचने के प्रयास और बच्चियों को आगाह क्यूँ न किया जाए.

और इन सब विषयों पर यूँ सार्वजनिक रूप से चर्चा होने पर अब ऐसी विकृत मानसिकता वाले भी
 संभल गए हैं. अभी शोभना चौरे जी ने अपनी पोस्ट में जिक्र किया है कि उनकी भतीजी किसी शख्स की चर्चा कर रही थीं, जिनकी आदत थी लड़कियों को गले लगाकर अभिवादन करने की .और हर लड़की अपने सिक्स्थ सेन्स से ऐसे स्पर्श को पहचान जाती है. वे अब सबको दूर से नमस्ते कर अभिवादन कर रहे थे . अच्छा है ऐसे लोग संभल जाएँ, वरना अब तो उनका बचना मुश्किल ही है. और सबकी सोच में ये परिवर्तन आया है ,निर्भया के बलिदान से . अपनी ज़िन्दगी देकर , कई जिंदगियां बचा लीं  उसने. 

कई बार ,ऊपर से सब ठीक लगता है...लड़की सामान्य लगती है. पर इस तरह की घटनाएं उनके मस्तिष्क पर ऐसा गहरा असर डालती हैं कि वे ताजिंदगी एक सामान्य जीवन नहीं  बिता पातीं. मनोवैज्ञानिकों के पास कितने ही ऐसे केस आते हैं , जहाँ माता-पिता को समस्या कुछ और दिखती है...और उनके मन के भीतरी तह में छुपा कारण ये होता है.
बस आशा और प्रार्थना है कि निर्भया का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा...और हर लड़की और उसके माता-पिता अब एक्स्ट्रा सजग रहेंगे .


एक और वजह से ये दिन और दिनों से अलग था ..डा. कौसर जो अचानक ही हमें छोडकर चले  गए . १६ दिसंबर को उनका जन्मदिन था . 15 दिसंबर की रात  बारह बजे से ही डा. कौसर को याद करने वालों के मैसेज से  उनकी पूरी FB wall भरी हुई थी. इतनी आजीज़ी  से सब याद कर रहे थे . कोई कह रहा था ..'प्लीज़ कम बैक सर..' कोई  कह रहा था..." अब अमुक फंक्शन आपकी शेरो शायरी के बिना कैसे पूरा होगा ' या 'अमुक फंक्शन  में सब होंगे बस फंक्शन की जान आप नहीं...' कोई  जैसे एक जिद के साथ कह रहा था," हम आपका बर्थडे हर बार की तरह ही मिलकर मनाएंगे ..केक काटेंगे...पार्टी करेंगे ...आप कहीं नहीं गए हैं, हमारे बीच  ही हैं. " " सबसे टचिंग था उनकी पत्नी भावना का  मैसेज 
Happy birthday sweetheart.waiting to b together again...... " और उनकी हाँ में हाँ भी नहीं मिलाया जा सकता था .

अपने जाने के बाद इतना बड़ा खालीपन छोड़ गए वो कि सब हर पल  उनकी कमी महसूस  करते है.  जानने वाले ही नहीं अनजान  लोग भी उनके जीवन से कोई सीख ग्रहण करें,ये  बहुत बड़ी बात है. मेरे एक मित्र जो महीनो गायब रहते हैं फिर अचानक प्रकट होकर मेरी कोई पोस्ट डिस्कस करने लगते हैं. डा. कौसर वाली पोस्ट पढ़कर कहने लगे . "मुझे भी डा. कौसर जैसा बनना है ' ..मुझमें बहुत सारी  खामियां हैं...मुझे वो सब दूर करनी हैं...मुझे जल्दी गुस्सा  नहीं होना..लोगों के अहसास का ध्यान रखना  है, लोगों को खुश रखना  है ...इतना तो मैं कर ही सकता हूँ, ...इस से मेरे आस-पास वालों की ज़िंदगी आसान हो जायेगी ."
एक छोटी सी इस पोस्ट पढ़कर ही जब लोग इतनी प्रेरणा ले रहे हैं तो उनके साथ रहने वाले...उनसे मिलने जुलने वाले....कितने प्रेरित होते होंगे .

ऐसे लोग दुनिया में थोड़े दिन गुजार कर ही अपना जीना सार्थक कर जाते हैं, लोगों की ज़िंदगी बदल जाते हैं...ईश्वर ऐसे लोगों को धरती पर भेजता रहे पर फिर इतनी जल्दी वापस न बुलाये...:(

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

संवेदनहीनता की परकाष्ठा

मिशेल अपने पिता के साथ (इनसेट में स्वर्गीय डा. मयूर मेहता )
कुछ दिनों से पोस्ट  लिखने से खुद को जबरन रोक रखा था. एक दूसरे  कार्य को अंजाम देना था (लिखने का ही ) पर अफ़सोस की बात  वो भी नहीं कर रही (नहीं हो पा रहा, ऐसा क्यूँ लिखूं,मैं कर ही नहीं रही. ) .एक दो विषय , उथल-पुथल मचा रहे थे,दिमाग में.  सोचा लिख ही डालूं , और एक निर्णय के साथ कंप्यूटर ऑन किया .आदतवश पहले फेसबुक पर नज़र डाली और सुबह ही अखबार में पढी एक खबर शेयर करने का मन हो आया. सोचा, उस खबर पर फेसबुक का लिंक देकर पोस्ट लिखने में जुट जाउंगी. वो खबर कुछ यूँ थी :
 
"तिरपन वर्षीय 'डॉक्टर मयूर मेहता' अपने स्कूटर से शाम को वापस घर जा रहे थे . उनका स्कूटर पास से गुजरती एक मोटरसाइकिल में जरा सा टच हुआ और बाइक पर सवार लड़के ,उन्हें भला-बुरा कहने लगे. इन्होने भी जबाब दिया. झड़प हुई और उनमें से एक लड़के ने चाक़ू निकाल कर उनके पैर पर वार कर दिया. खून बहने लगा . वे गिर गए पर फिर से संभल कर स्कूटर पर सवार हो चल पड़े. वे  लड़के भाग गए. पर उनके पैर से खून बहना बंद नहीं हुआ था और कुछ दूर जाने के बाद वे स्कूटर से सड़क के किनारे गिर पड़े .लोगों की भीड़ जमा हो गयी . पर सब बस देखते रहे कोई उनकी सहायता करने नहीं आया. दूर से उन्नीस वर्षीया एक लड़की मिशेल ये सब देख रही थी. उसने अपनी स्कूटी पार्क की और उन सज्जन की सहायता के लिए आयी . उनके ज़ख्म पर अपना स्कार्फ बाँधा , ऑटो रिक्शा रोकने की कोशिश करने लगी. पर कोई रिक्शा नहीं रुक रहा था . इस बीच करीब ४०-५० लोगों की भीड़ जमा हो गयी थी. पर कोई आगे नहीं बढ़ रहा था . आखिर उस लड़की ने गुस्से में पत्थर से एक ऑटो का शीशा तोड़ दिया . ऑटो रिक्शा को रुकना पड़ा. यह देख, थोड़े लोग भी सक्रिय हुए. डॉक्टर साहब को उठा कर  ऑटो में डालने में  और अस्पताल ले जाने में उस लड़की की मदद की . पर इन सबमें कीमती समय नष्ट हो चुका था .अत्यधिक खून बह जाने की वजह से डॉक्टर को बचाया नहीं जा सका. मिशेल  ने कोशिश तो की पर लोगों की संवेदनहीनता ने उसकी कोशिश कामयाब नहीं होने दी "
 (पूरी खबर यहाँ पढ़ी जा सकती है )  

इस खबर को शेयर करते हुए मैंने यह भी लिखा था क्या तमाशा देखने वाले ४०-५० लोग अपराधी नहीं है ? वे लोग किसी इन्सान को यूँ सड़क पर धीरे धीरे मौत की तरफ बढ़ते देखते रहे और तमाशबीन  बने रहे. इस पर कुछ ऐसी प्रतिक्रियाएं आयीं जो कुछ सोचने पर मजबूर कर गयीं. लोगों का कहना है कि "वे लोग नहीं ये सिस्टम दोषी है. हमारी आदत होती है कि हम सिस्टम से नहीं  लड़ते और आसानी से मासूम लोगों को दोष दे देते हैं. जो संयोगवश  घटनास्थल पर होते हैं .उन्हें दोष देना आसान होता है क्यूंकि वे पहले ही अपराधबोध से पीड़ित होते हैं और दोष दिए जाने पर प्रतिकार नहीं कर पाते. हम सिस्टम को दोष नहीं देते क्यूंकि सिस्टम को दोषी कहेंगे तो हमें उनसे लड़ना  पड़ेगा, क़ानून बदलना पड़ेगा आदि आदि."

उनकी बात अपनी जगह सही है . लोग इसलिए आगे नहीं आते क्यूंकि पुलिस , अदालत के चक्कर  में वे पड़ना नहीं चाहते. पर यह सब तो बाद की बात है. आप अपनी आँखों के सामने किसी को यूँ मरता हुआ देख कैसे सकते हैं ? क्या आप इंसान हैं ? अगर हैं तो किस तरह के इन्सान हैं ? आपसे तो जानवर अच्छे  जो अपने घायल साथी के लिए कुछ नहीं कर पाते पर  संवेदना से उसके घाव तो चाटते  हैं.

सड़क के किनारे  कोई जख्मी पड़ा होता है लोग मुहं फेर सर्र से निकल जाते हैं. इन्सानियत पर गहरा धब्बा यह भी है.....पर यह तो संवेदनहीनता की परकाष्ठा है कि घेरा बना कर  समूह में खड़े हैं और किसी घायल का खून बहता देख रहे हैं. यहाँ  तो अकेले किसी पर कोई दोषारोपण नहीं होने वाला था .चार लोग मिलकर उस घायल को उठाते, दूसरे चार लोग जबरदस्ती कोई कार या ऑटो रुकवाते . एक कोई आगे बढ़ता तो दुसरे लोग साथ आ ही जाते . आखिर उस लड़की ने कोशिश की तो लोग आगे आये  ही. पर किसी एक इंसान का आगे बढना बहुत मुश्किल हैं. हम सब इतने खुदगर्ज हैं ,पुलिस अदालत की बात तो बाद में दिमाग में आयेगी .पहली चीज़ तो आएगी..कपडे खराब  हो जायेंगे ,गाड़ी गन्दी हो जायेगी.. घर पहुँचने  में देर हो जायेगी. अमुक की पार्टी में जाना है,शादी में जाना है...रात में इन चक्करों में देर हो गयी तो सुबह ऑफिस पहुंचना मुश्किल होगा, जरूरी मीटिंग छूट जायेगी...वगैरह ..वगैरह.

हमें क्या मतलब...वो हमारा कोई तो नहीं लगता .और इन सब बातों के लिए सिस्टम दोषी नहीं है. हमारी संवेदनाएं मर गयी हैं . खुद से आगे हम देखते ही नहीं. परले दर्जे के खुदगर्ज हैं हमलोग. तबतक इंतज़ार करते हैं जबतक कोई अपना जख्मी न हो. यही अपने  भाई-भाभी ,माता-पिता,चाचा-चाची हों तो समय,पैसा पास में होगा ,.पुलिस अदालत के चक्कर सब मंजूर होंगे. पर अनजान लोगों के लिए हम बिलकुल असंवेदनशील हो जाते हैं. कभी कभी तो लगता है...हम सब इतने  व्यक्तिवादी क्यूँ हैं ? क्या हमारे जीवन-दर्शन ही ऐसे हैं कि बस हम अपना ही सोचते हैं .
,सिस्टम को दोषी ठहरा देना और खुद हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना....यहाँ तक कि चुपचाप किसी को मरते देखते रहना .  वो लड़की मिशेल या ऐसे लोग जो सहायता के लिए आगे आते हैं ,वे भी इसी सिस्टम का ही हिस्सा हैं. पर उनके अन्दर संवेदनाएं कैसे जिंदा हैं ? वे सिस्टम का क्यूँ नहीं सोचते ?
 

अब सारी उम्मीद इसी युवा पीढ़ी से है. हमारी पीढ़ी तो स्वार्थियों की पीढ़ी है . बहुत लोग युवा पीढी की बहुत शिकायत करते हैं. उनपर तरह तरह के आरोप लगाए जाते हैं .पर मुझे इस पीढ़ी से बहुत उम्मीदें हैं. कम से कम  ये पीढ़ी मुखौटे लगाकर नहीं घूमती . मेरे आस -पास, मेरी बिल्डिंग , कॉलोनी, फ्रेंड्स, रिश्तेदारों के बच्चे जो अब युवा हैं . ब्लॉगजगत-फेसबुक पर सक्रिय युवा चेहरों के अन्दर बहुत संवेदनशीलता दिखती है और कुछ करने की चाह भी (मौक़ा मिलने  पर वे करते भी हैं ) .यह भी सही है ये पूरे समाज का एक बहुत छोटा सा हिस्सा हैं ,पर छोटा ही सही ,हैं तो ...कल ये हिस्सा बड़ा भी होगा .

हो सकता है ,ऐसा लगे मैं बहुत आशावादी हूँ , पर थोड़े से जो बदलाव दिख रहे हैं, उनकी बिना पर ही सोचती हूँ कि आनेवाला समय ,इतना रुखा ,इतना आत्मकेंद्रित नहीं होगा. वैसे सोच समझ कर तो ये खबर शेयर नहीं की .पर जब सोचती हूँ कि क्यूँ की ??तो यही लगता है...शायद अवचेतन मन में हो कि जो भी इसे पढ़े और उसके सामने कभी ऐसा कोई हादसा हो तो उसे  ये प्रकरण याद आ जाए और वो सहायता करने से पीछे न हटे.

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

साथ निभाने की जिम्मेवारी क्या सिर्फ एक पक्ष की है ??

तलाक /डिवोर्स जैसे शब्द लोगों को बहुत असहज कर जाते हैं. ये शब्द सुनते ही मस्तिष्क थोडा सजग, आँखें उत्सुक और कान चौकन्ने हो जाते हैं. जन्म-विवाह-मृत्यु की तरह इसे सामान्य रूप में नहीं लिया जाता. शब्द ही ऐसा है, दो लोग जो एक साथ जीने की तमन्ना  ले जीवन शुरू  करते हैं...सुख दुःख में साथ  निभाने का वायदा करते हैं अब एक दूसरे से अलग रहना चाहते हैं.
 
सैकड़ों साल पहले,हमारे समाज में  जब वैवाहिक संस्था का निर्माण हुआ था . आदिम जीवन पद्धति छोड़ कर दो लोगों ने साथ रहने का फैसला किया तब जीवन भर साथ निभाने की जिम्मेवारी दोनों पक्षों की रही होगी  .फिर धीरे धीरे पुरुष इस जिम्मेवारी से खुद को मुक्त करता गया और परिवार बनाए रखने  की जिम्मेवारी स्त्री के कंधे पर डाल दी गयी . शायद इसलिए भी कि स्त्री शारीरिक रूप से कमजोर रही है और आर्थिक रूप से पति पर निर्भर . श्रम वह भी पुरुषों से कम नहीं करती थी/है पर शिकार करके  लाना, खेतों में हल चलाना जैसे शारीरिक श्रम वाले कार्य पुरुष ही करते थे और वे खुद को श्रेष्ठ समझने लगे. एक पत्नी के रहते उन्होंने दूसरी स्त्री से विवाह करना शुरू कर दिया .जबकि ज़िन्दगी भर साथ निभाने का वायदा तो पहली पत्नी के साथ था ,लेकिन उन्होंने  आसानी से वो कसम तोड़ दी जबकि स्त्री ने आजीवन उसे निभाया .
 
हम अपनी पौराणिक कथाओं में पढ़ते रहे हैं ,"एक राजा की चार रानियाँ थीं " और इसे सहज रूप से स्वीकार करते रहे हैं. बचपन में पढ़ा, एक रुसी लेखिका का इंटरव्यू याद आ रहा है (जरूर धर्मयुग में ही पढ़ा होगा ) जिसमे उन्होंने कहा था ,"हमने कई हिंदी पौराणिक कथाओं  के रुसी  अनुवाद किये हैं पर हमें अपने बच्चों को ये समझाने में कि एक राजा की दो/तीन/चार रानियाँ थीं  बहुत मुश्किल होती है " तब मैंने पहली बार जाना था कि कुछ समाज ऐसे भी हैं जहां एक समय में एक राजा की एक ही रानी होती है.
इसके उलट हमने कभी किसी कथा  में ये नहीं पढ़ा कि एक रानी थी, उनके चार राजा थे .या एक स्त्री थी उसके दो पति थे . (द्रौपदी का उदाहरण बिलकुल अलग है और यहाँ भी द्रौपदी की  मर्जी से उसके पांच पति नहीं बने थे ) .
 
पौराणिक काल से यह प्रथा चलती आ रही है और मैंने भी अपनी आँखों से दो पत्नी वाले कई लोग देखे हैं . दुसरे समाजों /देशों में तलाक/डिवोर्स  की प्रथा क्यूँ आयी कब आयी ,किस कारण से आयी मुझे जानकारी नहीं है पर ये जानकारी जरूर है कि हमारे  यहाँ ऐसी कोई प्रथा नहीं थी कि अगर किसी भी कारण शादी नहीं निभ रही है तो पति-पत्नी अलग हो जाएँ . पति जरूर अलग हो जाता  था (घर अलग न हों पर कमरा तो अलग हो ही जाता था ) और नयी स्त्री के साथ अपना आगामी जीवन व्यतीत  करता था पर स्त्री उसके नाम की माला जपते ही अपना इहलोक और परलोक  संवारती रहती थी. पत्नी अगर उसे संतान (या पुत्र रत्न ) न दे पाए, रोगी हो, या उसमें कोई भी कमी दिखे तो पुरुष को झट दूसरी स्त्री के साथ शादी की अनुमति थी.पर पति शराबी/कामी/दुराचारी जो भी हो पत्नी से यही अपेक्षा की जाती थी  कि हर हाल में वो पति की सेवा करे ,उसका साथ निभाये . तलाक/डिवोर्स जैसा कोई प्रावधान हमारे समाज में नहीं था कि ऐसे पति से मुक्त होकर स्त्री स्वतंत्र रूप से अपना जीवन  बिताए . या फिर पति बिना एक स्त्री से मुक्त हुए दूसरी स्त्री से शादी न कर सके . इसीलिए ऐसा कोई शब्द भी हमारे यहाँ प्रचलित नहीं है. जब ऐसी स्थिति की ही कल्पना नहीं है तो कोई शब्द कैसे निर्मित होता.

जब यह  कानून अस्तित्व में आया  तो शब्द भी गढ़ा गया 'विवाह-विच्छेद ' पर इसे सामाजिक मान्यता मिलने में शायद सौ साल से अधिक ही  लगेंगे . क़ानून यह भी है कि एक पत्नी के रहते ,दूसरी स्त्री से शादी नहीं की जा सकती. पर जिस तरह हमारे देश में हर क़ानून का पालन किया जाता है, वैसा ही हाल इस कानून का भी है . जो लोग सरकारी नौकरी में हैं, उन्हें भी डर नहीं तो दूसरे व्यवसाय वालों के लिए कुछ कहा ही नहीं  जा सकता. मैं जब दस-ग्यारह साल की थी एक साल अपने गाँव में पढ़ाई की थी ..हमारे पडोसी एक सरकारी स्कूल में शिक्षक थे , तीन-चार साल शादी के हो गए थे और उन्हें कोई संतान नहीं थी. बड़े धूमधाम से उनकी दूसरी शादी हुई. पूरा गाँव शरीक हुआ. उनकी पहली पत्नी भी क्यूंकि उनसे वायदे किये गए थे कि 'मालकिन तो तुम ही होगी ,आनेवाली तो तुम्हारी  नौकरानी बन कर रहेगी' . पर उस विवाह का एक दृश्य मुझे याद है , उनकी पहली पत्नी आँगन में बैठी अपने ही पति की शादी में खूब ढोलक बजा कर दूसरी औरतों के साथ गीत गा रही थीं. मैं अपनी दादी के साथ गयी और पता नहीं दादी को देखते क्या हुआ ,वे रोने लगीं. मेरी दादी ने उन्हें छाती से चिपटा लिया  और काफी देर तक वे जोर जोर से रोती रहीं. नयी बहु आ गयी ,और धीरे धीरे पहली पत्नी पर अत्याचार शुरू हो गए. उन्हें रसोई में आने की इजाज़त नहीं, खाना नहीं दिया जाने लगा, कमरे में बंद रखा जाने लगा. वे मिडल पास थीं यानी कि सातवीं तक पढ़ी हुई थीं. उन्हें पढने का शौक था ,खिड़की से मुझसे किताबें  मांगती और कहतीं कि उन्हें खाना नहीं दिया गया. नंदन-पराग और धर्मयुग के बीच छुपा कर  कई बार उन्हें चिवड़ा -गुड और खजूर (आटे से बना ) देने जाती. एक बार अपने रूखे बाल दिखा कहने लगीं,'तेल नहीं है लगाने को ' छोटी शीशी में उन्हें तेल भी छुपा कर दे आयी थी. फिर कुछ दिनों बाद वे मायके चली गयीं .(या  ससुराल से निकाल दिया गया )..वहाँ  भी ठौर नहीं मिला . पास के शहर में छोटी मोटी नौकरी करने लगीं ,कुछ कुछ मानसिक संतुलन भी खो दिया था. सबके मजाक की वस्तु बनी रहतीं और फिर उनकी अल्प आयु में ही मृत्यु हो गयी . एक ज़िन्दगी तो चली गयी. जबकि उनके पति अपनी पत्नी और चार बच्चों के साथ आज भी सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं .

हमारे गाँव में ही एक बूढ़े मास्टर साहब थे .जिन्होंने अपने इकलौते बेटे की शादी एक गाँव की लड़की से कर दी . लड़के ने शादी तो कर ली पर पत्नी को कभी अपने साथ अपनी नौकरी पर नहीं ले  गया .वहां दूसरी शादी कर ली और अपना घर बसा लिया .पहली पत्नी ताउम्र अपने सास-ससुर की सेवा करती रही .

ये तो मेरे बचपन के किस्से हैं . जब मैं कॉलेज में थी . हमारे घर से चार घर छोड़ सरकारी कॉलेज के एक प्रोफ़ेसर साहब थे ,उनकी पत्नी को कोई बीमारी हो गई थी और वे चलने फिरने से लाचार  हो गयी थीं, व्हील चेयर पर ही चलतीं .उन्हें ,उनके घर को और उनके दो छोटे बेटों को संभालने पत्नी की छोटी बहन साथ रहती थी.  .प्रोफ़ेसर साहब ने दूसरी शादी कर ली अक्सर शाम को दूसरी पत्नी के साथ छत पर टहलते नज़र आते और पत्नी की छोटी बहन घर के सारे काम करती.

ऎसी तमाम सच्ची घटनाएं हैं  समाज में ,जहाँ सिर्फ और सिर्फ स्त्रियों को ही दुःख झेलने पड़े हैं .शादी होते ही स्त्री के लिए उसके माता-पिता के घर के दरवाजे बंद हो जाते हैं और अगर पति दूसरी शादी कर ले .फिर भी स्त्री को सबकुछ सहकर वहीँ रहना है क्यूंकि उस से तो यही अपेक्षा है कि 'डोली गयी तो अब अर्थी ही उठनी चाहिए " . उसे तो दान कर दिया गया है...और दान की हुई वस्तु कोई वापस नहीं लेता, अब उसका नया मालिक उसके साथ जो चाहे करे. इसी वजह से पति को भी छूट मिली होती है ,उनकी मनमानी चलती  है और स्त्रियाँ समझौते पर समझौते करती चली जाती हैं.
 

पति चाहे जैसा हो, स्त्री को उसे स्वीकार कर ज़िन्दगी भर निभाना ही पड़ता है. हमारी धार्मिक कथाओं में ,फिल्मों में अक्सर दिखाया जाता है ,पति वेश्यागामी था , अब असाध्य रोग से पीड़ित है, पर पत्नी उसे पीठ पर लादकर छिले घुटनों से पहाड़ी पर बने मंदिर तक चढ़ कर जाती है....निर्जल  व्रत रखती है...पूजा करती है और उसका पति ठीक हो जाता है. अगर प्रेम हो तो ये सब करने में कोई बुराई नहीं. पर यह हमेशा एकतरफा ही क्यूँ होता है ? पति कभी अपनी पत्नी के लिए इतने व्रत-उपवास क्यूँ नहीं करता ?...इतने कष्ट क्यूँ नहीं उठाता ?? क्या साथ  निभाने की जिम्मेवारी सिर्फ एक पक्ष की है, दोनों पक्षों की नहीं है ?? कुछ पति भी अपनी पत्नी का ख्याल रखते हैं . पर उनकी संख्या बहुत ही कम  है और यहाँ बहुसंख्यक  लोगो की स्थिति पर चर्चा हो रही है.
अब तलाक का प्रावधान  आ गया है..पर समाज में अब भी इसे अच्छी नज़र से नहीं  देखा जाता. तलाकशुदा स्त्रियों को बहुत कुछ झेलना पड़ता है.

  पर ये बातें सुनने में लोगों को अच्छी नहीं लगतीं. उन्हें हमारी भारतीय संस्कृति जहाँ 'नारी को देवी का रूप दिया गया है ' उस पर आंच आती दिखती है. .हम भी भारतीय ही हैं. हमें भी अपनी संस्कृति की कुछ बातों पर नाज़ हैं,पर जो कमियाँ हैं , उस पर भी तो बात करनी होगी, उन्हें छुपाते ही रहेंगे तो उन्हें दूर करने के उपाय कैसे ढूंढें जायेंगे .

रविवार, 17 नवंबर 2013

ये दुनिया हैरान-परेशान करती रहेगी

ये दुनिया आखिर कब तक सरप्राइज़ करती रहेगी . इतनी उम्र हो गयी, इतना कुछ पढ़ लिया, देख लिया, सुन लिया कि लगता है अब ऐसा क्या देख-जान लूंगी जो चौंका देगी. पर तभी कोई ऐसी घटना से रु ब रु होती हूँ कि मुहं खुला का खुला रह जाता है और बार-बार अविश्वास से पूछने पर कि ऐसा कैसे हो सकता है ?? पता चलता है ,बिलकुल ऐसा ही हुआ  है.
 

पर उस घटना को शेयर करने से पहले एक दूसरी बात कि कैसे समय के साथ हमारी खुद की सोच बदलती है . आज के युग में तो खैर चालीस साल की  उम्र को न्यू ट्वेंटी और साठ को न्यू फोर्टी कहा ही  जाता है. पर जब अट्ठारह-बीस की  उम्र में मैंने अपना पहला उपन्यास लिखा था तो उसमें मेरी नायिका जब तीस-चालीस की उम्र की हो जाती है तो उसका वर्णन कुछ यूँ किया था ,"चेहरे पर प्रौढ़ता का गाम्भीर्य झलक रहा था , दो चोटियों में झूलते बाल एक सादे से जूड़े में बंधे थे और चेहरे पर मोटे फ्रेम का चश्मा लगा हुआ था {तब इतनी ही अक्ल थी :)} . लेकिन जब मैंने वो कहानी ब्लॉग पर पोस्ट की तो खुद चालीस की हो चुकी थी...वे पंक्तियाँ कुछ यूँ बदल दीं, "कमर तक लम्बे बाल अब कंधे तक रह गए थे .चेहरे की तीखी रेखाएं पिघल कर एक स्निग्ध तरलता में बदल गयी थीं..." पर अब भी साठ साल की एक महिला की कुछ अलग ही छवि थी मेरे मन में .छवि क्या ...मेरी कुछ सहेलियां भी हैं,साठ के उम्र की हैं . फिट हैं ,..बहुत एक्टिव हैं, जीवन से भरपूर हैं...कार्यकुशल हैं .. पर साथ में उनमें सादगी भी है . पर एक साठ के करीब की महिला से हाल में ही मुलाकात हुई और जब मिल कर अच्छा लगे तो फिर दोस्ती होते देर नहीं लगती. इनमें भी वो सारी खूबियाँ हैं... साथ ही ये अपनी साज-सज्जा  का बहुत ख़याल रखती हैं. महीने में दो बार मैनीक्योर,पेडिक्योर ,उनके नाखूनों पर बिलकुल फंकी कलर वाले नेलपॉलिश लगे होते हैं और वे बुरे इसलिए नहीं लगते क्यूंकि नियमित मेनिक्योर से उनके हाथ बड़े कोमल  से हैं. आई शैडो, मैचिंग लिपस्टिक, मॉडर्न बैग-सैंडल , जंक ज्वेलरी  की शौक़ीन हैं ..उन्होंने अपनी कलाई पर चाइनीज़ में अपने पोते का  नाम  टैटू  करवा रखा है. ...यह सब उनपर फबता है. पहले मुझे लगता था ऐसी साज सज्जा इतनी उम्र में शोभा नहीं देती पर शायद उसे ग्रेसफुली  कैरी करना आना चाहिए. और ये महिला कोई सोशलाइट या बहुत उच्च वर्ग की नहीं हैं. मिड्ल क्लास की हैं . छोटी उम्र से नौकरी की  है ,संघर्ष किया है , खाड़ी देश में बिना किसी हाउस हेल्प के सिर्फ पति की सहयता से  बच्चे ,घर  नौकरी सब संभाला है. बच्चों को अच्छी शिक्षा दी, घर बनाया और  अब रिटायर्ड लाइफ जी रही हैं और अपनी शर्तों पर अपनी मर्जी से जी रही हैं.

हाँ, तो जिनका परिचय दिया है, वे अक्सर बातों में अपनी भतीजी का जिक्र करतीं, उसके लिए शॉपिंग करतीं हैं , उसकी पसंद की चीज़ें बनातीं हैं ,उसका बहुत ख्याल रखतीं हैं .  मैंने एक दिन कह दिया.."भतीजियाँ अपनी बुआ की बहुत प्यारी होती ही हैं. " उन्होंने कहा , "मैं इसकी कहानी सुनाउंगी तुम्हे " और एक दिन जब सारी बातें बताईं तो मैं बस यही कहती रह गयी.."ऐसा कैसे हो सकता है ??"
 

ये महिला अपने पति के पास खाड़ी देश में थीं. उनकी बेटी यहाँ नौकरी करती थी और अपने फ़्लैट में रहती थी.  बेटा ऑस्ट्रेलिया में है . एक दिन इनका मन बहुत बेचैन हो रहा था कि कहीं कुछ गड़बड़ है. अपने बेटे और बेटी को फोन किया..पर वहाँ सब ठीक था . फिर भाई के यहाँ  फोन किया तो छोटी भतीजी   से बात हुई , जब बड़ी के लिए पूछा तो उसने बताया ,'वो तो घर छोड़ कर चली गयी है  ' दोनों बेटियों को उनकी माँ , खाना बनाने का जिम्मा सौंप बाहर गयी थीं. माँ के लौटने पर छोटी बेटी ने शिकायत की  कि "सारा काम मैंने  किया है दीदी तो बस अपने बॉयफ्रेंड से फोन पर चैटिंग कर रही थी ." माँ बहुत नाराज़ हुई ,पूछने पर बेटी ने स्वीकार किया कि उसका एक बॉयफ्रेंड है . माँ ने बेटी को बहुत भला-बुरा कहा, थप्पड़ भी लगाया और बोला, 'पिता आयेंगे तो तुम्हे काट डालेंगे ,उनके आने से पहले घर छोड़ कर चली जाओ " जबकि ये लोग कैथोलिक हैं . डेटिंग इनकी संस्कृति में है. खुद उस लड़की के  माता-पिता की लव मैरेज है . पर उसके पिता बहुत सख्त थे और माँ भी उनसे डरी हुई थी . बेटी ने उस लड़के को फोन किया . लड़का उनके ही धर्म का है, कैथोलिक है , बैंक में नौकरी करता था, अपने माता-पिता का इकलौता बेटा है..मुंबई में अपना फ्लैट है . गिटार और पियानो बजाने का शौक है . खाली वक़्त में क्लास लेता है. इस लड़की की छोटी बहन को भी सिखाया करता था .वहीँ इन दोनों की मुलाक़ात हुई थी .
लड़का ,अपने पिता के साथ आया और लड़की को लेकर चला गया . (अब मुझे ये विश्वास करना ही कठिन हो रहा था कि बस बॉयफ्रेंड से चैटिंग के लिए एक उन्नीस साल की लड़की को घर से निकाला जा सकता है...वो भी मुंबई जैसे शहर  में, २००९  में और एक कैथोलिक परिवार में  ..खैर इन्होने भाई-भाभी  से बात करने की कोशिश की. उनका कहना यही था कि 'उन्हें उस लड़की से कोई मतलब नहीं '. फिर इन्होने अपनी बेटी को कहा ,"उस लड़की को अपने पास ले  आओ..बिना शादी किये लड़के के घर में रहना ठीक नहीं " वे भारत आयीं ,..भाई-भाभी को समझाने की कोशिश की ..पर उनकी एक ही रट, "हमारी बेटी , हमारे लिए मर गयी है  " (माता-पिता का ऐसा एटीट्युड मुझे अब भी हैरान कर देता है ) . 

इनकी भतीजी और बेटी साथ रहने लगे. उसने अपनी पढ़ाई जारी रखी . एक दिन कॉलेज के बाहर से लड़की के मामा, मौसी उसे कार में जबरदस्ती बिठा  कर ले जाने लगे. अब पता नहीं उसका ब्रेन वॉश करने के लिए या उसे सजा देने के लिए पर एक जगह ट्रैफिक धीमी हुई तो वो लड़की निकल कर भागी . इसके  बाद इनलोगों ने इस लड़की को कानूनी रूप से गोद ले लिया . और पूरे रीती रिवाज से उस लड़की की शादी उसके बॉयफ्रेंड के साथ कर दी. सारे रिश्तेदारों को बुलाया . पर एक ही कॉलोनी में रहने वाले माता-पिता शरीक नहीं हुए .अब लड़की अपने ससुराल में है .पढाई पूरी कर जॉब कर रही है . अब बुआ का घर ही उसका मायका है. जहाँ हफ्ते मे तीन चक्कर वो जरूर लगाती है .

मैंने ये सब सुनते हुए न जाने उनसे कितनी बार पूछा होगा, "आखिर आपके भाई-भाभी को क्या एतराज था ??..उन्होंने ऐसा क्यूँ  किया ??" इनके  पास भी एक ही जबाब था, "पता नहीं,कुछ  समझ  में नहीं आता  "जबकि इनके भाई ने अपने पिता का उदारपन देखा है . जब ये महिला नवीं कक्षा में थीं, इनके पिता ने इनकी सहेली  के भाई के साथ सिनेमा देखने , कॉफ़ी पीने की इजाज़त दे रखी थी. बाद में शादी भी उसी लड़के से हुई. और इनके पति भी इतने उदार हैं कि पत्नी के भाई की बेटी को कानूनी रूप से अपनी बेटी बना लिया. पर शायद यहाँ पिता का सिर्फ अहम  है कि लड़की ने अपनी पसंद का लड़का कैसे चुन लिया.

जब मुंबई में एक पढ़े-लिखे कैथोलिक परिवार में ऐसा हो सकता है ,(जहाँ लड़के-लड़कियों को आपस में मिलने की छूट किशोरावस्था से ही होती है ) तो दूर दराज के गाँव-कस्बों के शिक्षा से दूर लोगों से क्या उम्मीद की जा सकती है. पर लड़कियों पर बंदिशें लगाने के लिए पढ़े-लिखे और अनपढ़ परिवार में कोई फर्क नहीं . मैंने  पहले भी अपनी एक पोस्ट  में जिक्र किया था कि मेरी एक परिचिता के बेटे ने एक एयरहोस्टेस  से शादी की है. उस लड़की के पिता कर्नल हैं ,बेटी को लन्दन-न्यूयार्क -पेरिस जाने की इजाज़त है पर अपनी मर्जी से अपना जीवनसाथी चुनने की नहीं ....दुनिया ऐसे ही हैरान करती रहती है ,यहाँ ऐसे भी  लोग हैं जो अपनी बेटी से नाता तोड़ लेते हैं और ऐसे भी हैं जो दूसरे की बेटी को अपना  लेते हैं.

रविवार, 27 अक्तूबर 2013

हमें अपने आंसू पोंछकर मुस्कराना ही होगा ,डॉ. कौसर...आपके लिए

दुनिया में नए नए लोगों से मुलाक़ात होती है . कुछ लोगों से आपके विचार मिलते हैं ,आपकी दोस्ती होती है फिर दोनों अपने अपने काम में उलझ जाते हैं ,दोस्ती की डोर इलास्टिक सी खींच जाती है पर टूटती नहीं और जब एक झटके से एक सिरा छूट जाता है, तब दूसरा सिरा थामे रहने वाले को इतनी गहरी चोट लगती है कि उम्रभर उस से उबरना असंभव हो जाता है.
 

ऐसा ही कुछ अपने अज़ीज़ मित्र प्रसिद्द मनोविज्ञानिक 'डॉ. कौसर अब्बासी 'के जाने के बाद महसूस हो रहा है, जिन्हें नियति के क्रूर हाथों ने चालीस बसंत भी नहीं देखने दिए और एक मैसिव हार्ट अटैक देकर हम सबसे दूर कर दिया .

करीब सात वर्ष पहले मैंने ऑर्कुट पर एक कम्युनिटी ज्वाइन की थी, 'BOOK LOVERS COMMUNITY '. ..उस कम्युनिटी में लोग अपनी पढ़ी किताबों पर अपने विचार रखते. एक एक पुस्तक पर दिनों चर्चा चला करती थी .वहीँ
डॉ. कौसर से किताबों पर विचारों का आदान-प्रदान हुआ .उन्होंने मुझे Brida  और  Many Lives Many Masters  किताब पढने की सलाह दी. मैंने सीधा कह दिया, "मैं इस तरह की किताबें  नहीं पढ़ती"  फिर भी उन्होंने बहुत समझाकर कहा, "पढ़ कर देखिये रिग्रेट नहीं करेंगी " .और सचमुच अफ़सोस  नहीं हुआ. मैंने भी कई लोगो को उस किताब को पढने की सलाह दी .मेरे ब्लॉग की  एक पाठिका  ने तो हाल में बताया कि उसने वो किताब पढ़कर फेसबुक पर ' Brian Weiss ' के  fans की एक  कम्य्नुनिटी भी  ज्वाइन की और Brian Weiss से एक बार चैट भी की (और हमें पता भी नहीं ऐसी कोई कम्युनिटी भी है ).  किताबों पर काफी बातें हुईं और कौसर और मैं अच्छे दोस्त बन गए .
 

उन्ही दिनों मेरे बेटे  टीनेज में प्रवेश कर रहे थे और उनकी बदलती आदतें , उनके tantrums  से मैं अक्सर दुखी और परेशान होकर कौसर से जिक्र करती. दोस्त होने के नाते सहानुभूति के दो शब्द की अपेक्षा रखती  थी, पर वो सीधा कहते ,"सॉरी मैम...आइ विल आलवेज़ बी विद चिल्ड्रेन " और दस मिनट में ही उनकी बातों से मुझे बच्चों के नज़रिए से चीज़ों  को देखने में मदद मिलती और मन शांत हो जाता .कभी मैं कह भी देती , "आप मेरे दोस्त हैं या बच्चों के?.हमेशा उनका पक्ष लेते हैं " वे कहते ,"दोस्त तो आपका ही हूँ, इसीलिए चाहता हूँ ,बच्चों और आप के बीच  दूरी न आये और वे आपको कभी गलत न समझें " मेरे बेटों से मेरे मित्रवत व्यवहार का बहुत सारा श्रेय  डॉ .कौसर को जाता है. उन्होंने मेरे बेटों  से भी बात की थी और कहा था," मेरा नंबर सेव कर लो, जब कभी मम्मी डांटे,मुझसे शिकायत करना " मैं उनका ट्रिक समझ गयी  थी, वे चाहते थे  कि जब भी कभी उन्हें ऐसा लगे कि  मम्मी-पापा से कोई बात शेयर नहीं कर सकते, उनसे बात कर लें और साथ ही ये कोशिश भी कर गए थे कि वे माता-पिता से सब शेयर करें  ,बेटे बहुत खुश  थे क्यूंकि उन्होंने, उन्हें  Hi buddy कहकर संबोधित किया था और खुद को अंकल कहने से मना कर दिया था .
 
डॉ.कौसर अपने काम में निष्णात थे , पूरे हफ्ते नागपुर में पेशेंट देखते और अक्सर सन्डे को मुंबई  से किसी पेशेंट के लिए बुलावा आ जाता  . हाल  में ही उन्होंने बहुत ही बड़ा और ख़ूबसूरत क्लिनिक बनवाया था , और मैंने उसकी फोटो देख ,पेशेंट के वेटिंग रूम वाली फोटो पर मजाक में कमेन्ट किया था , ' इन कुर्सियों पर किसी को न बैठना पड़े " बुरा माने बिना उन्होंने एक स्माइली चिपका दी थी .इसके साथ ही नागपुर की हर सामाजिक गतिविधियों में शामिल होते थे . कितने समारोहों के चीफ गेस्ट , कही झंडा फहराने जाना , कहीं क्विज़ कम्पीटीशन कंडक्ट करना, अक्सर प्रोग्राम होस्ट करना ,कॉन्फ्रेंस  में भाग लेना , कभी आमलोगों के लिए वर्कशॉप  कभी जेल के कैदियों के लिए वर्कशॉप . समारोह में तिलक लगा कर उनका स्वागत किया जाता . दूसरे धर्म  के होते हुए भी तिलका लगवाते हुए ,हमेशा उनका दाहिना हाथ सर पर होता . वे दूसरे धर्म का सिर्फ सम्मान ही नहीं करते थे बल्कि उसके रिवाज का भी ध्यान रखते थे .
 
इन सबके बीच विदेश से भी किसी कॉन्फ्रेंस में पेपर पढने के लिए बुलावा आ जाता. अखबारों के लिए आलेख लिखते. टी.वी पर सलाह देते . मानसिक बीमारी को अक्सर लोग पागलपन समझ लेते हैं . डॉ. कौसर इस धारणा के निर्मूलन के लिए कटिबद्ध थे ,इस से सम्बंधित  ढेरों आलेख अखबार में लिखते ,हाल में ही  TOI में उनका आलेख आया था  social stigma  is  main hurdle in treating schizophrenia , इतना सारा काम वे कर लेते थे मानो  जैसे उनके लिए दिन में चौबीस नहीं बहत्तर घंटे होते थे .

पर इतने काम के बीच भी अपने दस साल के बेटे 'अमान' के स्कूल  के स्पोर्ट्स डे, एनुअल डे ,उसका कोई फंक्शन ,मकर संक्रांति को उसके साथ छत पर पतंग उडाना ..उसके  हॉकी मैच देखने जाना ,अपनी पत्नी भावना के साथ वैकेशन पर जाना , उनके साथ पिकनिक ,पार्टी अटेंड करना ...नहीं टालते .फेसबुक पर उनकी इन सारी गतिविधियों की ढेर सारी फ़ोटोज़ हैं , (जिनकी तरफ देखना भी अब मुश्किल लगता है ) बिलकुल हाल की एक पार्टी की बड़ी प्यारी सी फोटो है, अपनी पत्नी
डॉ. भावना को घुटनों के बल बैठ कर फूल देकर प्रपोज़ कर रहे हैं . जबकि असलियत अचनाक ही  प्रपोज़ कर दिया  था .  डॉ. भावना ने बताया था . एक दिन वे कौसर के क्लिनिक आयी थीं और डॉ. कौसर .ने मुझसे चैट करवाई थी.पर उन दिनों भावना की टाइपिंग स्पीड ज्यादा नहीं थी और उन्होंने  मुझसे फोन पर बात करना बेहतर समझा...फोन नंबर एक्सचेंज हुए और लम्बी बात हुई. (कौसर पेशेंट देखने चले गए थे )   उन्होंने अपनी शादी का किस्सा सुनाया .  भावना और  कौसर मेडिकल कॉलेज में साथ पढ़ते थे और बेस्ट फ्रेंड्स थे . धीरे -धीरे कौसर को अहसास होने लगा कि भावना से अच्छी जीवनसंगिनी उन्हें नहीं मिलेगी. उन्होंने प्रपोज़ किया पर भावना ने रिफ्युज़ कर दिया . कौसर ने उनके इनकार का  सम्मान किया , क्यूंकि उन्हें पता था एक हिन्दू लड़की का किसी मुस्लिम लड़के से शादी का निर्णय कितना मुश्किल  है. पर दोस्ती कायम रखी और कुछ महीनों  बाद भावना ने स्वीकार कर लिया . इस नवम्बर में उनकी शादी  को   बारह साल हो जाते . क्या डॉ. कौसर को ये अहसास था कि उनके  पास समय कम है, इसीलिए शायद जो ज़िन्दगी लोग अस्सी बरस में भी नहीं जी पाते, डॉ. कौसर ने  चालीस से भी कम उम्र में जी ली.

एक दिन
डॉ. कौसर पत्नीश्री के साथ समय बिताने के लिए छुट्टी लेकर बैठे थे पर नेट पर टाइम पास  कर रहे थे .मेरे पूछ्ने पर बताया कि ,"एक बच्चे ने इसी वक़्त दुनिया में आना तय कर लिया है, इमरजेंसी आ गयी है , इसलिए भावना को उसके स्वागत  के लिए हॉस्पिटल  जाना पड़ा ." मैंने थोड़ी खिंचाई की , "अच्छा है , साइकियाट्रिस्ट को कभी  इमरजेंसी कॉल्स नहीं आते " कौसर तो हंस कर टाल गए पर शायद ईश्वर को मेरी यह बात नहीं जमी  ,और मुझे सच्चाई से रु ब रू करवा दिया . थोड़ी देर में ही कौसर ने कहा , "एक इमरजेंसी है..सुसाइड केस है, जाना पड़ेगा "  दो घंटे में वे वापस भी आ गए  और बताया कि 'एक लड़की ने खुद को कमरे में बंद कर लिया था और कलाई की नस काटने की धमकी दे रही थी ." फिर इन्होने बात की और आधे घंटे के अन्दर उसने दरवाजा खोल दिया. मुझे आश्चर्य  हुआ..'ऐसा क्या कहा आपने ??" उन्होंने भी हंस कर कहा, ""इसी की तो पढ़ाई की  है ..ट्रेनिंग ली है...वो सुसाइड से ज्यादा अटेंशन सीकर बिहेवियर था " यह बता कर वे तो कुछ पढने -लिखने में लग गए पर मैं देर तक सोचती रही ,क्या बात की होगी ,क्या कहा होगा...जो लड़की मान गयी "
 

पर बात करने का हुनर तो उनका ऐसा था जो एक बार मिले वो दोस्त बने बिना न रह सके , बातों बातों में वे इतनी कोट करने लायक बातें  बोल जाते थे कि मैं कभी कभी कह देती..'ये सब याद कर रखा है..या आपका खुद का है ??" और वे अपने चिर परिचित अंदाज़ में कहते .."सब मिला जुला है..बातों का ही तो खाते हैं, भाई ". यह उनका तकिया कलाम था . इन सात वर्षों की दोस्ती में कभी डॉ. कौसर से मेरी कोई अनबन ,कोई मनमुटाव नहीं हुआ . पर शायद एक मैं ही ऐसी नहीं थी, उनके दोस्त भी उनके बारे में यही कहते थे , सब उनकी जिंदादिली , उनके उदार ह्रदय की ही बात  करते थे .एक बार उनके दोस्त ने उनके बारे में लिखा था ,"  I know this animal since last 17 years....and never saw him getting angry.. Very genuine person and very approachable!!! I can find him whenever i need him.. Always willing to help!          और मैंने उसे पढ़ उनसे पूछ लिया था , "क्या आपको सचमुच  कभी गुस्सा नहीं आता ." और उन्होंने कहा , "बिलकुल आता है..getting angry is normal but when n where that is important ' शायद यही फौलो करते होंगे ,इसीलिए किसी को उनके गुस्से से परेशानी नहीं होती होगी .

जब मैंने ब्लॉग बनाया ,शायद इसकी सबसे ज्यादा ख़ुशी
डॉ. कौसर को हुई थी. वे मेरे सिर्फ होम मेकर होने से बहुत नाखुश थे . अक्सर कहते ,"आपमें इतना पोटेंशियल है ,आप समाज को बहुत कुछ दे सकती हैं " मैं कह देती, " बेटों का पालन-पोषण कर दो अच्छे  नागरिक तो दिए समाज को " और वे तुरंत कहते, "एक अच्छा नागरिक समाज से छीनकर ??...ये तो घाटे का सौदा हुआ ...तीन लोग कंट्रीब्यूट कर सकते थे "  इसीलिए मुझे फिर से लिखते देख वे बहुत खुश होते थे . दसवीं के बाद ही हिंदी पढने-लिखने से नाता टूट गया था उनका, फिर भी डॉ. कौसर ने मेरे ब्लॉग के पोस्ट पढ़े , ब्लॉग पर डाली मेरी पहली नॉवेल  भी पढ़ी ,और अपने अंदाज़ में एक पंक्ति में ही पूरा सार समेट दिया ," take off and landing was perfect and journey was beautiful too "  मैं उनसे कभी मिली नहीं थी , उनकी रिश्तेदार नहीं थी ,कोई बहुत पुरानी बचपन की दोस्ती भी नहीं थी  और न नॉवेल ही कोई मास्टरपीस था पर उन्हें किसी का भी उत्साह बढाने , उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा देने का जूनून था,उन्हें  .फेसबुक पर भी अक्सर मेरे , स्टेटस ,मेरी पोस्ट के लिंक से ब्लॉग पर जाकर पोस्ट पढ़ लेते और दो लाइन में इन्बौक्स में मेसेज जरूर छोड़ देते.

कोई व्यक्ति भी दस मिनट भी उनसे बातें करने के बाद ,अपने को गुणों का खान समझने लगता ,इतने positive vibes मिलते ,थे उनसे. . अपनी, अपनी फ्रेंड्स की , समाज से सम्बंधित कई  उलझनों के बारे में उनसे चर्चा की है और उन्होने हमेशा ध्यान से सुन कर हल सुझाए . दोस्तों के लिए वे बस एक फोन कॉल की दूरी पर  थे, कितने भी व्यस्त हों कॉल बैक जरूर करते थे , मेल का रिप्लाई जरूर करते थे ,चाहे पार्किंग लॉट में गाडी खड़ी कर मेल भेजना पड़े .
.
पर क्या कभी ये सब मैंने उनसे कहा  ? नहीं ,हम जरूरत ही नहीं समझते . जब लोग हमारे  आस-पास होते हैं तो बस खिंचाई , नोंक झोंक...चिढाना-खिझाना  यही सब चलता है ...उनके चले जाने के बाद लगता है...कितना कुछ रह गया, कहना ...काश कहा होता .

मैं जब भी किसी फिल्म, किताब या  व्यक्ति के बारे में लिखती हूँ, तो उनकी नेगेटिव साइड जरूर ढूंढती हूँ. पर मुझे कोशिशों के बाद भी
डॉ. कौसर के विषय में कुछ नहीं मिल रहा . इसलिए नहीं कि वे मेरे दोस्त थे..इसलिए नहीं कि वे अब हमारे बीच नहीं हैं ...बस कुछ लोग होते ही ऐसे हैं. ..उनकी FB वॉल देखकर ऐसा लग रहा है, दोस्तों ने अपने दिल निकाल कर रख दिए हैं...सब इतना मिस कर रहे हैं, जिसे शब्दों  में बयान करना मुश्किल है . 'डॉ. भावना' और 'अमान' से बढ़कर हमारा दुःख नहीं है ...पर उनके चले जाने का दर्द  हम सबको भी उतना ही महसूस हो रहा है .

एक बार बातों के दरम्यान उन्होंने मुझसे पूछा था, मेरे लिए दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ क्या है ?
मैने क्या जबाब दिया मुझे नहीं याद  पर
डॉ. कौसर का जबाब याद  है , "I love to make people happy
 anyone
  anywhere
if i make a crying one smile i really love it.  सबके चहरे पर स्माइल लाने वाला ..इतने चेहरों को रुला कर  चला गया...अब इन चेहरों पर कौन लायेगा स्माइल??.... कैसे आएगी कोई  स्माइल ??

पर हमें अपने आंसू पोंछकर मुस्कराना ही होगा...अपना दुःख पीना ही होगा ... कौसर के लिए ...वे किसी को भी दुखी नहीं देख सकते थे .आप जहाँ भी हैं ,जिस जहां में हैं
डॉ. कौसर, हमेशा खुश रहें . हम अपने दुःख से आपको दुखी नहीं होने देंगे ...अलविदा डॉक्टर .  डॉ. कौसर के जीवन की कुछ और झलकियाँ ,जिनमें अब और तस्वीरें नहीं जुड़ेंगी  














मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

दिमाग के परदे पर देर तक चलती रहनेवाली फिल्म : शाहिद

वकील शाहिद आज़मी
बड़े दिनों से किसी फिल्म पर नहीं लिखा...पर हाल-फिलहाल में कोई ऐसी फिल्म भी नहीं देखी जो परदे पर देखने के बाद ,देर तक दिमाग के परदे पर भी चलती रहे. यह फिल्म थी 'शाहिद' एक सच्चे व्यक्ति के जीवन पर आधारित सच्ची कहानी ,जो वैसी की वैसी ही फिल्माई गयी है .
फिल्म 'शाहिद' मुंबई के वकील और सामाजिक कार्यकर्ता 'शाहिद आजमी' के जीवन से प्रेरित है, जिन्होंने गलतियां की ,उन्हें सुधारा और पैसे का लालच न कर उन गरीब लोगों की सहायता के लिए आगे आये जिनका कोई नहीं था. सात साल के अपने वकालत के कैरियर में उन्होंने 17 लोगों को झूठे मुक़दमे से छुड़ा कर बरी करवाया और अपनी इसी कोशिश में २०१० में स्वार्थी लोगों के गोली के शिकार भी हो गए.
निर्देशक हंसल मेहता ने इतनी ईमानदारी से यह फिल्म बनाई है कि उनके परिवार जनों ने भी कहा कि यह  फिल्म
९५% 'शाहिद आज़मी' के जीवन से जुडी सच्ची घटनाओं पर आधारित है.

हम अक्सर कहीं पढ़ते हैं कि कमउम्र के नौजवान गुमराह होकर पाकिस्तान द्वारा चलाये गए कैम्प में शामिल हो जाते हैं ,पर जब उनका मोहभंग हो जाता है, फिर भी उन्हें वहाँ से निकलने की कोई राह नज़र नहीं आती. शाहिद आज़मी भी ऐसे ही एक नौजवान थे जो  मुंबई के १९९३ के दंगों का नज़ारा देख , सोलह वर्ष की उम्र में भागकर पाकिस्तान द्वारा चलाये गए कैम्प में शामिल हो गए पर वहाँ के क्रियाकलाप देख बहुत जल्दी समझ गए कि वो गलत थे और जान की परवाह न कर भाग निकले. मुम्बई में आकर सामान्य जीवन जीने की कोशिश करने लगे और अपनी छूटी पढ़ाई दुबारा शुरू की, लेकिन पुलिस एक दिन उन्हें आतंकवादी होने के शक में जेल में डाल देती है. जेल में कैदियों को यातना देने वाले दृश्य बहुत ही बुद्धिमत्तापूर्वक फिल्माए गए हैं. वहाँ की असलियत भी पता चल जाती है, और घबरा कर आँखें  भी नहीं बंद करनी पड़तीं . जेल में उन्हें अच्छे  बुरे दोनों तरह के लोग मिलते हैं ,एक जो उनका ब्रेनवाश कर फिर से जेहादी बनाना चाहते हैं, और दुसरे के .के मेनन जैसे लोग जो उन्हें पढाई जारी रखने के लिए प्रेरित करते हैं . (के.के. मेनन मेरे फेवरेट एक्टर हैं, पर उनका रोल बहुत छोटा था पर इम्प्रेसिव था ) ज़िन्दगी में भी तो हमें ऐसे ही लोग मिलते हैं पर यह व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है कि वो किसका साथ चुने और किसकी बात सुने .
 

शाहिद जेल में और जेल से छूटने के बाद भी लगन से अपनी पढ़ाई करते हैं और वकालत पास कर ,पैसे के लालच में झूठे मुक़दमे न लड़ कर गरीबों के मुक़दमे लड़ते हैं , जिनके पास फीस देने के पैसे नहीं होते और अक्सर जिन्हें बिना किसी ठोस सबूत के केवल शक के बिना पर जेल में डाल दिया जाता है. अपने कार्य में उन्हें बहुत विरोध भी सहना पड़ता  है, फोन पर लगातार धमकियां भी मिलती हैं, कभी चेहरे पर कालिख भी मल दी जाती है.फिर भी वे पीछे नहीं हटते और आखिरकार एक गैंगस्टर की गोलियों के शिकार हो जाते हैं.
फिम शाहिद में राजकुमार यादव


फिल्म में राजकुमार यादव ने जैसे 'शाहिद आज़मी' के किरदार को अभिनीत नहीं किया बल्कि जिया है . सुना है ,उन्होंने  शाहिद आज़मी के भाइयों से कई बार मिलकर उनकी बौडी लैंग्वेज़ ,उनके चलने का अंदाज़, उठने बैठने का तरीका, मैनरिज्म सीखने की  कोशिश की . फिल्म में  एक और चीज़ बहुत अच्छी लगी , शाहिद आज़मी के भाइयों का बल्कि पूरे परिवार का आपस में प्यार.(जो सच में भी होगा )  शाहिद के बड़े भाई, हर कदम पर उनका  साथ देते हैं, उन्हें जेल से छुडाने से लेकर , उनकी पढ़ाई का खर्च , वकालत पास कर लेने के बाद उनका ऑफिस सेट अप करने का खर्च. वे  लोन पर लोन लेते जाते हैं पर शाहिद की मदद करते हैं. और शाहिद भी एक आम इंसान हैं, भगवान नहीं...इसलिए उनमें मानवीय कमजोरियां भी हैं. परिवार वालों को बिना बताये ,वे एक तलाकशुदा महिला ,जो एक बच्चे की माँ भी है, मरियम से प्यार और शादी भी कर लेते हैं. अपने बड़े भाई पर परिवार का सारा बोझ डाल, वे अपने काम में लगे होते हैं और मरियम के साथ रहने लगते हैं. शायद समाज के लिए..दूसरों के लिए,गरीबों के लिए  कुछ करने का ज़ज्बा रखने वालों का अपना परिवार उपेक्षित ही रहता है. मरियम और उसके बच्चों को भी वे समय नहीं दे पाते .
कोर्ट रूम के दृश्य बहुत ही वास्तविक लगते हैं . आमलोग जो फिल्मों और टी.वी. से ही कोर्टरूम से परिचित हैं उन्हें न यहाँ साफ़ सुथरे बड़े से विटनेस बॉक्स दिखेंगे ,न जज के हथौड़े  की ठक ठक और न ही वकीलों का योर ऑनर कहते चीखना-चिल्लाना . वकीलों की आवाज़ भी तेज होती है...बहस तीखा होता है, एक दूसरे पर छींटाकशी भी होती है पर सब कुछ नकली नहीं बल्कि बहुत ही सहज लगता है. जज भी यहाँ उतने हेल्पलेस नहीं लगते और उनके प्रति भी सम्मान जागता है, मन में .

बहुत ही कम बजट में बनी यह यथार्थवादी फिल्म , शायद फिल्म में मनोरंजन ढूँढने वालों को पसंद न आये .पर ऐसी फ़िल्में देखनी चाहियें क्यूंकि समाज में ऐसे लोगों के विषय में हम बस अखबारों में चंद सतरें पढ़ते हैं और भूल जाते हैं...जब कोई निर्माता-निर्देशक हिम्मत कर उनके  जीवन को परदे पर उतारता है तब हमें,उनके विषय में विस्तार से  पता चलता है और फख्र भी होता है कि समाज में ऐसे लोग भी होते हैं.
फिल्म के हर कलाकार ने बहुत ही अच्छा काम किया है. मरियम के रोल में 'प्रभलीन संधू 'और बड़े भाई के रूप में 'मोहम्मद जीशान अय्यूब, का अभिनय बहुत प्रभावशाली है .


इस फिल्म को देखकर  हम शाहिद आज़मी को उनके किये काम  के विषय में जान पा रहे हैं ,पर उनका परिवार जो उन्हें भीतर-बाहर से जानता था , यह फिल्म देखने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है. शाहिद आज़मी के छोटे भाई 'खालिद आज़मी ' भी वकालत करते हैं और शाहिद  आज़मी के ही नक्श-ए-कदम पर चलकर गरीबों के हक के लिए काम कर रहे हैं .

फिल्म शुरू और ख़त्म इसी पंक्ति से होती है ,जो कितना सही प्रतीत होता है..."ज़ुल्म सहने वालों और ज़ुल्म करने वालों दोनों का कोई मजहब नहीं होता. मरता भी इंसान है और मारता भी इंसान है "


गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

देवी के द्वार पर देवियों की ही अधिक भीड़ क्यूँ ??

अभी मध्यप्रदेश में भगदड़ में 115 लोगों   की  मौत हुई. कितने पुरुष और कितनी स्त्रियाँ इस हादसे की शिकार हुईं...सही आंकड़े तो मुझे नहीं पता पर टी.वी. पर ब्लर्ड तस्वीरों में भी लाल -पीले -हरे रंग ही ज्यादा दिख रहे थे. जाहिर हैं महिलाओं की साड़ियों के रंग थे . भगदड़ में वैसे भी महिलायें और बच्चे ही ज्यादा हताहत होते हैं. शारीरिक रूप से वे लोग ज्यादा कमजोर होते हैं .पर एक सच यह भी है देवी दर्शन के लिए जाने वालों में महिलाओं की संख्या ही ज्यादा होती है. 

कहीं भी देवी दर्शन हो, पूजा हो ..माता की  चौकी हो...महिलायें ही अधिक संख्या में शामिल होती है . इन तथाकथित गुरुओं के यहाँ जाने वालों में भी महिलायें ही ज्यादा होती हैं. जब आसाराम काण्ड ,प्रकाश में आया तो कई  जगह पढने को मिला, उनके प्रवचनों में महिलायें ही अधिक संख्या में उपस्थित होती थीं .  ये सवाल भी उठाये जाते हैं, स्त्रियों के साथ शोषण भी होता है और फिर भी बेवकूफ की तरह स्त्रियाँ ही सैकड़ों की संख्या में उनके भक्तों में शामिल होती हैं. 
 
गाँव-क़स्बों में औरतें जिन दयनीय हालात में जी रही होती हैं कहीं न कहीं उनका कारण भी वह नसीब या पिछले जन्म को मानने लगती हैं और धार्मिक अंधविश्वासों की चपेट में आकर अपने  वर्तमान और अगले जन्म की तकलीफों को दूर करने के फेर में पड़ जाती हैं . उन्हें अपने दुखों से छुटकारे का दूसरा उपाय नज़र नहीं आता. वे करुणा से इतनी भरी होती हैं कि ईश्वर से अपने पति और बच्चों के बुखार तक को ठीक करने की खातिर जाने कितने कर्मकाण्ड करने को तैयार रहती हैं, जबकि खुद को कैंसर भी हो तो यूँ ही मजाक में उड़ा देती हैं.  

जिस घर में जितनी अधिक समस्या, वहां की अशिक्षित या अल्पशिक्षित महिलायें उतनी ही अधिक धर्म के नाम पर अंधविश्वास की तरफ़ झुकी होती हैं, ज़रा किसी को कुछ हुआ नहीं कि थैलाछाप या छुटभैये देवी देवताओं से लेकर बालाजी और केदारनाथ तक के देवताओं से मनौतियाँ  मांगने लगती हैं .

इन सबकी वजह  अशिक्षा ,तार्किक बुद्धि का अभाव , धार्मिक आस्था तो है ही. इसके साथ ही  उनकी दैनंदिन की एकरसता भी एक वजह है. ज्यादातर मध्यमवर्गीय स्त्रियाँ नौकरीपेशा नहीं हैं और बचपन से वे वही काम कर रही हैं,घर संभालना...खाना बनाना , घर के सदस्यों की देखभाल . उनके जीवन में गहन नीरसता व्याप्त हो जाती है.  हमारे यहाँ कभी भी मनोरंजन के लिए जीवन में कोई स्थान नहीं होता. आजकल टी.वी. आया है...पर वो भी तो घर के अन्दर ही देख सकती  हैं . घर से बाहर जरा अच्छे कपडे पहन कर ,तैयार होकर निकलें ऐसा मौक़ा बहुत कम मिलता है. पिकनिक, पार्टियों का कोई प्रचलन नहीं  है. गरीबी तो एक वजह है ही. पर हमारे कल्चर में भी यह शामिल नहीं है. जब दूसरे देशों का साहित्य पढ़ती हूँ  तो पाती हूँ, वहाँ गाँव-गाँव में भी हॉल बने होते हैं, जहां सप्ताहांत में या महीने में एकाध बार ,स्त्री पुरुष मिलजुलकर गाते -बजाते -नाचते हैं .और उसके बाद रिफ्रेश होकर फिर से अपने रूटीन काम में लग जाते हैं.


हमारे यहाँ भी दूसरे रूप में यह सब विद्यमान था . पहले गाँव -कस्बों में किसी की शादी की  तैयारियां ही पंद्रह दिन चलती थीं.  स्त्रियाँ अपने घर का काम ख़तम कर शादी ब्याह वाले घर में काम संभालतीं . मंगलगीत गाते हुए पापड, बड़ियाँ,अचार बनातीं ....हंसी-मजाक के साथ -साथ सिलाई -कढ़ाई का काम चलता रहता .ढोलक की थाप पर नाच-गाना होता था ,पर अब वे सब कहीं पीछे छूट गए हैं. संयुक्त परिवार से एकल परिवार होते जा रहे हैं. मनोरंजन के नाम पर बस एक टी.वी. का सहारा . पर उस से कितना मनोरंजन होता है, यह सबको ज्ञात है. बल्कि टी.वी. मोबाइल ने घर वालों की ही आपस में बातचीत बंद करवा कर रखी है. फिर रूटीन में थोड़े से बदलाव के लिए यही पूजा-पाठ ,धरम करम , माता की  चौकी , गुरुओं के प्रवचन सुने जाते हैं.
 इन सबमें शामिल होने  के लिए न तो घरवाले न ही रिश्तेदार उन्हें बातें सुनाते हैं. वरना यही महिलायें अगर फिल्म देखने ,पार्टी-पिकनिक के लिए जाने लगें तो उन्हें सौ बातें सुननी पड़ेंगीं .

अपना ही अनुभव बताती हूँ. मुझे फिल्मों का शौक है, यह तो मेरे ब्लॉग  पोस्ट्स से ही ज्ञात होता है . सहेलियों के साथ फिल्मे देखने जाना .एक दुसरे के बर्थडे पर साथ मिलकर लंच के लिए जाना हमें अच्छा लगता है  . हम सब FB पर अपनी आउटिंग की तस्वीरें भी डाला करते थे . मुझ सहित मेरी हर सहेली को रिश्तेदारों से सुनना पड़ा..."ये लोग तो मजे करती हैं...बस घूमती  रहती हैं " इतनी दूर बैठे रिश्तेदारों को क्या पता कि हम घर की जिम्मेवारियों से मुहं घुमा कर या  सारी जिम्मेवारियां पूरी कर के जाते हैं ?? पर उन्हें तो उंगलियाँ उठाने से मतलब . वैसे हमें परवाह नहीं होतीं, पर बेकार के व्यंग्य कौन सुने ,यह सोच हमने तस्वीरें डालनी ही बंद कर दीं . आज  भी हमारे समाज में स्त्रियों का हँसना -बोलना, खुश रहना, घूमना-फिरना सहज स्वीकार्य नहीं है.

पर यही अगर तीर्थस्थान ,मंदिर, पूजा-पाठ के लिए स्त्रियाँ जाएँ तो लोग ऊँगली नहीं उठाएंगे . बल्कि शायद धरम-करम करने के लिए तारीफ़ ही मिले. इसलिए स्त्रियों को दोष देना कि वे बाबाओं के प्रवचन में जाती हैं...व्यर्थ के कर्मकांड करती हैं...फ़िज़ूल है. सारी स्त्रियों को अच्छी शिक्षा मिले , वे भी व्यस्त रहें , उन्हें भी मनोरंजन के मौके मिलते रहे तो इन सबमें ,उनका शामिल होना शायद कम हो जाए .

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

लेखा-जोखा चार बरस का

कई ब्लॉग्स पर साइड बार में लेबल लगा देखती हूँ , अच्छा लगता है देख, सारा लेखा-जोखा रहता है  वहां, किस विषय पर कितना लिखा गया . उन पोस्ट्स तक पहुंचना भी आसान  .जब भी नज़र पड़ती है ,  सोचती हूँ , 'हां ! मुझे भी ऐसा करना है ' पर मुझे लिखने के सिवा सारे काम सरदर्द लगते हैं . या कहूँ, परम आलसी हूँ इन सबमे , कई बार मित्रों ने कोई कहानी पढ़ कर कहा है , "इसे फलां पत्रिका में भेज दीजिये ." और मैंने उस वक्त तो हामी भर दी ...पर फिर टलता ही गया .उस वक़्त मुझे pdf file बनानी  भी नहीं आती थी, एक बार एक  कवि मित्र ने अपनी सदाशयता दिखाते हुए उस कहानी  की pdf file बना कर भी भेज दी ,उस प्रतिष्ठित पत्रिका की इमेल आई डी के साथ ..पर हमारा कल भेजने का प्लान कभी आज में तब्दील नहीं हो पाया .( अभी बच्चे होते तो इस बात के लिए कितनी डांट सुन जाते और मैं जैसे शान से बता रही हूँ ,नहीं...बता नहीं रही  ये बस loud thinking ...जैसा है :). पहले ही स्वीकार चुकी हूँ, ब्लॉग्स पर लिख लिख कर सोचती हूँ  ) . वजह, बस वही बुरी आदत.... सब कुछ समेटने के चक्कर में कुछ न कुछ या शायद बहुत कुछ तो फिसल ही जाता है , हाथों से :(

खैर आज का दिन तो उदासी का नहीं , क्यूंकि पिछले 21 सितम्बर को , ब्लॉगजगत में प्रवेश किये मुझे चार साल हो गए. और ये भूमिका इस लिए लिखी कि लेबल लगाने में तो थोडा वक़्त लगेगा (अगर मैं उस कार्य की शुरुआत करूँ ) .पर तीव्र इच्छा थी कि इन चार सालों में क्या क्या लिख डाला है, ज़रा एक बार बही खाता उलट-पुलट तो लूँ .और ये इतनी  मेहनत वाला काम कर ही डाला (ढेर सारे ब्रेक लेकर ) . देखकर आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी भी हुई और थोडा संतोष भी ...चाहे और काम में किये हों पर कागज़ काले करने में कोई कोताही नहीं की .

 

कहानी - 10
उपन्यासिका या लम्बी कहानी - 9 (17,14,14,4,3,2,2,2 ) किस्तों वाली .
कविता -9
सामजिक आलेख - 63
संस्मरण -- 86
स्त्री सम्बन्धी आलेख -31
बच्चों सम्बन्धी आलेख -- 15
खेल सम्बन्धी -- 11
फिल्म सम्बन्धी -- 21
 

इन सबके अलावा, कुछ व्यंग्य ,अखबारों में पढ़ी किसी खबर से सम्बंधित पोस्ट्स , परिचर्चाएं, अतिथि पोस्ट , नाटक और किताबो से सम्बंधित पोस्ट, ..इत्यादि हैं.

पर साथ में यह भी सच है कि हर वर्ष पोस्ट्स की संख्या कम होती जा रही है . (यहाँ हम यह कह कर निकल सकते हैं कि अब लिखने में quality  आ गयी है, इसलिए  quantity पर असर पड़ा है. जबकि सच ये है कि हम सुधरने वालों में से नहीं हैं, जैसी पहली दूसरी तीसरी लिखी थी, आज चार सौ पोस्ट लिखने के बाद भी ,कुछ बदलाव नहीं आया (ऐसा हम नहीं ज़माना कहता है.. ज़माना अर्थात हमारे पाठक. अब हमारे लिए तो वही ज़माना यानि हमारे संसार हैं ) .


अब चार सौ पोस्ट से याद आया ,पिछले साल तीसरी सालगिरह वाली पोस्ट लिखी थी तो  राजन और अविनाश चन्द्र   ने ध्यान दिलाया  कि तीन साल में तीन सौ से ऊपर पोस्ट लिख ली यानि हर साल, एक सेंचुरी . इस बार तो अपेक्षाकृत कम लिखा है, इसलिए सेंचुरी की उम्मीद तो नहीं थी . पर 'मन का पाखी' के 116 पोस्ट्स और इस ब्लॉग के  286  मिलकर 400 का आंकडा पार कर ही गए.. वो अलग बात है कि कुछ एक्स्ट्रा रन तो ओवरथ्रो की वजह से मिले हैं. यानि अब कहानी  दोनों ब्लॉग पर पोस्ट करना शुरू कर दिया है .पर हम तो स्कोर बोर्ड यानी डैशबोर्ड जो दिखाएगा ,वही देख ,खुश  होने वाले हैं (आज के जमाने में खुश होने का मौक़ा इतना कम जो मिलता है, जहां मौक़ा मिले, झट  से खुश हो लिया जाए :)}


अब ब्लॉगजगत के विषय में सबका कहना है कि लोग अब कम लिख रहे हैं , फेसबुक पर ज्यादा सक्रिय  हो गए हैं. इसमें कोई शक नहीं कि रौनक कुछ कम तो हुई है , पर वैसा ही जैसे किसी महल्ले के पुराने लोग महल्ला छोड़ कहीं और बसेरा बना लेते हैं, कभी-कभी अपने पुराने महल्ले में भी झाँक लेते हैं .पर उसी महल्ले में नए लोग आयेंगे, उनकी लेखनी से गुलज़ार होगी वह जगह.


एक बार बोधिसत्व जी के यहाँ, युनुस खान, प्रमोद सिंह, अनिल जन्मेजय, जैसे हमसे काफी पहले के ब्लॉगर्स इकट्ठे हुए थे. वे लोग चर्चा कर रहे थे ,'अब ब्लॉगजगत में वो मजा नहीं आता, सारे पुराने लोग चले गए ' जबकि मेरे लिए उस वक़्त ब्लॉगजगत में काफी हलचल रहती थी. और जिनलोगो का जिक्र वे लोग कर रहे थे, उन्हें तो हमने पढ़ा भी नहीं था .


फेसबुक पर सक्रिय तो मैं भी हूँ, पर फेसबुक किसी घटना ,किसी विषय का जिक्र करने,फोटो शेयर करने  तक ही सीमित है. घटना का विश्लेषण तो ब्लॉग पर ही किया जा सकता है. और मुझ जैसे लोगों को जिन्हें लम्बी पोस्ट लिखने की आदत है ,ब्लॉगजगत का ही सहारा है . हाँ, टिप्पणियों पर फर्क पड़ा है पर यहाँ हमें चुप ही रहना चाहिए. मैं खुद ही ज्यादा ब्लॉग्स नहीं पढ़ पाती और टिप्पणियाँ भी नहीं कर पाती . सॉरी दोस्तों :(


दोस्तों से ध्यान आया , कुछ बड़े  अच्छे दोस्त दिए हैं ब्लॉगजगत ने . कुछ तो मुझसे आधी उम्र के हैं, मेरे बच्चों से कुछ ही साल बड़े . पर बड़ी गंभीरता से मेरा लिखा पढ़ते हैं और अपनी बेबाक राय भी देते हैं. अब ब्लॉग के जरिये ही वे दोस्त बने वरना इन उम्र वालों से मेरा परिचय बस "हलो आंटी...हाउ आर यू ' से ज्यादा नहीं  होता . उनसे विमर्श , उनकी दुनिया में झाँकने  का अवसर भी प्रदान करता  है, जो मेरे लेखन को समृद्ध ही करता है.  और कई बार लोग मेरे ब्लॉग  का परिचय यह कह कर भी देते हैं , "युवा मानसिकता वाले इस ब्लॉग को ज्यादा पसंद करते हैं " .अब यह बात जिस भी अर्थ में कही जाती हो, हम तो इसे कॉम्प्लीमेंट की तरह लेते हैं. :)

कुछ ऐसे भी  पाठक हैं जो पिछले चार साल से मुझे लगातार बहुत ध्यान से पढ़ रहे हैं {कुछ तो पहली पोस्ट से ,उनके धैर्य को सलाम :)}...और अपने विचार भी रख रहे हैं . बड़ा वाला थैंक्यू आप सबका.

उन सबका भी बहुत बहुत शुक्रिया  जो मेरे ब्लॉग पे आते रहे, जाते रहे..कभी कभी आते रहे.. नहीं भी आते रहे :)....सफ़र तो चलता रहेगा भले ही लिखने की रफ़्तार धीमी  हो जाए, अगले साल सेंचुरी न बने पर की बोर्ड का साथ तो नहीं छूटने वाला ....अब खुद ही कह देते हैं...आमीन !!
:)
 
(ब्लॉग की पहली , दूसरी , तीसरी  सालगिरह पर भी बाकायदा पोस्ट लिख रखी है )

बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

पश्चिमी देशों द्वारा हल्दी ,नीम के औषधीय गुण एवं बासमती की खुशबू को अपना बताने की साजिश

कई गुदड़ी के लाल. की....धूल में खेलकर बड़े हुए पैरों के आसमान छूने की कहानियाँ सुनी हैं,पढी हैं  .पर किसी ऐसे ही व्यक्ति के श्रीमुख से उनकी जीवन कथा सुनना एक अनोखा अनुभव रहा .
बेटे का दीक्षांत समारोह था .अक्सर ऐसे समारोह में बस बच्चों को गाउन पहने डिग्रियां ग्रहण करते हुए देखना ही रुचिकर लगता है  वरना लम्बे लम्बे भाषण उबासियाँ लेने पर मजबूर कर देते हैं . पर जैसे ही मुख्य अतिथि के परिचय में दो शब्द कहा गया और उनकी उपलब्धियों में कुछ ऐसी बातों का जिक्र था जिनकी जानकारी मेरे लिए  बिलकुल नयी थी. मुख्य अतिथि  'डॉक्टर रघुनाथ माशेलकर ' जब छात्र-छात्राओं  और उनके अभिभावकों को   संबोधित करने आये  तो पूरा हॉल सतर्क हो गया..और बीच बीच में बजती तालियाँ इस बात की द्योतक थीं कि सबलोग रुचिपूर्वक ध्यान से सुन रहे हैं.

'रघुनाथ माशेलकर जी ' ने अपने विषय में बताया कि उन्होंने छः वर्ष  की उम्र में अपने पिता को खो दिया था .उनकी माता जी उन्हें लेकर काम ढूँढने मुंबई आ गयीं . वे छोटे मोटे काम करने लगीं और रघुनाथ जी को एक सरकारी स्कूल में दाखिल करा दिया . वे बॉम्बे सेन्ट्रल के प्लेटफॉर्म पर अपनी पढ़ाई किया करते थे . वे बता रहे थे तब साढ़े दस बजे गुजरात जाने वाली लास्ट ट्रेन मुंबई सेन्ट्रल से छूटती और उसके बाद प्लेटफॉर्म पर शान्ति होती, तब वे रात के दो बजे तक पढ़ाई करते . दसवीं की बोर्ड परीक्षा में वे राज्य में ग्यारहवें स्थान पर आये थे. पर फिर भी वे आगे पढाई न कर काम की तलाश में थे क्यूंकि उनकी माता जी उनकी पढ़ाई का खर्च उठाने में असमर्थ थीं. उसी वक्त 'टाटा ग्रुप' ने उन्हें अगले छः साल तक के लिए  प्रतिमाह साठ रुपये महीने की छात्रवृत्ति प्रदान की .रघुनाथ जी ने आगे की पढ़ाई जारी रखी और  मुंबई यूनिवर्सिटी से १९६६ में केमिकल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की और १९६९ में  इसी विषय में पी.एच.डी किया.


विदेश के कई विश्वविद्यालयों में लेक्चर दिए. भारत के विज्ञान और तकनीक  विभाग में नियम बनाने में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है. देश-विदेश में उन्हें करीब ५० से ज्यादा अवार्ड और कई विश्विद्यालयों ने उन्हें मानक डॉकट्रेट की उपाधि प्रदान की है ,वे  अनगिनत वैज्ञानिक कमिटियों के मेंबर रह चुके है . उन्हें 1991  में पद्मश्री और 2006 में पद्मविभूषण प्रदान किया गया . 

उन्होंने अपने भाषण में एक बहुत ही रोचक वाकये का जिक्र किया। अमेरिका में हर वर्ष विज्ञान,साहित्य, समाज-सेवा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम करने वाले पूरे विश्व से चुने गए  एक व्यक्ति को एक अवार्ड दिया जाता है. अब तक सात-आठ भारतीयों को भी यह अवार्ड मिल चुका  है। संभवतः  २०१०  में रतन  टाटा को यह अवार्ड मिला था और उसके अगले ही वर्ष 'रघुनाथ मालेश्कर ' को यह अवार्ड प्रदान किया गया. वहाँ  एक परिपाटी है कि  अवार्ड लेने वाला व्यक्ति वहां रखी  एक पुस्तिका में अपने हस्ताक्षर करता है। किसी करणवश 'रतन टाटा ' उस वर्ष  अवार्ड लेने नहीं जा सके ,और अगले वर्ष रघुनाथ  माशेलकर ' के साथ ही यह अवार्ड ग्रहण किया और उस पुस्तिका के एक ही पन्ने पर दोनों महारथियों ने हस्ताक्षर किये.  माशेलकर  जी ने कहा , "इसी टाटा ग्रुप की छात्रवृत्ति से मैंने शिक्षा ग्रहण की और ५० साल बाद टाटा ग्रुप के मालिक और उनकी आर्थिक मदद से पढ़े हुए एक व्यक्ति ने समकक्ष  रूप से यह अवार्ड ग्रहण किया।  

उन्होंने  ये भी जिक्र किया कि  एक बार किसी कॉन्फ्रेंस में सबसे  पूछा गया , कि  सबसे  महत्वपूर्ण फॉर्मूला क्या है ? किसी ने आइन्स्टाइन  का e = mc square बताया किसी ने   न्यूटन का F = ma बताया पर रघुनाथ जी ने कहा, मेरे लिए   e = f का फ़ॉर्मूला सबसे महत्वपूर्ण है यानि Education = Future . अच्छी  शिक्षा ही बेहतर भविष्य दे सकती है। वे इस बात पर बहुत जोर देते हैं कि  "knowledge is wealth and knowledge  creates wealth" 

माशेलकर जी ने बहुत सारे महत्वपूर्ण अनुसंधान किये हैं जो मुझ जैसी  सामान्य बुद्धि वाली  की समझ में नहीं आने वाले। विज्ञान के छात्र ही समझ सकते हैं। यहाँ विस्तार से इसका जिक्र है।
 
पर हमारे लिए यह बात बहुत महत्वपूर्ण रही कि हल्दी के औषधीय गुण, जिसे हमारे  देश में हज़ारो साल से जाना जाता है और प्रयोग में लाया जाता है।  इस जानकारी को एक पश्चिमी   देश ने अपने नाम से पेटेंट करवा लिया था।  माशेलकर जी ने इसके लिए लम्बी लड़ाई लड़ी , पुराने ग्रंथों से कई साक्ष्य प्रस्तुत किये ,उसके बाद पुराने निर्णय को बदलकर भारत के नाम से इसे पेटेंट करवाया गया . इसी तरह बासमती चावल में  खुशबू की खोज को  भी texas ने अपने नाम से पेटेंट करवा लिया था। नीम के औषधीय गुण को भी पश्चिमी देश अपनी खोज बता रहे थे।  माशेलकर जी के प्रयासों से इन निर्णय  को बदलकर भारत के नाम से पेटेंट करवा लिया गया।  

माशेलकर जी ने यह भी जिक्र किया कि 'रेडियो' का आविष्कार 'जगदीश  चन्द्र बोस' ने किया था। सिस्टर निवेदिता ने उनसे आग्रह भी किया, अपने नाम से पेटेंट करवाने का पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया और आज इतिहास में रेडियो के आविष्कारक के रूप में मार्कोनी का नाम दर्ज है। इसी वजह से माशेलकर जी ने intellectual property को रजिस्टर कवाने पर बहुत जोर दिया और इसके लिए बहुत काम किया 
माशेलकर जी के  नेतृत्व में  CSIR ने सिर्फ तीन वर्षों में अमेरिका में पेटेंट किये गए अनुसंधानों में ३०%-४०% भारत के नाम दर्ज करवाए। 

डॉक्टर रघुनाथ माशेलकर ने अपनी मेहनत  और लगन से अपने बुरे दिनों का सामना किया और उन्हें परास्त किया।  आज भी विज्ञान और तकनीक  के क्षेत्र में वे कई महत्वपूर्ण पदों पर उसी मेहनत ,लगन ,दूरदर्शिता और देशभक्ति की भावना से काम कर रहे हैं। 

शनिवार, 14 सितंबर 2013

मेरा साथी -शिक्षक-पथप्रदर्शक : 'धर्मयुग'

शिक्षक दिवस पर जो पोस्ट लिखी थी, उसके बाद ही यह पोस्ट लिखनी थी पर गणेशोत्सव की तैयारियों ने इतना व्यस्त रखा कि देर होती गयी और संयोग ऐसा है कि आज हिंदी दिवस के दिन लिखने का मौक़ा मिल रहा है . वैसे तो किसी ख़ास को याद करने के लिए कोई ख़ास दिन निश्चित नहीं होना चाहिए . पर ये दिन उनकी यादों में डूबने उतराने का बहाना तो दे ही देते हैं.

यूँ तो हिन्दी हमारी मातृभाषा है ही...पर हिंदी से प्यार करना उसने सिखाया जिसे मैं बेझिझक अपना असली गुरु कह सकती हूँ. प्राइमरी से लेकर एम. ए .तक कई शिक्षक /शिक्षिकाओं ने अपनी शिक्षा से हमारे व्यक्तिव निर्माण में सहयोग दिया  पर एक शिक्षक -साथी- पथप्रदर्शक जो हमेशा साथ रहा वो था "धर्मयुग " .  साहित्य से प्रेम, खेल -फिल्मों में रूचि , मेरी सोच , मेरा व्यक्तित्व ,मेरा लेखन सब इसी पत्रिका की देन है.

 वाक्यों को जोड़ जोड़ कर पढना शुरू किया और तब से ही शायद 'धर्मयुग' पढना भी शुरू कर दिया . शुरुआत तो आबिद सुरती के 'कार्टून कोना ढब्बू जी' से ही हुई होगी . फिर बाल-जगत, क्रीड़ा-जगत , फिल्म -जगत से गुजरते हुए ,राजनीति पर गूढ़ आलेख और कहानियाँ , धारावाहिक उपन्यास भी पढने लगी. धर्मयुग साप्ताहिक पत्रिका थी और काफी बड़े आकार की . आजकल तो कोई भी पत्रिका इतने बड़े आकार की  नहीं है पर उन दिनों धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और Illustrated Weekly  बहुत बड़े आकार  में आते थे .जाहिर है अन्दर पढने की सामग्री भी बहुतायत में होती थी. धर्मयुग के शुरू में ही दो पन्नों में होतीं थीं  "आँखों देखी  ख़बरें " छोटे-छोटे चित्रों सहित ढेर सारी ख़बरें लिखी होती थीं. देश विदेश की कोई भी खबर नहीं छूटती थी .और धर्मयुग के पाठक बिलकुल अपडेट रहते थे .

धर्मयुग में हर सप्ताह एक कहानी और धारावाहिक उपन्यास की एक क़िस्त  छपती  थी . 'संजीव', प्रियंवद , गोविन्द मिश्र ,मिथिलेश्वर , मंजूर एहतेशाम, मेहरुन्निसा परवेज़  आज कथा जगत में ये नाम एक सशक्त हस्ताक्षर हैं .इन सबकी पहली कहानी (या प्रथम  कहानियों में से )धर्मयुग में ही छपी थीं . सूर्यबाला. मालती जोशी, पानू खोलिया, स्वदेश दीपक ,शिवानी , स्नेह मोहनीश, चित्र मुद्गल इनकी कहानियां तो नियमित ही पढने को मिलतीं.और मैं इनके लेखन की जबरदस्त फैन थी. कुछ कहानियाँ समझ में नहीं आतीं . फिर भी मैं चार बार पढ़ जाती . कमलेश्वर , मन्नू भंडारी , जैसे सशक्त कथाकार भी लगातार धर्मयुग में लिखते थे . एक बार स्कूल की लाइब्रेरी के रख रखाव का काम हम कुछ लड़कियों को सौंपा गया था .वहाँ मुझे धर्मयुग की बहुत  सारी पुरानी प्रतियां मिल गयीं . {सहेलियां काम करतीं  और मैं उनकी डांट खाते हुए चुपके चुपके धर्मयुग पढ़ा करती  :)}उनमें ही मन्नू भंडारी के मशहूर उपन्यास "आपका बंटी " की कुछ किस्तें पढ़ीं . कमलेश्वर की  "आगामी अतीत " (अगर मुझे नाम ठीक याद है ) भी पढ़ी जिस कहानी पर गुलज़ार ने एक बेहतरीन फिल्म मौसम बनायी . 'कामना चंद्रा' की कहानी  जिसपर फिल्म  'चांदनी' बनी .कुछ और कहानियों के साथ इसके  पन्ने  भी अब तक मेरे पास सहेजे हुए हैं . इतनी उच्च कोटि की कहानियाँ होती थी कि जीवन में कुछ सीख देकर ही जातीं .
 

नयी कविताओं का दौर था और धर्मयुग में भी ज्यादातर वैसी कवितायें ही छपतीं पर हमें ज्यादा समझ नहीं आतीं. सूर्यभानु गुप्त की गज़लें और कैलाश गौतम की कवितायें ही पसंद आतीं .  एक कविता थी ,'भाभी  की  चिट्ठी देवर के नाम " जिसमे एक भाभी गाँव  का सारा हाल शहर में बसे देवर को चिट्ठी में लिखती है. "पड़ोस की गाय ने बछिया दी है.... मन करता चूल्हे की माटी खाने को " ऐसा ही बहुत कुछ था ..बड़ी अच्छी कविता थी और बहुत चर्चा हुई थी ,उसकी .शायद नेट पर मिल जाए . एक कविता 'राखी का ऋण ' जिसके रचयिता का नाम नहीं याद पर मैंने अपने नोटबुक में नोट करके रखी थी..यहाँ पोस्ट भी की थी .
  
क्रीड़ा जगत में क्रिकेट, टेनिस, बैडमिन्टन, हॉकी  से सम्बंधित आलेख होते . पर ज्यादा बोलबाला क्रिकेट का ही रहता . जब भारत में कोई टेस्ट सीरीज खेली जाती तो बाकायदा क्रिकेट विशेषांक ही निकलता था और तब जरूर धर्मयुग की अतिरिक्त प्रतियां छपती होंगी क्यूंकि बहुत सारे लोग जो नियमित धर्मयुग नहीं लेते ,वे भी वो अंक जरूर खरीदते . दुसरे खेलों का तब भी वही हाल था जो अब है .पर जब प्रकाश पादुकोण ने 'विश्व कप जीता था तो मुखपृष्ठ पर कप के साथ प्रकाश पादुकोण और उनकी पत्नी  'उज्जला करकल ' (जो तब मंगेतर ही थीं ) की  बड़ी सी तस्वीर छपी थी . एक और तस्वीर याद आती है 'क्रिस एवर्ट ' और 'विजय अमृतराज' की .विजय अमृतराज ने क्रिस के कंधे पर हाथ रखा हुआ था . क्रिस के उजले गोरे कंधे पर अमृतराज के गहरे रंग के हाथ बहुत ही अजीब से लग रहे थे . उस वक्त मैं बहुत ही छोटी थी फिर भी ध्यान से उस फोटो को देख रही थी  और सोच रही थी, इतने गहरे रंग का व्यक्ति इतना हैंडसम कैसे हो सकता है ? (शायद उसे पहला क्रश कह सकते हैं ..दूसरा भी जरूर हुआ होगा..ऐसे ही कुछ लिखते वक़्त ख्याल आ जायेगा :)}
 

'हास्य व्यंग्य ' का भी एक पेज होता था .जिसमे अक्सर शरद जोशी के आलेख निकलते और शायद धर्मयुग की वजह से ही हास्य के पसंद का स्तर इतना अलग हो गया कि अब कोई कॉमेडी फिल्म -शो पसंद ही नहीं आते . होली पर हास्य कवियों की कुछ रोचक परिचर्चाएं तो अब तक याद हैं . कुछ साल पहले शरद जोशी की बिटिया 'नेहा शरद ' एक मॉल में मिल गयीं . मैंने उनसे 'शरद जोशी' उनकी पत्नी 'इरफाना शरद' की भी ढेर सारी बातें कीं (धर्मयुग में पढ़ी  हुई ही ) वे भी सुनकर बहुत खुश हुईं कि मुझे इतना कुछ याद है.
 

राजनीति परक आलेखों में कम रूचि थी पर पढ़ जरूर लेती थी. और अब लगता है धर्मयुग के आलेखों का टोन शायद समाजवादी होता था . वामपंथी या दक्षिणपंथी नहीं .शायद इसीलिए मेरा रुझान भी समाजवाद की तरफ ही है. पर ज्यादा गहरे मैं तब भी नहीं जाती थी  .आज भी दूर ही रहती हूँ . 

 

 दो पन्ने फिल्म जगत के भी होते थे . फ़िल्मी कलाकारों के साक्षात्कार या उनपर आलेख  होते थे. पर कभी भी कोई 'चीप गॉसिप' नहीं पढने को मिलती. नयी रिलीज़ हुई फिल्मों की समीक्षाएं भी होती थी (और उन्हें पढ़कर जब मैं हॉस्टल  जाती तो सहेलियों पर डींगें मारती कि ये फ़िल्में मैंने देख ली हैं )
 

नारी-जगत में पकवानों की विधि , हस्तकला ,नारी सम्बन्धी आलेख, परिचर्चाएं हुआ करती थीं. धर्मयुग में ही देखा था , चाय की छन्नी के ऊपर कपडा लगाकर एक गुडिया का चेहरा और छन्नी की डंडी पर कुछ कटे कागजों का नोटपैड जैसा बनाने की  विधि . मेरे  बेटे को जब स्कूल में  Best out of waste  बनाना था तो मैंने उसे यही बनाना सिखाया .स्कूल के प्रदर्शनी में भी उसे रखा गया था और बहुत पसंद आयी थी लोगों को .

धर्मयुग एक ऐसी पत्रिका थी, जिसमे सबकी रूचि का कुछ न कुछ होता था . और मेरी रूचि तो हर विषय में थी . अब किसी विषय की master तो मैं अपनी वजह से नहीं बन सकी  पर  jack of all trades  निश्चय ही धर्मयुग  ने बना दिया .

कई बड़े लेखकों का कहना था , धर्मयुग के सम्पादक 'धर्मवीर भारती ' अपना ज्यादा समय लेखन को नहीं दे पाए,उन्होंने  अपना सारा समय धर्मयुग के सम्पादन में लगा दिया. पर उनके सफल सम्पादन ने 'धर्मयुग' को इतनी उच्च  कोटि की पत्रिका बना दिया था कि  मेरे जैसे कितने ही लोगों का मार्गदर्शन  उनके व्यक्तिव निर्माण में धमर्युग ने अपना सहयोग दिया . प्रोफेशनली जो लोग धर्मयुग की वजह से आगे आये , 'उदयन शर्मा, सुरेन्द्र प्रताप सिंह ' इनलोगों को तो सारी दुनिया जानती है पर आम लोगों के जीवन में भी इस पत्रिका के नियमित पठन ने महत्वपूर्ण  बदलाव लाये हैं. मेरी बदकिस्मती है कि मैंने धर्मयुग के युवा जगत में लिखना शुरू  किया तब  तक टेलीविजन का दौर शुरू हो चुका था .लोगों की पढने की आदतें छूटने  लगीं और मनोरंजन के लिए लोग टी.वी. का सहारा लेने लगे और मेरी प्रिय पत्रिका बंद हो गयी . मुझे खुद से ज्यादा मेरे बाद वाली पीढ़ियों के लिए अफसोस है कि वे एक इतनी अच्छी पत्रिका से वंचित रह गए .

अगर मेरे जीवन में धर्मयुग नहीं होता तो मेरा व्यक्तित्व अच्छा होता या बुरा ये नहीं पता पर अलग होता यह तो निश्चित है .

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