शनिवार, 30 मार्च 2013

शोभना चौरे जी की नायाब इडली का स्वाद और पल्लवी सक्सेना के फुल साइज़ मिरर की मांग

(पिछली पोस्ट में आप सबने लावण्या शाह जी, रंजू भाटिया, रचना आभा, स्वप्न मञ्जूषा 'अदा' ,सरस दरबारी कविता वर्मा एवं वन्दना अवस्थी के रोचक संस्मरण पढ़े ....आज प्रस्तुत है दो और अनूठी यादें  )


शोभना चौरे  :  काकी वाली फेमस इडली 
 पहले दिन का तो कोई खास संस्मरण नही है किन्तु शादी के करीब दो महीने बाद यानि की सन 7 4 के जुलाई महीने की बात है । शादी केबाद  एक महीने तक तो गाँव में ही रहना हुआ उसके बाद सपनो की नगरी मुंबई में जाना हुआ जहाँ हमें गृहस्थी बसानी थी । उन दिनों मध्यम वर्गीय परिवारों का फ़्लैट में रहना बड़े स्टेट्स की बात थी, तो हमको फ़्लैट में रहने को मिला साथ ही पतिदेव के बचपन के मित्र भी अपने परिवार के साथ एक ही फ़्लैट में रहे ।भाभी हमसे बड़ी थी और मुंबई में हमसे सीनियर भी थी ।हमने  एक रविवार को अपनी पाक कला में निपुणता दिखने के लिए कह दिया की हम रविवार को इडली का नाश्ता करवायेगे ।उन दिनों 

उत्तरभारत में इडली का आज जितना प्रचलन नहीं था हमने भी बस  पत्रि का में पढ़ा ही था और मुंबई में एक बार खाई थी भाभी से पूछा तो उन्होंने भी कहा हाँ मुझे आती है । बस शनिवार रात  को भिगो दिया दाल चावल ये  तो सोचा नही की इसे पिसना भी होगा तब कोई mixer grinder तो था नहीं भाभी ने कहा ऊपर एक मद्रासी (तब हमे भी मालूम नहीं था साऊथ में चार स्टेट हैऔर सभी मद्रासी नहीं होते  हम तो सभी को मद्रासी ही कहते थे )आंटी है,, उनके पास घोटा (इडली डोसा पिसने का गोल पत्थर )है वाही से ले आते है हम भी उत्साह में चले गये, घोटे को देखकर हाथ पांव ढीले पड़  गये बहुत भारी । भाभी ने कहा यही पिस लेते है पर आंटी ने कहा हमे बाहर  जाना है !अब इतने भी नजदीक नहीं थे की वो हमे चाबी दे जाती वो भी मुंबई में ?सो हम दोनों के कहा हम इसे ले जाये ?
 आंटी  ने कहा -मुझे कोई एतराज नहीं किन्तु शाम को दे देना मुझे भी पिसना है हम ख़ुशी ख़ुशी अति उत्साह में घोटा उठाकर ले आये हरेक सीढ़ी  पर रखते रखते पसीने से तर  बतर ।अब आई पिसने की बारी दाल चावल डाल दिए  और साथ में पानी  लगे छपा छप कूटने चावल और पानी उड़ उड़ कर बाहर आकर किचन की मोजक टाइल्स पर सफ़ेद  रंग की चित्रकारी करने लगा ।  वो तो भला हो कम वाली बाई का जो बर्तन साफ करने आई थी उसने जब हम दोनों की हालत देखी   तो हसने लगी और पूछने लगी ?
काय झाला ?
क्या हुआ? हमने उससे कहा इडली बनानी है ।
उसने कहा - ऐसे थोड़ी न पिसते है ?
फिर उसने हमे बताया ,पिसना!\
 पहले सारा पानी निकाला फिर बट्टे को घोल घोल घुमाकर थोडा थोडा पानी डालकर पिसते रहना ।फ़िर हमने जैसे तैसे पिसा ।बाई  भी काम  करके चली गई हमे थोड़ी शांति हुई की अब हमारा मजाक कम होगा । पर अभी कहाँ  ?अभी तो बहुत कुछ बाकि था ।

अब इडली  बनाई किस बर्तन में जाय ,आंटी भी बाहर  चली गई थी फिर इडली पात्र किससे मांगते ? फिर एक भगोने में चलनी रखकर थाली में ढोकले ही तरह पकाना शुरू वो भी  केरोसिन स्टोव पर ,बार बार देखने के बाद भी इडली पत्थर? जबकि पतीली का पूरा पानी सूख गया । उधर भाभी का बच्चा रो रहा था पतिदेव और भाई साहब की ऑफिस की बाते भी ख़त्म हो रही थी वो लोग भी बार बार किचन में झांककर देखते ।
हमने भी उन्हें ज्यादा देर इंतजार न कराते हुए इडली के पीस  किये  औ मूंगफली की चटनी के साथ प्लेट में दे दी इडली ।,और वहां से किचन  में आ गये भाभी भी बच्चे को सुलाकर आ गई कहने लगी, कहाँ है? मेरी इडली ?उन्हें भी एक प्लेट में देदी इडली । उन्होंने तो मुहं में रखते ही बाहर  निकाल  दी! तब तक पति देव भी प्लेट लेकर किचन में आये और मै  अभी आता हूँ कहकर बाहर निकल गये| मै कुछ समझ ही नहीं पाई कुछ गडबड तो जरुर है ?मै भाभीजी से पूछती ही रही बताइए न  क्या बात है ?वो मंद मंद मुस्कुराती रही | भाई साहब से तब मै बात नहीं करती होने  थी नई नई  जो थी ?

और भाभी भी फिर से बच्चे को देखने दुसरे कमरे में चली गई मैंने सफेद चित्रकारी की थोड़ी सफाई की जब तक पतिदेव भी हाथ में पेकेट लेकर आ गये और कहने लगे रामान्न्जेय होटल से इडली लाया हूँ फटाफट प्लेट लगाओ भैया भाभी को दो उन्हें कब से भूख लगी है मै  शरम से पानी पानी हो रही थी ।फ़िर भाभी को आवाज दी और हम सबने इडली खाई ।खाने पर मालूम पड़ा इडली ऐसी होती है, इतनी नर्म और इसके साथ चटनी सांभर भी खाया जाता है | सबने  कहा- कोई बात नही ? पहली बार ऐसा ही होता है । शाम को जब मद्रासन आंटी घोटा मांगने आई तो उन्होंने कहा -इडली पात्र ले लेना इडली बनाने के लिए । भाभी और हमने साथ ही कहा हमने तो इडली बना ली !

अरे बिना खमीर उठे ही इडली कैसे बन गई ?तब हमे याद आया की घोल को पिसने के बाद कम से कम 6 से 7 घंटे तक रखना पड़ता है खमीर के लिए ,हमने पढ़ा था कितु बाद वाली लाइन  भूल गये थे जैसा की हमेशा होता है इसीलिए हमेशा पढाई में भी कम नम्बर आते थे | 

खैर वो पत्थर  इडली  सबको अभी तक याद है भाई साहब के बच्चे तो अभी तक कहते है काकी वाली इडली मत बनाना |


पल्लवी सक्सेना : अब नयी नवेली बहु अपना रूप कहाँ निहारे :)

मेरी शादी काफी जल्दी हो गयी थी उस वक्त मेरा एम.ए भी पूरा नहीं हो पाया था। यानी मेरी उम्र कुल 22-23 साल ही थी। जब मेरी सहेलियों को मेरी सगाई के बारे में पता चला तो किसी को पहली बार में यक़ीन ही नहीं हो रहा था कि मैं सच बोली रही हूँ। उस वक्त सब को यही लग रहा था, कि मैं मज़ाक कर रही हूँ। 

खैर जब सब को यक़ीन हो गया कि यह मज़ाक नहीं सच है। तब सब ने मुझ से मेरे ससुराल के बारे में पूछा कि कौन-कौन है...वहाँ परिवार में कितने सदस्य हैं वगैरा-वगैरा, मैंने सब को अपनी सगाई का एल्बम दिखते हुए बताया भी कि मैं सब से बड़ी बहू बने जा रही हूँ उस घर की, मेरे दो देवर है, मेरे इतना कहने कि देर थी कि जाने क्यूँ सब के मुँह से एक साथ निकला देवर तो ठीक हैं, यह बता ननंदें कितनी है क्योंकि वह कहते हैं ना “यार ननंदें तो मिट्टी कि भी बुरी होती हैं” औरफिर सब हंस दिये क्योंकि सभी जानते थे कि आगे आने वाली ज़िंदगी में यह नंदों वाली भूमिका सभी को निभानी थी।

खैर फिर सब ने सास के बारे में पूछा तो मैंने बताया वह बहुत अच्छी हैं, स्वभाव की  बहुत नरम है और उसे भी बड़ी बात यह है कि उनका खुद का “ब्युटि पार्लर” है तो वह एक व्यापारी महिला है इसलिए किस से कैसे बात करनी चाहिए, इस बात की उनको बहुत अच्छी समझ है। मगर मेरी दूसरी बात पर तो जैसे किसी ने ध्यान देना ज़रूर ही नहीं समझा था। सब “ब्युटि पार्लर” का नाम सुनकर ही बहुत खुश थे। 

सबका यही कहना था, यार तेरे तो मजे हो गए। घर का पार्लर है अब तो, जो मन करे कराते रहो वह भी मुफ्तमें इसे ज्यादा और क्या चाहिए। इसे यह ज़ाहिर होता है कि उन दिनों लड़कियों में ब्युटिपार्लर का कितना क्रेज़ हुआ करता था। मेरे मन में भी उस वक्त कुछ ऐसे ही ख़्याल थे।

हालाँकि मुझे पार्लर जाने का कोई खास शौक़ नहीं था मगर मैं अपने घर में एकलौती बेटी हूँ। इसलिए मेरे घर की ड्रेसिंग टेबल मुझे हमेशा सजी संवरी ही मिली हाँ यह बात अलग है कि उस पर रखे सौंदर्य प्रसाधन कभी बदलते नहीं थे जैसे nail polish का रंग फिक्स था लिपस्टिक (lipistick) का रंग फिक्स था कॉम्पैक्ट (compact) पाउडर तक का रंग फिक्स था और कंपनी भी, क्योंकि अपनी माँ की पसंद ही मुझे पसंद थी हाँ कभी-कभी नेल पोलिश का रंग मैं अपने हिसाब से लगा लिया करती थी मगर बाँकी सब हमेशा मम्मी की पसंद का ही रहा।

अब यही छवि लिए जब में पहली बार ससुराल पहुँची, तो शुरुआत में तो घर मेहमानों से भरा होता ही है तो मेरा तैयार होना पार्लर में ही होता था। लेकिन जब मेहमानों के जाने के बाद रोज़ मर्रा की साधारण शुरुआत हुई तब मैंने देखा इनके घर में तो एक बड़ा आईना तक नहीं है तैयार होने के लिए, ड्रेसिंग टेबल तो बहुत दूर की बात है। मैं इतने आश्चर्य में थी कि क्या कहूँ क्योंकि मैंने तो बचपन से अपने घर में ड्रेसिंग टेबले देखी थी और फिर यहाँ भी जब घर कि महिला का खुद का पार्लर हो और उसके ही घर में इस समान का ना होना मेरे लिए बहुत ही आश्चर्य की बात थी।

अब नयी नवेली होने के कारण में अपनी सास से तो कुछ बोल नहीं पायी मगर पति देव सेबोला कि आपकी मम्मी इतना बड़ा और अपने इलाक़े का इतना मशहूर पार्लर चलाती है और आपके घर में एक शीशा तक नहीं है तैयार होने के लिए भला ऐसा क्यूँ, इस बात पर वह मुस्कुराये और जाकर सासु जी से सब कह दिया कि देखो यह कह रही है कि तुम्हारी मम्मी का इतना बड़ा पार्लर है और घर में एक आईना तक नहीं है तैयार होने के लिए, मैं बहुत डर रही थी कि इन्होंने ने सब कह दिया सासु माँ से अब जाने क्या होगा वह क्या सोचेंगी मेरे बारे में अंदर ही अंदर डर भी लग रहा था और पतिदेव पर ग़ुस्सा भी बहुत आ रहा था। यह सोच-सोचकर कि इन को क्या जरूरत थी यह बात अपनी माँ को जाकर बताने कि अपने तक ही नहीं रख सकते थे

लेकिन उनके मुँह से यह बात सुनकर सासु माँ को भी हंसी आ गई और वह बोली बिटिया
भले ही अपना पार्लर है मगर घर में तो सब बेटे ही हैं न, बेटी है ही नहीं, जो इस तरह कि
फ़रमाइश करती कभी, तो कहाँ से बड़ा आईना होगा घर में, इसलिए हमारा भी ध्यान इस
बात पर गया ही नहीं कि इसकी भी बहुत जरूरत है घर में और सब हंसने लगे। अगले ही
दिन एक full size mirror मेरे कमरे में रखवा दिया गया J

गुरुवार, 28 मार्च 2013

कविता वर्मा को होली का इंतज़ार और वंदना अवस्थी दुबे का होली खेलने से इनकार

(पिछली पोस्ट में आप सबने लावण्या शाह जी, रंजू भाटिया, रचना आभा, स्वप्न मञ्जूषा 'अदा' एवं सरस दरबारी जी के रोचक संस्मरण पढ़े ...आज अपनी यादों के झरोखे खोल मीठी मीठी यादें समेट लाई हैं कविता एवं वन्दना .)


कविता वर्मा : किसने किसने खेली है, ये दो मिनट वाली  होली :)

शादी के बाद पहली होली ,वैसे तो हमारी सगाई और शादी के बीच डेढ़ साल का फासला था इस बीच होली भी पड़ी .लिफाफे में गुलाल भेज कर मैंने पतिदेव को जता ही दिया था की मुझे होली खेलना बहुत पसंद है .उन्हें भी रंगों का ये त्यौहार बहुत पसंद है . 
शादी के बाद पहली होली का हम दोनों को ही इंतज़ार था .उस समय हम इंदौर से बीस किलोमीटर दूर एक गाँव में थे जहाँ उनकी पोस्टिंग थी .बाकी पूरा परिवार इंदौर में था तो हर छुट्टी तीज त्यौहार पर इंदौर आना जाना लगा रहता था . होली भी इंदौर में ही मनानी थी इसलिए सुबह जल्दी ही बाइक से इंदौर जाना तय हुआ . हाँ जाने से पहले हमने एक दूसरे को गुलाल जरूर लगाईं ,और पहली होली के साथ प्यार का रंग गालों पर बिखर गया . लेकिन होली के शौकिनो के लिए इतनी होली तो काफी नहीं थी . लेकिन बाइक से जाना था इसलिए मन मसोस कर रह गए . 

हमारे परिवार में होली का बहुत ज्यादा शौक किसी को नहीं है लेकिन फिर भी तय हुआ की पहले खाने की तैयारी कर ली जाये फिर होली खेलेंगे . मन तो होली खेलने के लिए मचल रहा था लेकिन फिर भी खाना बनाया गया .सिर्फ पूरी गर्म गर्म बनाने के लिए छोड़ दी गयी उसके लिए आटा लगा कर रख दिया . इस बीच "ये " अन्दर बाहर होते रहे और जैसे ही देखा खाने की तैयारी हो गयी होली शुरू हो गयी .दोनों ननद ,देवर ,जिठानी सभी को रंग लगाया तभी छोटी ननद ने पानी से मुंह धोया और आकर बोली देखो भाभी रंग तो चढ़ा ही नहीं .मैंने दूसरी बार उसे रंग लगाया जिसे उसने पानी से धो दिया और हंसने लगी .जब हम खाना बना रहे थे दोनों ननदों ने हाथ पैर चेहरे पर खूब सारा तेल लगा लिया था जिससे रंग चढ़ ही नहीं रहा था . जबकि रंग लगाने के चक्कर में मेरे हाथ ज्यादा रंग गए थे . 
मैंने चुपके से अपने हाथ पर साबुन लगाया और पीछे से जाकर ननद के चेहरे पर मल दिया साथ ही हिदायत दी की साबुन लगा रही हूँ आँखें मत खोलना .साबुन से चेहरा धोकर अब मैंने पक्का रंग हाथ में लिया और उनके चेहरे पर लगा दिया .उसके बाद तो हमने पानी से खूब होली खेली ,लेकिन सबके बीच में भी हम दोनों ने एक दूसरे को तो रंग लगाया ही नहीं था .हम बस हसरत से एक दूसरे को देख रहे थे .एक बार रंग लगा कर गले लगने की इच्छा दोनों की ही आँखों में तैर रही थी .होली तो लगभग ख़त्म हो चुकी थी सब स्नान की तैयारी में लग गए .ऐसा लगा कि हमारी पहली होली ऐसे ही रह जायेगी .मैं उदास सी आँगन में खड़ी थी तभी इन्होने ने मुझे कमरे के पीछे के कोने में खींच लिया और ढेर सारा रंग लगा दिया मेरे पास रंग तो था नहीं तो अपने गाल से इनके गाल पर रंग लगा कर हम एक दूसरे के गले लग गए लेकिन कोई आ न जाए का डर भी था .दो मिनिट वाली उस होली के लिए हुए इंतज़ार ने पहली होली को यादगार बना दिया . 

वंदना अवस्थी दुबे : जो रोगी को भाये, वही वैद्य  फरमाए 

रश्मि, तुम्हारा मेल मिला तो खूब खुश हुई. लगा खूब मज़े ले के लिखूंगी. झट पिछले चौबीस साल रिवाइंड कर डाले   आंखें बन्द कीं, और पच्चीस नवम्बर 1988 में पहुंच गयी.   पन्ने पलटते गये, पलटते गये, लेकिन ये क्या? एक भी मज़ेदार घटना नहीं निकली?? 
ये कैसी ज़िन्दगी है, जिसमें देखा जाये तो आनन्द ही आनन्द है, लेकिन रोचक घटना एक भी नहीं!!! 

लड़कियों की शादी की बात चलती है, और कई दिनों तक घर में आने वाले रिश्तों पर सभा बैठती रहती है, जैसा मेरी दोनों दीदियों की शादी के समय हुआ, लेकिन मेरी शादी! मेरा रिश्ता ढूंढने पापा को कहीं जाना ही नहीं पड़ा. उमेश जी ( मेरे पतिदेव) के मामाजी मेरे पापा के सहकर्मी थे, और उनका रोज़ ही मेरे घर आना होता था. एक दिन उन्होंने ही अपने भांजे को मेरे लिये सुयोग्य वर घोषित कर दिया  और मैं तमाम तस्वीरों में से वर चुनने के सुख से वंचित रह गयी 
विदा  हो के ससुराल आई तो यहां अलग ही आभिजात्य था. मेरा मायका साहित्य और संगीत का अखाड़ा था तो यहां पूरा का पूरा प्रशासनिक अमला था 
सबको अपने पद की गरिमा का पूरा खयाल था, या पद के मुताबिक अनुशासित रहने की आदत हो गयी थी. लोग मुस्कुराते भी होंठों की कोरों से. खुल के हंसना मना हो जैसे  . लगा कहां आ गयी मैं? सबने हाथोंहाथ लिया, जरूरत से ज़्यादा खयाल रखा गया नयी दुल्हन का, इतना खयाल की मैं उकता गयी  

खैर, जब घर मेहमानों से खाली हुआ तो कुछ ताज़ा हवा भी आनी शुरु हुई. दो देवर, दोनों आज्ञाकारी . मेरे आगे-पीछे घूमते, केवल इसलिये, कि पता नहीं कब भाभी को उनकी जरूरत पड़ जाये. तीन महीने बाद ही होली थी. तमाम लोगों से उनकी होली के अनुभव सुने थे, सो मन डरा हुआ था. डर इसलिये भी था, कि मुझे होली खेलना एकदम पसन्द नहीं. लगा कि अगर यहां मेरे साथ होली हुई तो रंग कैसे छुड़ाउंगी?  घर का माहौल और दोनों देवरों के रवैये से हांलांकि मुझे किसी शैतानी की उम्मीद नहीं थी. छोटा कुक्कू मुझसे एक साल छोटा है, जबकि नीलू भैया मुझसे चार साल बड़े हैं. लेकिन रिश्ते में मैं बड़ी हूं, सो कभी पलट के मेरी बात का जवाब नहीं देते थे, आज भी नहीं देते.

तो मामला होली का था. जिस रात होलिकादहन था, उस दिन मैं बड़ी परेशान. कैसे पता लगाऊं कि यहां होली खेली जायेगी या नहीं?  आखिरकार मैने ही बात शुरु की-
" नीलू भैया, आप लोग होली खेलते हैं क्या?" 
नीलू भैया का गोरा चेहरा फीका पड़ने लगा, धीरे से पूछा- " आपको होली खेलना पसन्द है क्या?"
मैने तपाक से कहा- अरे न. एकदम नहीं. कोई मुझे रंग लगाये, ये मुझे पसन्द ही नहीं. अब क्या था! नीलू भैया की बांछे खिल गयीं. बोले- "भाभी मैं दो-तीन दिन से सोच रहा था, कि मुझे तो होली खेलना पसन्द ही नहीं. भैया भी नहीं खेलते. आपको पसन्द होगा तो आप क्या सोचेंगीं? अब मैं निश्चिंत हुआ. क्योंकि हम दोनों को ही होली पसन्द नहीं  

मुझे तो लगा जैसे मुंह मांगी मुराद पूरी हो गयी. घर का आभिजात्य अचानक रास आने लगा  
अगले दिन होली था, नीलू भैया, उमेश जी, कुक्कू, पापा सब फ़िल्मी स्टाइल में सफ़ेद कुर्ता-पज़ामा पहने घूम रहे थे, और मैं आराम से दूसरों की होली देख रही थी  रंगे-पुते लोगों को देख के मज़ा ले रही थी कि जाओ बेटा, जब नहाओगे तब नानी याद आयेगी 

(अगली पोस्ट में कुछ और मजेदार संस्मरण )

मंगलवार, 26 मार्च 2013

स्वप्न मञ्जूषा 'अदा ' का सकुचाते हुए अपने पति से मिलना और सरस दरबारी जी का रंगों के ख्याल से ही डरना


("पिया के घर में पहला दिन या पहली होली " इस परिचर्चा के तहत अब तक लावण्या शाह जी, रचना आभा और रंजू भाटिया के रोचक संस्मरण,  हमारे चेहरे पर मुस्कान ला चुके हैं ..आज अदा और सरस दरबारी जी की यादों की बगिया से दो फूल...बस इनकी खुशबू  में खो जाइए )

अदा : चली गोरी पी के मिलन को चली 

रश्मि ने ऐसा काम पकड़ा दिया है, जिसे पूरा करने के लिए वर्षों पीछे जाना पड़ रहा है। हर आम लड़की की तरह मेरी भी आम सी शादी हुई थी, जो हर आम लड़की की तरह, मेरे लिए भी 'सारा' ख़ास है ('बहुत' नहीं लिखा क्योंकि 'बहुत' बहुत ही होता है, 'सारा' नहीं होता। 

शादी के तुरन्त बाद की तो, कोई घटना याद नहीं लेकिन, एक घटना याद है। 

मेरे 'वो' दिल्ली में नौकरी करते थे और हम राँची में रहते थे। उस साल, उनकी जिद्द हुई कि इस बार होली में तुम मेरे पास आ जाओ। उन दिनों हमारी इतनी औकात नहीं थी कि हम प्लेन में सफ़र करते, बस या ट्रेन का ही आसरा था। हम किसी तरह डरते-डरते ट्रेन में अकेली ही जाने को तैयार हो गए। 

ट्रेन का सफ़र और होली का मौसम, घर में भी सब हड़क गए थे। कहीं कोई हुडदंगबाज़ी हुई और हम किसी अनजान जगह में फँस गए तो का होगा ! लेकिन दामाद की बात काटने की जुर्रत भला कौन कर सकता था ! खैर जी रोते-गाते 'उन ज़नाब' को ख़बर कर दिया गया कि, हम होली के दो दिन पहले 'नीलाञ्चल', जिसको हमलोग 'नीलाचल' कहते हैं, से नई दिल्ली पहुँच रहे हैं। अपने पूरे टीम-टाम के साथ, हमलोग राँची रेलवे स्टेशन पहुँच गए थे, 'ऑपरेशन ट्रेन में बेटी को बिठाओ' करने। हर बिहारी की तरह, हमरे साथ भी, हमरा पूरा कुनबा आया था, हमको ट्रेन में बिठाने। सब अपनी-अपनी सलाह दिए जा रहे थे, और हम बस हाँ-हूँ किये जा रहे थे। ताक़ीद का लम्बा-लम्बा लिफ़ाफा हर कोई हमको पकडाता जा रहा था,  खिड़की मत खोलना नहीं तो कोई कोई रंग, गोबर, कुछ भी फेंक देगा, हाथ बाहर मत निकालना, ज्यास्ती बात मत करना, किसी से मत कहना की तुम अकेली जा रही हो, ट्रेन के नीचे तो गोदे नहीं धरना है तुमको, पानी-ऊनी कुछ भी दरकार हो किसी से मँगवा लेना, वैसे वाटर बोतल में काफी पानी है, कुछ भी खाने-पीने का मन करे तो अपना सीट पर बैठे-बैठे ही खरीदना, इधर-उधर जाना मत, रात में हर्हट्ठे सूत मत जाना, जाग-जाग के सोना और अपना चप्पल अपना मुड़ के नीचे रखना, बहुत चोरी होता है चप्पल, आदि आदि। ई सब सलाह का सार यही था कि अपना सीट पर एक बार जो कुण्डली मार कर बैठो तो बस बैठे ही रहो और जब बर्थ पर सुतो तो सुते ही रहो । साथे साथ, साथ की सीट पर बैठे हुए, मारवाड़ी बुजुर्ग जोड़े से हाथ जोड़ कर, कातर नज़र से, अनुनय, विनय, मनुहार, गोहार, जोहार  किया जा रहा था, हमरी बिटिया रानी पहली बार अकेली दिल्ली जा रही है। प्लीज प्लीज आप लोग ज़रा ख़याल रखियेगा इसका, सीधी भी है और बुडबक भी, बड़ी जल्दी किसी पर भी बिस्वास कर लेती है। और वो जोड़ा भी मुंडी हिला-हिला के सबको पूरा आश्वस्त करने में लगा हुआ था, 'चींते' की कोई बात नहीं है, हम लोग हूँ न !! 

माँ-बाबा की हालत वैसे ही पतली हो रही थी। बाबा तो बार-बार 'उनको', सबके सामने गरियाने में लगे हुए थे, का लड़का है ! एतना रिस्क लेने का कौन ज़रुरत था, भेज देते हमलोग होली के बाद। हमको ई सब एकदम पसंद नहीं आ रहा है। कुछ हो गया तो, हम तो 'उसी' से जवाब-तलब करेंगे। बल्कि हम तो कहते हैं, अभी भी घर वापस चलो। होली के बाद भेज देंगे हम, बल्कि हम साथे चलेंगे। अभी नहीं जा सक रहे हैं न, कुलदेवता का पूजा है, गाँव पहुंचना ज़रूरी है और तुम जानबे करती हो हम ही पूजा कर सकते हैं कोई दूसरा नहीं। बीच-बीच में बाबा, माँ पर भी बमक रहे थे, ई सब तुमरा किया-धीया है, बिना हमसे पूछे, तुम भेजने के लिए 'हाँ' कैसे कह दी। त्यौहार में कोई बाल-बच्चा को बाहर भेजता है। लोग तीज-त्यौहार में घर आता है, और तुम बाहर भेज रही हो, ऊ भी एकदम अनजान जगह पर। तुमरा खोपड़ीये उलटा है, अरे ऊ दिल्ली है दिल्ली ! लोहरदगा, गुमला नहीं है। अगर ऊ लेने के लिए टाईम से नहीं पहुँचा तो ! तो का होगा ? तुम समझ नहीं रही हो। लेकिन माँ को दामाद बाबू की ज्यास्ती चिंता थी। ऊ फुल फ़ोर्स में जुटी हुई थी, बाबा का गुस्सा पर ठंडा पानी डालने में। आप तो बस बिना मतलब का चिन्तियाये रहते हैं। आपका दामाद एतना बुडबक है का और एक ठो आपकी ही बेटी फूलकुमारी है का ? सब दुनिया आवाजाही करती है, होली के दिन में भी। होली के दिन, ट्रेन, बस, हवाई जहाज सब बंद हो जाता है का, नहीं चलता है पसिंजर लोग ??? यहीं देख लीजिये इसी बोगी में ही देखिये, केतना लड़की और केतना औरत लोग सफ़र कर रही है। बाबा भी आख़िर कब तक टिके रहते ऐसे तर्क के सामने, जब तर्क साक्ष्य के साथ प्रस्तुत किये जा रहे हों तो। हथियार डाल ही दिए, ऊ भी। 

खैर जी, बाबा के नहीं चाहने से का होना था, 'नीलाचल' को तो अपने नियत समय पर चलना ही था, सो वो चल ही पड़ी और सबलोग धडफड़ा कर ट्रेन से उतर गए। अब खिड़की के साथ-साथ दौड़ते-दौड़ते सब हमको समझाने में लग गए। डरना मत, पहुँचते खबर करना। हम भी रुआँसी होकर, जोर-जोर से हाथ हिला-हिला कर, और और भी जोर-जोर से बाय-बाय करने लगे। जितनी तेज़ी से ट्रेन के पहिये धड़धड़ा रहे थे, उतनी ही तेज़ी से हमरा दिल भी धड़धड़ा रहा था। ट्रेन के प्लेटफार्म से निकलते ही, और माँ-बाबा के ओझल होते ही, एकबारगी लगा, जैसे इस भवसागर में हम एकदम अकेले रह गए हैं। रोना आ गया हमको। हमरी रोनी सूरत देख कर, साथ में बैठे बुजुर्ग मारवाड़ी दंपत्ति, अब पूरी तरह हमरे माँ-बाबा के रोल में आ गए। स्नेह के इतने रंग और उनकी इतनी बारिश हुई, आज तक हम भीजे हुए हैं। देखते ही देखते खाने के कनस्तर पर कनस्तर खुलने लगे। उनके प्यार का रंग और उनके रंग-रंग के पकवान, जीवन भर में खेली गयी सारी होलियों पर अब तक भारी हैं। 

हमको लगता है, लगभग डेढ़ साल हो गए थे, न हम उनको देखे थे और न ऊ हमको देखे थे। शादी के तुरन्त बाद ही 'ऊ' दिल्ली चले गए थे। शक्ल भी याद करना मुहाल हो गया था। याद करते तो चेहरा पूरा गडमड हो जाता था। न न उनकी शक्ल ठीक ही है, बस याद में कभी भी ठीक शकल नहीं नज़र आती थी :) 

अब तो ई सोच-सोच कर हाथ-पाँव फूलने लगे कि कैसे बात करेंगे हम और का बात करेंगे ! सामने कैसे जायेंगे ! का कहेंगे हम !  ऐसे लग रहा था जैसे पहली बार मिलेंगे उनसे। आखों से नींद गायबे हो गयी थी, हम तो अब यही फ़िक्र में आधे हुए जा रहे थे, कि सामना कैसे करेंगे ! 

तो जी राम-राम करते हुए, नई दिल्ली स्टेशन आ ही गया। सामान उतारने में उन दंपत्ति ने पूरी मदद की। हमरी आँखें चोरी-छूपे उनको ढूँढने में जुट गयीं। साथ-साथ हम बुजुर्ग दंपत्ति से बतियाते भी जा रहे थे। आख़िर ऊ हमको दिख ही गए, सफ़ेद शर्ट में, दूर से आते हुए। हम जल्दी से मारवाड़ी दंपत्ति के पाँव, झुक कर छू लिए। हड़बड़ा कर वो छिटकने लगे, कहने लगे, बेटियाँ पाँव नहीं छूतीं तो हम कह दिए अंकल आप हमको बहु ही मान लीजिये, लेकिन पाँव छूने दीजिये। हम, बिलकुल सुरक्षित, एकदम ठीक-ठाक, सही जगह पहुँच गए हैं। आप लोग नहीं होते तो, कुछ होता या नहीं होता, लेकिन हम खुद को इतना सुरक्षित महसूस नहीं करते। आंटी कहने लगीं, अरे सपना, तुमने तो हमलोगों का मन ही मोह लिया, हम बोले, मोहा तो हम भी गए हैं आंटी आपलोगों से। प्यार से सिर पर फेर कर, ढेर सारा आशीर्वाद दे कर, वो लोग चले गए। 

अब मेरी बारी थी, दूसरी हल्दीघाटी में कूदने की, 'ज़नाब' चले आ रहे थे सामने से इठलाते हुए। चेहरे पर हज़ार वाट का बलब जला हुआ था शायद, ऐसा हमको लगा था, अब जब भी हम कहते हैं कि हमको देख कर आपका चेहरा लाईट मारने लगता है, तो मानते नहीं है, कहते हैं, का मतलब है तुम्हारा कि तुम जब होती हो तभी हम चमकते हैं, ऐसे नहीं चमकते हैं का !! 

खैर, सामने से ऊ चले आ रहे थे, सफ़ेद शर्ट में, जॉनी वाले राजकुमार की तरह, और इधर से हम धीरे-धीरे, उनकी तरफ डग भर रहे थे। हम उनकी तरफ देख ही नहीं पा रहे थे, आँखें नीची किये और अपना सामान उठाये, हम उनकी तरफ बढ़े जा रहे थे। मारे लाज के हमरे कदम एक-एक मन के हो गए थे। हम ऐसे सकुचाये जा रहे थे, जैसे हमरे बदन में ही कोई जगह-उगह होती तो वहीँ घुस जाते। हम बिना उनकी तरफ देखे हुए, उनकी बगल से निकलने का चुरकी रास्ता ढूँढने लगे। हमरी नियत शायद ऊ भाँप  गए थे, बस फिर का था, झट से मेरा हाथ पकड़ लिए, और हलके से अपनी तरफ खींच लिए। हमरे दोनों हाथों में सामान था। हम अटेंशन में खड़े हो गए थे, धीरे से उन्होंने मुझे अपने सीने से लगा लिया और एक बहुत लम्बी साँस ली थी उन्होंने। क्या था वो मुझे नहीं मालूम, शायद चैन की साँस इसे ही कहते हैं। कुछ पल के लिए, उस भीड़ भरे प्लेटफार्म से सब कुछ गायब हो गया था, न लोग थे वहाँ, न ही कोई शोर था। पूरे प्लेफोर्म में सिर्फ हम थे और वो थे, बिलकुल अकेले। हम हड़बड़ाये हुए उनसे अलग हुए तो, उनकी गर्दन, ठोढ़ी और उनकी सफ़ेद शर्ट पर लाल रंग लग चुका था, मेरी माँग के सिन्दूर ने भी पूरा साथ दिया था, 'हमारी' होली का !!


सरस दरबारी : खुद ही रंग लगाया और फिर खुद ही  छुड़ाया

होली आयी रे !

शादी के पहले बहुत होली खेलती थी मैं - लेकिन शादी के बाद जो पहली होली ससुराल में हुई ... उसमें ऐसी दुर्दशा हुई कि कसम खा ली- अब होली नहीं खेलूंगी .

चार साल बाद नन्द का विवाह हुआ . अब शादी के बाद पहली होली तो मायके में होनी थी , सो खूब जोर शोर से तैयारी की. ढेरों पकवान बनाये ...बस मन ही मन मनाती रही ..नंदोई होली न खेलें .

नंदोई भी नए नए थे , संकोच स्वाभाविक था . लेकिन फिर भी थोड़ी थोड़ी देर में कह देते , "भाभी तैयार हैं न ...कल होली खूब जमकर खेलेंगे".

मैं भी हाँ में हाँ मिलाती रही, लेकिन मन ही मन धुकपुकी लगी थी.

अगले दिन सुबह से ही सतर्क थी, ज़रा सी आहट से चौकन्नी हो जाती. और थोड़ी थोड़ी देर में नंदोई भी आवाज लगाते, " भाभी जल्दी काम ख़त्म करिए , तैयार हो जाइये ,,,मैं आ रहा हूँ ".

मैं भी हाँ में हाँ मिला देती , "आइये आइये हम भी तैयार हैं ."

इसी तरह पूरा दिन बीत गया. जब मैं आश्वस्त हो गयी, अब तो दिन ख़त्म , अब क्या खेल होगा तो नंदोई को चिढ़ाना शुरू कर दिया . "बस...मुँह ज़बानी..." नंदोई मुस्कुराकर रह गए .

अगले दिन सुबह मैं चौके में दूध छान रही थी, तभी पीछे से दबे पाँव आ, उन्होंने गालों पर ढेरों गुलाल मल दिया....कुछ गुलाल दूध में भी गिर गया...मैं अरे अरे कहती रह गयी , और वह आँगन में भाग गए.

अब तो इज्ज़त की बात थी ...हालाँकि दूसरी बिटिया होने को थी ...लेकिन मैंने आव देखा न ताव और मुट्ठियों में

रंग भर आँगन में पहुँच गयी. अब वह आगे आगे ...मैं पीछे पीछे ...लेकिन वह कहाँ हाथ आने वाले , अपने कॉलेज के एथलीट थे. जब देखा कोई ज़ोर नहीं चल रहा तो 'इनको ' आवाज़ दी.
"कैसे हैं आप ...हम अकेले परेशान हो रहे हैं..यह नहीं होता की ज़रा उनको पकड़ लें तो हम रंग लगा दे".

हमारे साहब भी तैश में आ गए ..कूद पड़े आँगन में और नंदोई जी को आखिर घेर कर पकड़ ही लिया .फिर क्या था खूब जी भरकर उनको रंग लगाया. अब तो गुलाल एक तरफ, गाढे रंग घुलने शुरू हो गए . और खूब बाल्टी भर भर भिगोया नंदोई जी हमें, कहाँ हम ५'१" और कहाँ वह ५' ११", चुपचाप भीगते रहे ...रंगवाते रहे.

खैर ! जब खेल ख़त्म हुआ तो नंदोई बोले," भाभी मैं नल के नीच बैठ रहा हूँ, आप ज़रा पानी डाल दीजिये ". बस इसी मौके का तो इंतज़ार था . नन्द ने गाढ़ा हरा रंग लाकर मुझे थमा दिया और उसे आधी बाल्टी पानी में घोल हमने प्यारसे, नंदोईजी के सर पर डाल दिया.

बड़ी तृप्ति हुई. अब तो बेचारे पानी डाले जायें और गाढ़ा हरा रंग बहता जाये .करीब आधे घंटे तक वह सर धोते रहे और रंग था की हल्का होने का नाम ही नहीं ले रहा था. फिर थोड़ी देर बाद उनपर तरस आ गया ..और हम सबने मिलकर उनका रंग छुड़वाया.

उसके बाद फिर कभी ऐसी होली नहीं हुई. लेकिन आज भी याद करते हैं तो एक मुस्कराहट खुद ब खुद चेहरे पर खिल आती है .

(अगली पोस्ट में कुछ और रोचक संस्मरण )

रविवार, 24 मार्च 2013

रचना आभा को आंसू न आने की टेंशन और नयी भाषा से जूझती रंजू भाटिया

( पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा  लावण्या  शाह जी द्वारा भेजा गया उनके माता-पिता का प्यारा सा संस्मरण ...इस पोस्ट में दो कवियत्रियों की रोचक यादें  )


रचना आभा : कभी तो बेबात चले आते हैं आंसू और कभी उनके न आने की चिंता 

तो पेश-ए -ख़िदमत है मेरी शादी के बाद की रोचक घटना , जिसे मैं और मेरे ससुराल वाले आज भी हंस -हंसकर याद करते हैं ! इस से पहले मैं यह बताना चाहूंगी कि मेरा जन्म और परवरिश पूर्णतः दिल्ली की है , अतः मैं इस घटना में पूर्ण रूपेण  निर्दोष हूँ  :)
         हुआ यूँ, कि शादी के कुछ ही महीने बाद मेरी दादी सास, जोकि पूरे परिवार की धुरी और आँखों का तारा  थीं, चल बसीं ! तो हमें गाँव ( उ o प्र o ) जाना हुआ !  रास्ते  भर मैं यही सोचती गयी कि मैं तो अभी तक उनसे ठीक से जुडी भी नही थी भावनात्मक तौर पर, क्योंकि मैं शादी के बाद कुछ दिन गाँव में बिताकर ही दिल्ली आ गयी थी, पति के साथ ! अत: मेरी टेंशन यह थी कि  मैं दुखी कैसे दिखा पाऊँगी सबको , हालाँकि थोडा बहुत दुःख तो  पति के दुःख से था ही , पर उतना नही था, जितना मैं चाहती थी ! 
खैर, यही सोचते-सोचते गाँव पहुंचे , तो मातम का माहौल था ! स्त्रियाँ अलग कमरे में थीं, सो में भी उनके पास जाकर बैठ गयी ! सभी परिवारवालों की आँखों में आंसू थे, सिवाय मेरे ( उस दिन मुझे पहली बार घूँघट प्रथा अच्छी लगी)  मेरी ननद ने मुझे इशारे से कहा -'मिलो' ! अब मुझे समझ न आये  कि  सबको तो नमस्ते करली , फिर कैसे मिलूँ ! शायद पैर छूने  को कह रही हो , जो कि  मैं हमेशा छूती  थी, पर उस दिन बैठे होने के कारण नजर ही नही आ रहे थे, इसलिए नही छुए थे ! मैंने उस से इशारे में पैर छूने का पूछा  , तो वो फिर आँख दिखाकर धीरे से बोली -"मिलो" !  मैं हैरान परेशान  ! एक तो पहले से ही थी, उस पर ये पहेली ! खैर, अपनी समझ से मैं बुआ जी के पास चली गयी , के शायद वो कुछ एक्शन लें मुझे देखकर, और मुझे "मिलने' का मतलब समझ में आये , और उसी तरह मैं बाकियों से 'मिल लूँ ' !

मैं जैसे ही उनके पास पहुंची, वे मुझे कसकर  गले से लगाकर रोने लगीं (पहले से भी जोर से ) और एक आलाप सा करने लगीं …… 'अरी  बीबी .....हमारी नीतू की तो शादी करा जाती ........'
  मैंने ध्यान दिया कि  जो भी कोई नई महिला उस कमरे में आती थी, वो कुछ ऐसा ही आलाप करती थी , और धुन सबकी same थी, शब्द चाहे अलग हों (जोकि अस्पष्ट थे, पर इतना समझ आ रहा था, की भगवान  से शिकायत की जा रही है, कि दादी के जाने से हमारा फलां काम रुक गया )

    अब मुझे थोडा थोडा समझ आने लगा के शायद गले मिलकर कुछ इस तरह का आलाप करने  को 'मिलना' कहते हैं , और अब यह  चिंता मुझे खाने लगी, कि  मेरी बारी आने पर मैं क्या आलाप करूँगी , क्योंकि मुझे तो सच में समझ नहीं आ रहा था कि मुझे उनसे कौन सा काम करवाना था ! फिर भी कन्फर्म करना जरूरी था  ! आखिर नई नई  बहू बनी थी, कुछ गलती नहीं करना चाहती थी ! तभी मेरी जेठानी  उठकर वहाँ से गयीं और मानो  मेरी जान में जान आई कि कोई तो मिला, जिस से पूछ सकूं अकेले में ! मैं उनके पीछे-पीछे दूसरे  कमरे में गयी , और उन्हें अकेला पाते ही पूछ बैठी ' भाभी , एक बात बताओ ! ये गाना क्या सबको गाना जरूरी होता है ? " 
    " कौन सा गाना ?" उन्होंने उदास स्वर में  पूछा  ! 
   "यही, जो सब गा  रहीं हैं, कि  "बीबी …ये करा जाती, हमारा वो करा जाती ....."
    
अचानक वो इतनी बुरी तरह ठहाका मारकर हंसीं , कि मैं घबरा गयी, अब कोई पूछने न आ जाये कि क्या हुआ , और मेरी समझदारी का राज़ खुल जाये ! मैं उनका ताक़  ही रही थी, कि वही  हुआ, जिसका डर था !! 
    घर की कुछ औरतें , जो शायद रोने से थक चुकीं थीं, या शायद हैरान होकर वहाँ आ गयीं, ऐसे गमगीन माहौल में ठहाके की आवाज़ सुनकर ! 
   और बस जी ! फिर तो आप सोच ही सकते हैं, कि क्या हुआ होगा !! 
  बस , इतनी मेहरबानी जरुर हुई कि उम्मीद के मुताबिक मुझे डांट नही पड़ी, पर जिसके कानो में भी यह बात पहुंची , वह हंसे बिना रह न सका ! 
    आज भी मुझे चिढ़ाने के लिए उस घटना को सहेज कर रखा हुआ है ससुराल वालों ने :))
        

रंजू भाटिया :  'जा धा घिन'...कोई डांस स्टेप ??

सिल्वर ग्लास में पानी ....पढ़ के ही हंसी आ गयी ...लड़की के जीवन का सबसे अहम् पहलु होता है शादी के बाद दूसरे घर जाना ...सब कुछ बदला हुआ ....रहन सहन ..खान पान ..बोलना ..सुबह शाम की बदली हुई सूरते ,दिल दिमाग के पेच ढीले कर देती है .....कैसे सबको जाने ,कोई क्या कह कह रहा है सब कुछ समझना आसान बात नहीं ...आज रश्मि ने जब यह सब लिखने को कहा  तो बरबस ही कई वाक्यात याद  गए ...होली का मौका है ,चलिए हंस लेते हैं इसी बहाने ...

अस्सी के दशक में कालेज होते होते ही शादी की बात शुरू हो जाती थी ...लड़की को भी पता होता था कि  अब शादी ही होगी ...आगे पढ़ाई के लिए कुछ कहने का मतलब एक लम्बा सा लेक्चर सुनना होता था अमूनन और घर में आप सबसे बड़े हो तो बेटा कोई चांस नहीं आपका कि  आप शादी से बच जाओ .:).हो सकता है सबके साथ ऐसा न हो पर  मेरे साथ यही हुआ ....और कोई मजेदार घटना शादी के बाद हो घटे यह कोई जरुरी नहीं  ..देखने ,दिखाने के दौरान भी किस्से याद रह रह जाते हैं ...:)
महज उन्नीस साल की उम्र ..और बिंदास एक काली पेंट और चेक शर्ट में हमेशा रहने की आदत थी ...जो घर उस वक़्त जम्मू में था वहां सामने आंगन में बहुत से पेड़ लगे थे ...अमरुद ,नीम्बू आदि के ..और अमरुद के पेड़ पर चढ़ कर अमरुद तोड़ना मेरा प्रिय शगल ...ससुराल वाले एक दो बार पहले देख गए थे ...और भी एक दो लोग अभी  देखेंगे ऐसा कह कर अभी जवाब का अभी इंतजार था  जब देखने आयेंगे तो बता कर ही आयेंगे ..यह सोच कर सब आराम से थे घर में ..सो  मैं भी बेफिक्री से घुटने तक पेंट चढ़ा कर और शर्ट के बाजू तान कर ऐसी ही एक शाम को मजे से पेड़ से अमरुद तोडती गेट पर अपनी पड़ोस की सहेली के साथ झूल रही थी ..कि  एक बुजुर्ग सी थोड़ी मोटी सी   महिला ऑटो से उतरीं ... और गेट पर पूछा कि भाटिया साहब का घर यही है ..हां हाँ यही है ..अन्दर चले जाओ वहीँ मिल जायेंगे ....आपको और उनके अन्दर जाते ही ...मेरे मुहं से निकला कि कितनी मोटी है न यह ....तभी अन्दर से छोटी बहन भाग कर आई कि मम्मी गुस्सा हो रही है .कैसे बाहर  घूम रही है ..अन्दर तेरी होने वाली नानी सास आई है ..मरे अब तो ...जल्दी से सूट चुन्नी ओढ़ कर ...कमरे में गयी .पर उस वक़्त नानी सास का घूरना  भूल नहीं पायी ...उन्होंने वह मोटी शब्द सुना ..या नहीं यह तो ससुराल जा कर ही पता चला :) 

और फिर शादी के बाद यहाँ आते ही जो बदलाव आया वह था भाषा का ..माहोल का ....वहां मेस पार्टी और आर्मी माहोल यहाँ उस से एक दम अलग ....और वहां बोलते थे हम ज्यादातर हिन्दी  ..यहाँ मुल्तानी ,पंजाबी के सिवा कुछ बोला नहीं जाता था | हाँ ससुराल में दो ननदे और मम्मी पापा थे | पर माहौल बिल्कुल ही अलग था | मायके में जो दिल में आता था वही किया ..खाना बनाना आता था ,पर उतना ही जितना जरुरी था ..बहुत आजादी वहां भी नही थी .पर यह समझ में आ गया था कि अब यहाँ कोई शैतानी नही की जा सकती है ...क्यूंकि यहाँ का माहौल बहुत डरा हुआ सा और सहमा हुआ सा लगा ...शायद यही फर्क होता है ससुराल और मायके का :) 
नवम्बर में शादी हुई  थी .हुक्म हुआ सुबह जल्दी उठ जाना .रस्मे है कोई .और  अगले दिन सासू माँ बोली कि  ""जा धा घिन''...."जी "मम्मी  जी कह कर मैं दूसरे कमरे में चली गयी ....उन्होंने फ़िर मुझे यूँ ही खडे देखा तो फ़िर बोली रंजना "धा घिन ....क्यों  खलोती हैं [ क्यों खड़ी हुई है इस तरह ][कुछ इसी तरह का वाक्य ] मुझे आज तक नही आई यह भाषा :) हैरान परेशान क्या करूँ  ....मेरा मासूम दिल समझ रहा था कि वह कुछ "था घिन घिन" कह रहीं हैं ....शायद वह किसी तरह के डांस की कोई रस्म से तो जुडा नही है ....बाबा रे !! यह शादी की रस्मे क्या मुसीबत है यह .सुबह सुबह डांस ..वो भी सबके सामने ..क्या करूँ अब ...कैसे करूँ ...उसी वक़्त .....ईश्वर ने साथ दिया राजीव [मेरे पति देव ] सामने दिखे ....अब  नई नवेली बहू अब पति को कैसे बुलाए .....आँखों में पानी ....कि करूँ तो क्या करूँ ....तभी यह अन्दर आए तो मेरी जान में जान आई ..पूछा कि  क्या करना है इस "धा घिन का ".....पहले देखते रहे और फ़िर जोर से हंस के बोले कि"इस का कुछ नही करना जा कर नहा लो" ...तौबा !! तो इसका यह मतलब था ...तो तुम क्या समझी ...पूछने पर मैंने बताया तो जनाब ने हँसते हुए यह खबर पूरे घर में फैला दी ....नानी सास ने भी मौका देख कर "मोटी "कहने वाली बात औरउस वक़्त के बिंदास हुलिए की  कहानी सुना दी :).... और शर्म से जो गाल लाल हुए वो होली के रंग को भी मात कर दे :)
 
भाषा तो आज भी नहीं बोली जाती मुझसे यह ..पर अब समझ आ जाती है ...कि क्या कहा जा रहा है ...इसी तरह नमकदानी को "नुनकी चुक लायी बारी विचो " बहुत समय बाद समझ आया था कि नमकदानी ले आ अलमारी से ...इस तरह याद करूँ तो भाषा से जुड़े तो कई किस्से याद आ जाते हैं और भी बाते नमक सी नमकीन और हलुए सी मीठी भी ...पर मीठी बाते ही याद रहे तो अच्छा है वही बाते ज़िन्दगी मैं आज भी मुस्कान भर जाती है ...रश्मि का शुक्रिया जो फिर से इन्हें याद दिलाया 

(रचना और रंजू आपका बहुत बहुत शुक्रिया हमसे इतनी रोचक यादें साझा करने का....अगली पोस्ट में दो और प्यारे से संस्मरण  )

शनिवार, 23 मार्च 2013

परिचर्चा : पिया के घर में पहला दिन या पहली होली

कुछ दिनों पहले यूँ ही सहेलियों के साथ गप्पें हो रही थीं तो बात निकली ससुराल में पहले दिन या शुरूआती दिनों की. एक से  बढ़कर एक रोचक किस्से सुनने को मिले. वैसे भी अपनी माँ -बुआ-मौसी -चाची लोगों से भी सुन रखा था कि नयी नयी गृहस्थी बसाने में कितनी मुश्किलें आतीं और कैसी मजेदार घटनाएं घटतीं. एक बार चाची ने बताया था ,जब वो शादी करके चाचा के पास गयीं तो वहां खाना बनाने के लिए बर्तन नहीं थे और तब वेतन भी इतना नहीं मिलता था कि वे एक बार में जाकर रसोई के सारे बर्तन खरीद लें. तब शादी में भी पीतल के पांच बर्तन 'गागर परात ' वगैरह मिला करते थे . खैर  इन लोगो ने कुछ बटलोही-देगची -कढाई  वगैरह खरीदे , जिसमे चावल- दाल -सब्जी बना करता था .एक दिन चाचा जी ने कहा, "चावल खा कर बोर हो गया हूँ, किसी तरह रोटी बनाने का जुगाड़ करो' पर रोटी बनाने के लिए चकला बेलन तो थे ही नहीं. देगची उलटी कर बोतल से रोटी बेली गयी (तवा के लिए भी कुछ किया होगा ,वो अब याद नहीं ) पर ये सोचती हूँ ,वह रोटी स्वाद में कितनी मीठी होगी . 


सहेलियां  भी अपने अपने अनुभव बता रही थीं ,अनीता जब शादी होकर ससुराल गयी तो पाया उसकी सासू माँ निर्देश दे रही थीं, "सबको सिल्वर ग्लास में पानी दिया करो "
अनीता थोडा सा डर गयी, "इतने रईस लोग हैं चांदी के ग्लास में ही पानी पीते हैं "
बाद में पता चला, उसके ससुराल में स्टील को सिल्वर कहा जाता था . 

एक फ्रेंड मधु ने  बताया उसके पति शादी करने आये तो अपने दोस्त को बोल कर गए, "एक घर ठीक कर देना मेरे लिए, शादी एक बाद पत्नी के साथ ही लौटूंगा  " और शादी के  बाद मेरी सहेली एक बेडिंग, एक बक्सा और कुछ समान लिए पहुँच गयी अपने 'पिया के घर ' चेन्नई (जो तब मद्रास था ) . उसके पतिदेव ने दोस्त से चाभी लेकर घर खोला , पत्नी से कहा तुम अन्दर जाओ. मैं  ऑफिस में बस साइन करके आता हूँ वरना  छुट्टी मारी जायेगी " 
और पतिदेव ऑफिस में काम में फंस गए . यहाँ मधु  दिन भर भूखी,प्यासी बक्से के ऊपर बैठी उंघती रही .
वैसे ही इंदिरा ने बताया कि वह केरल से मुम्बई पति के घर आयी ही थी और किसी तरह मैनेज कर रही थी, उसे कुकिंग बिलकुल नहीं आती थी. उसपर से एक दिन उसके पति चने लेकर आये और कहा कि 'छोले बनाओ आज ' इंदिरा ने प्याज टमाटर से छौंक लगा आलू की तरह चने बना दिए. दो सिटी के बाद खोल कर देखा, चने पके ही नहीं थे. फिर हर थोड़ी देर बाद कुकर खोल कर देखा  जाता रहा. आखिर बहुत रात हो गयी तो दोनों ब्रेड जैम खाकर सो गए. इंदिरा को पता ही नहीं था कि बनाने से पहले चने भिगो कर रखे  जाते हैं ..:)

जाहिर है, ये सारे किस्से सुन कर हम पर हंसी के दौरे पड़ते रहे ,फिर मैंने सोचा आप सबको क्यूँ महरूम रखा जाए ,होली का मौक़ा भी है...जरा हंस-बोल कर माहौल खुशनुमा बना लिया जाए .

ये ख्याल भी आया  हमारी लेखिका सहेलियों के पास भी मजेदार किस्से होंगे और वे तो उसे बड़े रोचक ढंग से बयान कर सकती हैं. 
बस खटका दी सबके इनबॉक्स की कुण्डी .कुछ सहेलियों ने तो जैसे लौटती डाक से ही भेज दिया और कुछ मोह्तरमायें ऐसी भी हैं , जिन्होंने डोर बेल ऑफ कर रखी है शायद मंगतों से परेशान हैं :):)

 अमेरिका में बसी लावण्या शाह जी ने बड़ी उदारतापूर्वक तुरंत ही अपनी यादों की पोटली खोली और उसमे संजोई अपनी माता जी की मीठी सी याद हम सबसे बांटने के लिए मेल कर दी. 
 पंडित नरेंद्र शर्मा जी और उनकी धर्मपत्नी सुशीला जी से जुड़ा ये प्यारा सा संस्मरण हम सब से शेयर करने के लिए बहुत बहुत आभार लावण्या जी .


 लावण्या शाह 
ॐ 
 होली की  रंगीन यादें ..." पिया के घर में पहला दिन "
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मेरी अम्मा श्रीमती सुशीला नरेंद्र शर्मा की हमे सुनायी हुई  यह यादें  आपके संग बाँट रही हूँ। 
        मेरी अम्मा सुशीला का विवाह प्रसिध्ध गीतकार नरेंद्र शर्मा के संग , सन १९४७ की १२ मई के दिन , छायावाद के मूर्धन्य कविवर श्री सुमित्रानंदन पन्त जी के आग्रह से बंबई शहर में संपन्न हुआ था।  
          पन्त जी अपने अनुज समान कवि नरेंद्र शर्मा के साथ बंबई शहर के उपनगर माटुंगा के शिवाजी पार्क  इलाके में रहते थे। हिन्दी के प्रसिध्ध साहित्यकार श्री  अमृतलाल नागर जी व उनकी धर्मपत्नी प्रतिभा जी ने कुमारी सुशीला गोदीवाला को गृह प्रवेश  करवाने का मांगलिक  आयोजन संपन्न किया था। 
      सुशीला , मेरी अम्मा अत्यंत  रूपवती थीं और  दुल्हन के वेष में उनका चित्र आपको मेरी बात से सहमत करवाएगा ऐसा विशवास है।  
विधिवत पाणि -- ग्रहण संस्कार संपन्न होने  के पश्चात वर वधु नरेंद्र व सुशीला को सुप्रसिध्ध गान कोकिला सु श्री सुब्बुलक्ष्मी जी व सदाशिवम जी की गहरे नीले रंग की गाडी जो सुफेद फूलों से सजी थी  उसमे बिठलाकर घर तक लाया गया था।     
        द्वार पर खडी नव वधु सुशीला को कुमकुम  से भरे एक बड़े थाल पर खड़ा किया गया और एक एक पग रखतीं हुईं लक्ष्मी की तरह सुशीला ने  गृह प्रवेश किया था।  तब दक्षिण भारत की सुप्रसिध्ध गायिका सुश्री सुब्बुलक्ष्मी जी ने मंगल गीत गाये थे। मंगल गीत में भारत कोकिला सुब्बुलक्ष्मी जी का साथ दे रहीं थें उस समय की सुन्दर नायिका और सुमधुर गायिका सुरैया जी भी  ! 
      विवाह की बारात में सिने  कलाकार श्री अशोक कुमार, दिग्दर्शक श्री चेतन आनंद, श्री  विजयानंद, संगीत निर्देशक श्री अनिल बिस्वास, शायर जनाब सफदर आह सीतापुरी, श्री रामानन्द सागर , श्री दिलीप कुमार साहब  जैसी मशहूर कला क्षेत्र की हस्तियाँ शामिल थीं। 
      सौ. प्रतिभा जी ने नई दुल्हन सुशीला को फूलों का घाघरा फूलों की चोली और फूलों की चुनरी और सारे फूलों से  बने गहने , जैसे कि , बाजूबंद, गलहार, करधनी , झूमर पहनाकर सजाया था। 
कवि नरेंद्र शर्मा एवं सुशीला जी का पाणिग्रहण संस्कार 
     कवि शिरोमणि पन्त जी ने सुशीला के इस फुल श्रुंगार से सजे  रूप को ,  एक बार देखने की इच्छा प्रकट की और नव परिणीता सौभाग्यकांक्षिणी  सुशीला को देख कर वे बोले   ' शायद , दुष्यंत की शकुन्तला कुछ ऐसी ही लगीं होंगीं ! '       
      
 ऐसी सुमधुर ससुराल की स्मृतियाँ सहेजे अम्मा हम ४ बालकों की माता बनीं उसके कई बरसों तक मन में संजोये रख अक्सर प्रसन्न होतीं रहीं और  ये सुनहरी यादें हमारे संग बांटने की हमारी उमर हुई तब हमे भी कह कर  सुनाईं थीं।  जिसे आज दुहरा रही हूँ। 
        
सन १९५५ से कवि  श्री नरेंद्र शर्मा  को ऑल  इंडिया रेडियो के ' विविध भारती ' कार्यक्रम जिसका नामकरण भी उन्हींने किया है उसके प्रथम प्रबंधक, निर्देशक , निर्माता के कार्य के लिए भारत सरकार ने अनुबंधित किया था। इसी पद पर वे १९७१ तक कार्य करते रहे। उस दौरान उन्हें बंबई से नई देहली के आकाशवाणी कार्यालय में स्थानांतरण होकर कुछ वर्ष देहली रहना हुआ था। 
  
हमारे भारतीय त्यौहार ऋतु अनुसार आते जाते रहे हैं।  सो इसी तरह एक वर्ष ' होली ' भी आ गयी। उस  साल होली का वाकया कुछ यूं हुआ ...
          नरेंद्र शर्मा को बंबई से सुशीला का ख़त मिला ! जिसे उन्होंने अपनी लेखन प्रक्रिया की बैठक पर , लेटे हुए ही पढने की उत्सुकता से चिठ्ठी फाड़ कर पढने का उपक्रम किया ! किन्तु, सहसा , ख़त से ' गुलाल ' उनके चश्मे पर, हाथों पे और रेशमी सिल्क के कुर्ते पे बिखर , बिखर गया ! उनकी पत्नी ने बम्बई नगरिया से गुलाल भर कर यह ख़त भेज दिया था और वही गुलाल ख़त के लिफ़ाफ़े से झर झर कर गिर रहा था और उन्हें होली के रंग में रंग रहा था ! आहा ! है ना मजेदार वाकया ?

           नरेंद्र शर्मा पत्नी की शरारत पे मुस्कुराने लगे थे !  इस तरह दूर देस बसी पत्नी ने , अपने पति की अनुपस्थिति में भी उन के संग  ' होली ' का उत्सव ,  गुलाल भरे संदेस भेज कर के पवित्र अभिषेक से संपन्न किया ! कहते हैं ना , प्रेम यूं ही दोनों ओर पलता है ...  
           
हमारे भारतीय उत्सव सर्वथा भारतीयता  के विशिष्ट गुण लिए हुए हैं जिन्हें परदेस में बसे हर प्रवासी  हसरत भरे दिल से याद करता है। 
        जैसे आज अमरीकी धरती  पे रहते हुए मैं याद कर रही हूँ और आप  सभी के लिए सस्नेह, एक दमकता सा गुलाल का टीका भेज रही हूँ , होली मुबारक हो ! 
सुशीला जी 
{अगली पोस्ट में कुछ और रोचक स्मृतियाँ ...पुरुष पाठक भी इस परिचर्चा में भाग ले सकते हैं, अपनी पत्नी से पूछें ससुराल में उनके पहले दिनों के अनुभव और भेज दें . हो सकता है ,अब तक उन्हें पता भी न हो और कोई नयी बात पता चले :) कोई मीठी सी स्मृति हो तो मुझे थैंक्यू कहना न भूलें :)...अच्छा अनुभव रहेगा उन बीते दिनों को याद करना }

शुक्रवार, 15 मार्च 2013

होली : एक याद ऐसी भी

होली जब सन्निकट होती है तो होली के काफी पहले ही बीते दिनों  की याद भरी फुहारें जब-तब मन को भिगा  जाती हैं और हम उन यादों को को ब्लॉग पर बिखरे भी देते  हैं . यहाँ बचपन की होली की यादें और यहाँ मुम्बइया होली का जिक्र किया है . 
पर एक याद ऐसी भी है जो सहमा  जाती है...पर हर होली पर याद भी जरूर आती है. होली के समय माहौल बड़ा खुशनुमा होता है जिसे गुड़गोबर (बड़े दिनों बाद ये शब्द याद आया तो बस इसे लिखने का मन कर गया )   करने का मन नहीं होता . इसलिए सोचा होली के काफी पहले ही लिख डालूं .

मेरी एम.ए. की क्लास बस होली के दस दिन  पहले शुरू हुईं .  आठवीं से लेकर बी .ए. तक हॉस्टल में रहकर पढने के बाद ,एम.ए की पढ़ाई मुझे चाचा के घर रहकर करनी थी. पापा की पोस्टिंग काफी दूर एक दुसरे शहर में थी. उन्होंने कहा, "बस अटैची संभाल लो, चाचा के यहाँ छोड़ आता हूँ "मुझे अंदेशा था , होली के पहले शायद ही स्टूडेंट्स आयें और सुचारू रूप से पढ़ाई शुरू हो "मैंने कहा भी, "होली के बाद चलते हैं "  पर पापा ने कहा, "ये एम.ए की पढाई  है, क्लास मिस नहीं होनी चाहिए ' और तब पापा का आदेश जैसे पत्थर की लकीर, वो  टाला ही  नहीं सकता था सो हम चाचा के घर आ गये. 

धड़कते दिल  से जब कॉलेज पहुंची  तो मेरी आशंका सही निकली . मुश्किल से दस लड़के क्लास में और लड़की एक भी नहीं . सातवीं के बाद पहली बार को-एड में पढने आयी थी .ये भी एक मुसीबत थी . हाथों में हमेशा एक पत्रिका रखने वाली आदत काम आयी .मैं चुपचाप पत्रिका खोल कर बैठ गयी.  हम आगे बढ़कर तो किसी से बात करने वाले  थे नहीं और मेरी खडूसियत देख लड़कों की भी हिम्मत नहीं पड़ती. इसलिए यही सिलसिला चलता रहा . जब प्रोफ़ेसर आते तो मैं पत्रिका बंद कर के लेक्चर सुनती, नोट करती और उनके जाते ही पत्रिका में आँखे गडा देती . (पढूं  या नहीं ये दीगर बात है ) 

होली की छुट्टी के लिए स्कूल -कॉलेज बंद होने से एक दिन पहले हर स्कूल -कॉलेज  में स्याही से या छुपा कर लाये गुलाल से खूब होली खेली जाती है, इतना तो पता था मुझे. इसलिए सोच रखा था छुट्टी शुरू होने से एक दिन पहले कॉलेज नहीं आउंगी. पर अभी तो दो दिन बाकी थे,इसलिए मैं कॉलेज आ गयी. . मैं हमेशा की तरह पत्रिका खोले बैठी थी , प्रोफ़ेसर क्लास में आ नहीं रहे थे और कॉलेज के कैम्पस में जमकर होली शुरू हो गयी थी. बहुत समय गुजर गया तो मुझे भी लगा, अब क्लास नहीं होगी, घर जाना चाहिए. पर मुश्किल ये थी कि मेरी क्लास कॉलेज के सामने वाले गेट के पास थी . और मैं कॉलेज के पीछे वाले गेट से आती-जाती थी क्यूंकि पीछे वाले गेट से चाचा का घर नज़दीक था।  कॉलेज का कैम्पस बहुत बड़ा था, सामने वाला गेट किसी और एरिया में खुलता था और मुझे सामने वाले गेट से चाचा के घर का रास्ता नहीं मालूम था. वह शहर भी मेरे लिए बिलकुल नया था . घोर असमंजस की स्थिति थी. 
मेरी क्लास के लड़के भी सोच रहे थे, ' ये घर क्यूँ  नहीं जा रही ' आखिर दो लड़के मेरी बेंच के सामने खड़े होकर मुझे सूना कर  जोर जोर से आपस में बातें करने  लगे, "अभी डिपार्टमेंट में पूछ कर आया हूँ, सर क्लास नहीं लेंगे ,आज कोई लेक्चर नहीं होगा " मैं सब सुनकर भी हठी की तरह अनसुना किये बैठी थी. वे लड़के भी शायद सोच रहे थे बाहर होली खेली जा रही है, यूँ एक अकेली लड़की को क्लास में छोड़कर कैसे जाएं ??

आखिर  थोड़ी देर बाद दो लड़के मेरे पास आकर बोले, "आप घर जाइए, अब क्लास नहीं होगी "
अब कोई मैं बॉलीवुड की हीरोइन तो थी नहीं जो कह देती "मुझे डर लग रहा है " और किसी से उबारने  की अपेक्षा करती. यहाँ तो अपना सलीब खुद ही ढोना था .
मैंने सपाट स्वर में उन्हें 'ओके थैंक्स ' बोला और पत्रिका बंद कर झटके से उठ  खडी हुई. 

क्लास से बाहर कदम रखते ही कलेजा मुहं को आ गया. पूरे मैदान में लड़के एक दूसरे के पीछे भाग रहे थे,रंग लगा रहे थे , चिल्ला रहे थे .और मुझे उनके बीच से होकर गेट तक जाना था . मैंने ईश्वर का नाम लिया (अब किसी न किसी भगवान का नाम  का तो जरूर लिया होगा, चाहे राम  का या ह्नुमान का या दुर्गा देवी का ) और कदम बढ़ा दिये. मैंने सिर्फ  यही सोचा ,'आज अगर एक कतरा  रंग भी मुझपर पड़ा तो मैं सीधा प्रिंसिपल के ऑफिस में जाकर खड़ी हो जाउंगी " बस यही सोच एकदम सर उठाया और बिलकुल  अकड़ कर सीधी उनकी बीच से चल दी. जैसे एन.सी.सी. में मार्च की प्रैक्टिस कर रही होऊं .
अन्दर से मन आंधी में पड़े प्त्ते की तरह काँप रहा था पर मैं हर कोण से यह दिखा रही थी कि मुझे बिलकुल डर नहीं लग रहा . अब यह ट्रिक काम कर गयी या वे लड़के भी मुझे यूँ बीच से जाते देख ,सकते में आ गये पर मुझपर गुलाल का एक कण भी नहीं पड़ा. और मैं चलते हुए गेट तक पहुँच गयी. गेट से निकलने के पहले मुड़ कर एक बार पीछे की तरफ देखा तो पाया मेरी क्लास के लड़के ठीक मेरी क्लास के सामने कमर पर हाथ रखे खड़े हैं. शायद आश्वस्त हो जाना चाहते थे कि मैं सुरक्षित गेट तक पहुँच गयी. 

एक खाली रिक्शे को हाथ दिखाया  और बैठ गयी और रास्ते भर सोचती रही ,मैंने सोच तो लिया था कि प्रिंसिपल के ऑफिस में चली जाउंगी.पर शिकायत किसके खिलाफ करती?? लड़कों का नाम क्या है, किस इयर के हैं. मैं तो कुछ नहीं जानती थी .और क्या वे लड़के डांट खाने या सजा पाने के लिए शरीफियत से खड़े रहते. वे तो कब के भाग खड़े होते  पर अच्छा हुआ ये विचार तब नहीं आये मन  में वरना मेरा वो रास्ता पार करना मुश्किल ही नहीं असंभव  हो जाता .

मेरी क्लास के लड़के भी कमर पर  हाथ रखे बिलकुल लड़ने की  मुद्रा में खड़े थे .अगर मुझ पर रंग पड़ जाता तो वे उन लड़कों की धुनाई कर देते और वे लड़के भी कहाँ चुप बैठते .ये तो बिना किसी बात के अच्छा -खासा  हंगामा हो जाता . मैं उस अज़ाब से तो निकल आयी थी पर यह सब सोच मेरा चेहरा सफ़ेद पड़ गया  था क्यूंकि घंटी बजाते ही चाची ने दरवाजा खोला और घबरा कर पूछने लगीं "क्या हुआ ??" छोटी बहनें भी भाग कर आ गयीं और मेरी सारी बहादुरी कच्ची दीवार सी ढह गयी. अब वे लोग और घबरा गयीं. खैर किसी तरह हिचकियों के बीच उन्हें सबकुछ बताया . 

चाची काफी मजाकिया थीं (अब वे इस दुनिया में नहीं हैं, इश्वर उनकी आत्मा को शांति दे ) कहने  लगीं, "अच्छा!! तो आप इसलिए रो रही हैं कि किसी ने रंग नहीं लगाया ??"
बहनें भी काफी दिनों तक चिढ़ाती रहीं, "इन्हें कोई रंग नहीं लगाता तो ये रोने लगती हैं " 

पर एक बात अच्छी  हुई अपनी क्लास के लड़कों का इतना कंसर्न देख ....सारी अजनबियत मिट गयी, अच्छी  दोस्ती हो गयी और बाकी के दो साल हमने बढ़िया गुजारे . 

सोमवार, 11 मार्च 2013

अर्द्धांगिनी शब्द कितना उपयुक्त

 हिंदी का एक बहुप्रचलित शब्द मुझे पसंद नहीं आता. हालांकि अधिकाँश  लोग मेरी सोच से इत्तफाक नहीं रखेंगे .वैसे भी नहीं रखते ,इसलिए चिंता की बात नहीं...:)
लेकिन अक्सर ये शब्द खटकता है और फिर मुझे लगा, अपने मन की  ब्लॉग पर उंडेल देना चाहिए. शायद कोई और मेरी तरह ही सोचता हो , और न भी सोचे क्या फर्क पड़ता है, पर मैं तो ऐसा ही सोचती हूँ.  

वो शब्द है ' अर्द्धांगिनी ,वामांगिनी  ' जो पत्नी के लिए प्रयुक्त होता है. 

अर्द्धांगिनी ,यानी पति का आधा अंग .
वामांगिनी यानि पति का बायाँ अंग .

हालांकि यह शब्द प्यार और सम्मान का ही सूचक  है कि पत्नी तो पति का आधा अंग है, या बायाँ अंग है.
लेकिन पत्नी आधा अंग क्यूँ है? उसका अलग अस्तित्व है. वो एक स्वतंत्र शख्सियत की मालकिन है. 
हम अपने बाएं अंग को हमेशा देखते -सराहते तो नहीं हैं. उस से बस काम लेते हैं या फिर उसमें चोट लगे, वो काम न करे तो उसकी दवा दारु करते हैं कि वह सुचारू रूप से काम करने लगे .
बायाँ अंग भी मस्तिष्क से ही संचालित होता है यानी बायाँ अंग वही करेगा जो पति का मस्तिष्क आदेश करेगा. 
यह सुनने में कुछ अजीब सा लगता है पर है तो सच ही.
होता भी यही है. 
अधिकाँश मामलो में पति का आदेश मानना ही होता है या, उनके मन की  करनी ही होती है. फैसले पर आखिरी मुहर अक्सर उनकी ही होती है. 

जब इस शब्द की संरचना की गयी होगी तो उस वक़्त की सामाजिक व्यवस्था अलग थी. पत्नी के लिए पति ही सबकुछ होता था .हमारे पौराणिक कथाओं में भी है यही लिखा होता है, पार्वती  जी ने इतनी तपस्या की, तब उन्हें शिव जी मिले. या अमुक  देवी ने या राजकुमारी इतने व्रत रखे तो मनचाहा वर मिला. स्त्री का एकमात्र ध्येय होता था ,एक अच्छे पति को पा लेना .( गांवों-कस्बों में आज भी स्थिति बदली है क्या ?? )
जीविकोपार्जन पति ही करता था. चाहे  शिकार करना, अन्न उपजाना या व्यापार करना हो , स्त्री बस उसके घर और बच्चों को संभालती  थी .उसका कोई अलग अस्तित्व नहीं होता था .यही वजह थी कि अगर पति की मृत्यु हो जाए तो फिर स्त्री का अस्तित्व भी विलीन हो जाता था . कुछ प्रदेशो में तो सती प्रथा थी. जहाँ नहीं भी थी , वहां पति की  मृत्यु के बाद विधवाओं का जीवन कैसा होता था, ये सबको ज्ञात है. उनके जीवन से सारे रंग हर लिए जाते थे .वे बस एक छाया बनकर जीवित  रहती थीं. 

अगर पत्नी के जीवित रहते भी पति उस से विमुख होकर किसी दूसरे के प्यार में पड़ जाए तो पत्नी मरणासन्न हो जाती थी. रविन्द्रनाथ टैगोरे का एक उपन्यास है ,' चोखेर बाली '
 सौ साल पहले ही लिखा गया है ..उसमे पति एक दूसरी स्त्री से प्रेम करने लगता है तो उसकी पत्नी की जीवन में कोई रंग नहीं बचता .वह मरणतुल्य हो जाती है. उस वक़्त पति के बिना किसी स्त्री के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जाती थी. इसीलिए यह अर्द्धांगिनी, वामांगिनी  जैसे शब्द सही थे .

पर अब धीरे धीरे स्त्रियाँ अपनी पहचान भी बना रही हैं. अब वे सिर्फ पति का आधा अंग नहीं हैं. बल्कि अपने सम्पूर्ण अंग की स्वामिनी हैं ,जिनके पास अपना मस्तिष्क भी है.जिस से वे काम भी लेती हैं .
 फिर उन्हें पति की अर्धांगिनी ही क्यूँ समझा जाए ?? 

मैं तो पहले भी इस शब्द का प्रयोग नहीं करती थी .पत्नी शब्द ही मुझे ज्यादा उपयुक्त लगता है. 

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...