बुधवार, 15 मई 2013

तीन माताओं का दुलारा : किप्पर

यह एक अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त चित्र है, परिचय में लिखा है कि ये
शिशु गिलहरी  ,इस गिलहरी की संतान नहीं है,बल्कि अनाथ है. 
'मदर्स डे' बड़े धूमधाम से संपन्न हुआ .अखबार टी.वी. फेसबुक सब जगह बड़ी धूम रही. लोगों ने अपने प्रोफाइल फोटो कवर फोटो पर अपनी माँ की तस्वीरें लगाईं. माँ  से जुड़े संस्मरण लिखे गए ,कवितायें लिखी गयीं,  बहुत अच्छा लगा देख, यूँ तो माँ हमेशा यादों में रहती ही है एक दिन सबने साथ मिलकर शिद्दत से अपनी  अपनी माँ को याद कर लिया तो इसमें क्या हर्ज़. कोई भी 'स्पेशल डे' हो या कोई त्यौहार ,मुझे हमेशा ही मनाना बहुत अच्छा  लगता है. उस दिन सामान्य रोजमर्रा  से अलग हट कर कुछ होता है. वैसे भी हमारे देश में मनोरंजन को बहुत कम महत्व दिया जाता है. जबकि अच्छे ढंग से कर्तव्य पालन के लिए मनोरंजन भी उतना ही जरूरी है . मनोरंजन दिमाग को तरोताजा कर देता है, काम की तरफ से ध्यान हटाता है तो मन को ज़रा सुकून मिलता है और फिर दुगुने उत्साह से काम को अंजाम दिया जाता है तो परिणाम भी अच्छे मिलते हैं. 

खैर,  बात यहाँ 'मदर्स डे' की हो रही थी. सबलोग अपनी अपनी माँ को  अपने अपने तरीके से थैंक्स बोल रहे थे ...अपनी कृतज्ञता प्रगट कर रहे थे . एक उड़ता सा ख्याल आया ये ममता की भावना क्या सिर्फ  'जन्मदात्री माँ' में ही होती है . प्यार दुलार ,ममता ,सिर्फ माँ का अपने बच्चों  के लिए  ही नहीं होता, किसी के अन्दर भी किसी के लिए हो सकता है. कई पुरुष भी ऐसे हैं जिन्होंने माँ की अनुपस्थिति में अपने बच्चों को माँ बनकर पाला है. मेरे एक परिचित हैं . उनकी बेटियाँ आठ वर्ष और चार वर्ष की थीं जब उनकी पत्नी की मृत्यु हो गयी. उन्होंने दूसरी शादी नहीं की , नौकरी में प्रमोशन नहीं लिया कि कहीं ट्रांसफर न हो जाए और नए स्कूल, नयी जगह बच्चियों को एडजस्ट करने में परेशानी न हो. सुबह पांच बजे उठते, बेटियों का टिफिन तैयार करके उन्हें स्कूल भेजते, लंच टाइम में आकर उन्हें खाना खिलाते . उनकी पढाई, स्कूल की पैरेंट्स मीटिंग,स्पोर्ट्स डे अटेंड करना ,बीमारी में उनकी देखभाल,रात रात भर जागना किसी माँ  से कम नहीं था .हमारे ब्लॉगजगत में भी एक नामचीन ब्लॉगर हैं जिन्होंने अपने बच्चों को अकेले बड़ा किया है. ऐसे कई लोग होंगे समाज में उनके भीतर भी ममत्व की भावना उतनी ही हिलोरें मारती हैं. 

और सिर्फ वे ही क्यूँ...कई लोग जानवरों को भी एक माँ की तरह पालते हैं. एक किसान अपने बैलों को, गाय भैंस को एक माँ बनकर ही पालता है. उनके खाने-पीने , उनकी सुविधा, उनके आराम का ख्याल रखता है. बीमार पड़ जाने पर उनकी सेवा करता है. और सिर्फ गाय भैंस ही क्यूँ, कुत्ते -बिल्ली भी लोग पालते हैं . और उसकी एक माँ की तरह ही देखभाल करते हैं. मेरे घर में ही इसका ज्वलंत उदाहरण है . तीन तीन माओं का दुलारा ,' किप्पर'  '

मुझे कुत्ते पालना कभी पसंद नहीं रहा. शायद दिनकर जी की ये कविता ,'श्वानों को मिलते दूध वस्त्र  ..भूखे बच्चे अकुलाते हैं "'अवचेतन में इतने गहरे पैठ गयी थी कि किसी पालतू कुत्ते को देख यही ख्याल आता. पर शादी के बाद ससुराल पक्ष का जो भी मिलता उसके पास पतिदेव के श्वान प्रेम की कोई न कोई कथा साथ होती. 'कैसे छोटे छोटे कुत्ते के पिल्लों  को कभी छत पर कभी कबाड़ वाले कमरे में छुपा कर रखते और अपने हिस्से का  दूध उन्हें पिला आते.' महल्ले के कुत्ते रोज सुबह दरवाजे के बाहर डेरा डाले रहते और जब तक नवनीत उन्हें आटे की तरह गींज नहीं देते वे बरामदे से नहीं हटते. (मेरी सासू जी का कथन था ) 
शादी के बाद भी  घर में एक कुत्ता पालने की बात हमेशा उठती पर मैं सख्ती से मना कर देती. 'दो बच्चों को पाल कर बड़ा कर दिया, अब एक और किसी को नहीं पालना '. 
बच्चे बड़े हुए तो इन्हें भी पिता से श्वान प्रेम विरासत में मिला. बड़ा बेटा अंकुर का प्रेम तो कभी इतना मुखर नहीं रहा पर छोटा बेटा अपूर्व, करीब करीब रोज ही जिद करता. उसे अपने जैसे दोस्त  भी मिल गए थे. एक बार बिल्डिंग के बच्चे एक टोकरी में  फटे पुराने कपड़ों के बीच दो कुत्ते के पिल्लों को लेकर हर फ़्लैट की घंटी बजाते ,  मेरे फ़्लैट में भी आये ,"आंटी प्लीज़ इसे पाल लो न..वरना वाचमैन इन्हें कहीं दूर छोड़ आएगा " उनपर दया भी आती पर अपनी मजबूरी थी .एक बार कहीं से ये  लोग दो तीन पिल्ले  उठा लाये और उसे गैरेज में पालने लगे .बिल्डिंग वालों ने जब उन्हें दूर भिजवा दिया ,उस दिन अपूर्व डेढ़ घंटे तक लगातार रोया. शाम को सारे बच्चे खेलना छोड़ ऐसे मायूस बैठे थे ,जैसे कितना  बड़ा मातम हो गया हो.

फिर भी मैं जी कडा कर अड़ी रही  कि कोई कुत्ता नहीं पालना है. पर पिछले साल तीनो (Three Men in my
किप्पर 
house ) की सीक्रेट  मीटिंग हुई और एक कुत्ता पालने का निर्णय ले लिया गया. नेट पर ढूंढ कर कौन सा ब्रीड लेना है. किस केनेल से लेना है, सब तय हो गया. मेरे कानों में भी बातें पड़ीं. और मैंने फिर से एतराज जताया पर इस बार किसी ने मेरी नहीं सुनी. मैंने भी ऐलान कर दिया कि 'मैं उसका कोई काम नहीं करुँगी ' .इसे भी सहर्ष मान लिया गया और एक दिन  एक महीने के Cocker spaniel का हमारे घर में पदार्पण हो गया. अंकुर बचपन में एक कार्टून देखा करता था जिसमे एक कुत्ते का नाम KIPPER  था. इसका नामकरण भी 'किप्पर' हो गया . घर में ये गाना समवेत स्वर में गाया  जाने लगा..."ब्रेव डॉग  
किप्पर' ,जो न पहने कभी स्लीपर ' अपूर्व  तो सातवें आसमान पर विराजमान हो गया, "एक तो उसके बचपन का उसका एक कुत्ता पालने का शौक पूरा  हुआ , उस से छोटा कोई घर मे आ गया और उसका नाम भी मिलता जुलता 'क ' से ही रखा गया,. किंजल्क, कनिष्क, किप्पर'  (ये महज संयोग ही था ) 

मैं 'उसका कोई काम न करने की' अपनी बात पर कायम रही. पर किसी को इसका ध्यान भी नहीं था क्यूंकि 'किप्पर'   का काम करने के लिए तीनो जन हर वक़्त तत्पर रहते. 
नवनीत जो हमेशा से  लेट राइज़र रहे हैं . किप्पर'  को घुमाने के लिए सुबह उठने लगे. ऑफिस जाने से पहले, उसे नहलाना ,हेयर ड्रायर से उसके बाल सुखाना ,फर्श पर लिटाकर  देर तक उसके बाल  ब्रश करना . सब करने लगे. शैम्पू, कंडिशनर डीयो तो लगाया ही जाता है उसका टूथपेस्ट और टूथब्रश भी है. उसके दांत भी साफ़ किये जाते हैं. जबतक  उसकी 'टॉयलेट ट्रेनिंग '  पूरी नहीं हुई थी. तीनो में से कोई भी सफाई  कर देता . बहुत जल्दी ही वो ट्रेंड भी हो गया. (होता भी कैसे नहीं ,वो घर से ज्यादा बाहर ही रहता था, तीनो लोग उसे घुमाने के शौक़ीन ) पर अभी हाल में ही उसने एक बार उलटी कर दी और मेरा बड़ा बेटा अंकुर जो घर के सिर्फ शोफियाने काम  ही करता है (रंगोली बनाना , घर सजाना  आदि ) उसने बेझिझक सफाई कर दी. 

नवनीत का इतनी अच्छी तरह उसकी  देखभाल करते देखकर मैं अक्सर कहती हूँ ,"'पुरुषों को चालीस के बाद ही पिता बनना चाहिए." तब वे कैरियर में थोड़े सेटल हो गए होते हैं और पहले जैसी भागम भाग नहीं लगी होती. आज जब देखती हूँ, नवनीत ऑफिस में फोन कर देते हैं, आज 'किप्पर'  का वैक्सीनेशन है , देर से ऑफिस आउंगा (कभी कभी तो छुट्टी भी ले ली है ) तब मुझे याद आता है कि बच्चे जब छोटे थे , इनके ऑफिस जाने के बाद घर का काम ख़त्म कर एक बच्चे को गोद में उठाये दुसरे की  ऊँगली पकडे डॉक्टर के यहाँ जाती और वहां घंटों  इंतज़ार भी करना पड़ता था . किप्पर'  की ज़रा सी तबियत खराब हुई और तीनो के मुहं लटक जाते हैं . उसे गोद में  में ही उठाये फिरते हैं ये लोग. एक दिन भी अगर उसने ठीक से खाना नहीं खाया और नवनीत तुरंत उसे डॉक्टर  के पास ले जाते हैं. डॉक्टर भी एक महंगा 'टिन फ़ूड' थमा देता है, 'इसे खिलाकर देखिये' और किप्पर'  उसे सूंघ कर छोड़ देता है. 'टिन फ़ूड' के डब्बे सजते जाते हैं. क्यूंकि हर कुछ दिन बाद  नवनीत की रट शुरू हो जाती है, 'ये ठीक से खा नहीं रहा, दुबला होता जा रहा है '( जबकि किप्पर' अपनी उम्र से दो साल बड़ा दिखता है ) 

 
अंकुर की  गोद में किप्पर 
वो अगर  नहीं खाता तो हथेली पर पेडिग्री  ले कर उसे हाथ से खिलाया जाता है वो भी पूरे धैर्यपूर्वक देर तक. .घर के लिए कभी नवनीत ने एक ब्रेड भी न लाई हो पर 
किप्पर'  के लिए रोज अंडे, पनीर. और शाम को आइसक्रीम लेकर आते हैं. और उसे आइसक्रीम खिलाते हुए जो तृप्ति का भाव चेहरे पर होता है, वो तो बस अवर्णनीय ही है. डॉक्टर को फोन करके उसके जन्मदिन की भी जानकारी ली गयी, और दस दिन पहले से ही घ रमें उसके बर्थडे मनाने की धूम. मजे की बात ये कि पहले जन्मदिन के बाद ही झट से डॉग मेट्रीमोनियल इण्डिया 'पर उसका रजिस्ट्रेशन भी हो गया .(हाँ कुत्तों की मेटिंग के लिए भी एक साईट है ) सारे शौक जल्दी जल्दी पूरे कर लेने हैं पता नहीं, बेटे ये मौक़ा दें या नहीं :) (पर एक सोचनीय बात है कि उस साईट पर भी male dogs की तुलना में female dogs बहुत कम हैं .)

 आजकल पतिदेव मुम्बई से बाहर गए हुए हैं . मेरे पूछने पर कि "अब 'किप्पर'  का ख्याल कौन रखेगा ?",दोनों बेटों ने एक सुर  में कहा, "हमलोग हैं न.." उसका ख्याल रखा भी जा रहा है और कुछ ज्यादा ही. एक सुबह चार बजे ही ,अपूर्व उसे घुमाने ले गया क्यूंकि वह कूं कूं कर रहा था .उसे नहलाना, उसके बाल ब्रश करना , खिलाना तो सब  कर ही रहे हैं, एक दिन अंकुर ने उसके लिए रोटी भी बनाई और मदर्स डे था इसलिए मुझ पर भी  कृपा हो गयी. मेरे लिए लिए भी पराठे बनाए. पहली बार के हिसाब से ठीक ही बने थे . 

दुसरे दिन अपूर्व ,किप्पर' के लिए चिकन लेकर आया  और जो कभी चाय भी नखरे के साथ बनाता है. ख़ुशी ख़ुशी उसके लिए चिकन बनाया . ' {अच्छा है, मेरी बहुएं शिकायत नहीं करेंगी :)} .
बस  अपूर्व की एक बात का मैं उत्तर नहीं दे पाती .एक दिन उसने कहा, "सबलोग कहते हैं,  मेहनत के बिना कुछ नहीं मिलता,  मेहनत करो तभी  किस्मत साथ देती  है . ये 'किप्पर'  क्या करता  है जो इसकी किस्मत इतनी चमकी हुई है?? " 

अराधना भी अक्सर अपनी गोली और सोना की तस्वीरें पोस्ट करती रहती है...उनकी बातें शेयर करती रहती है, अराधना की गोली का परिचय है 
नाम- गोली 
मम्मा का नाम- आराधना 
रंग- गोरा 
आँखों का रंग- काला 
ऊंचाई- एक फुट 
लम्बाई- दो फुट
उम्र- एक साल तीन महीने 
मनपसंद काम- कोल्ड ड्रिंक की बोतलों को काट-कूटकर चपटा कर देना :) बाल खेलना और मम्मा को काटना :)
खाने में- डॉग फ़ूड, दही, अंडे, पपीता, संतरा और आम। कच्चा आलू, नूडल्स और आलू भुजिया भी पसंद है, पर मम्मी देती नहीं :(

आराधना ने अपनी 'सोना' का बहुत ही प्यारा वीडियो पोस्ट किया है ,जिसे यहाँ  देखा जा सकता है 

पाबला जी के मैक की कारस्तानियाँ सब जानते हैं. Mac Singh का अपना फेसबुक अकाउंट है .उनके रोज के अपडेट्स और बेशुमार तस्वीरें यहाँ  देखी जा सकती हैं. 
मैक के  पहले जन्मदिन की तस्वीर पर पाबला जी ने 
उसका परिचय कुछ ऐसे लिखा ,"अभी तो माशा अल्लाह 1 साल के हैं ज़नाब
तो 5 फीट की लम्बाई है
जब जवां होंगे तो गज़ब ही ढाएँगे
 — 

वंदना अवस्थी दुबे के पास भी एक प्यारा सा नन्नू है जिसके खाने में बड़े नखरे हैं ,वन्दना कहती हैं..."नन्नू खाना खा ले, इसके लिये भारी जतन करना पड़ता है अब घर ले आये हैं तो पालेंगे भी बच्चे की तरह, कोई कुछ भी कहे " 


ये सब देखकर तो यही लगता है कि ममत्व की भावना ,ममता की अनुभूति पर सिर्फ जन्मदात्री माँ का ही हक़ नहीं .यह भावना सर्वव्यापी है. .  


आराधना अपनी गोली के साथ 

गोली के ठाठ 


पाबला जी का हैंडसम मैक

ध्यान से ख़बरें पढता मैक 


क्यूट नन्नू 
नन्नू के नखरे 


अपूर्व के साथ पढ़ाई करता किप्पर 



अपनी माताजी के साथ किप्पर 



गुरुवार, 9 मई 2013

बातों के शेर


चार दिन पहले बीस- पच्चीस साल पूर्व लिखी एक कविता पोस्ट की...जो उस वक़्त के हालात बयान करती थी. पर आज भी कुछ नहीं बदला ...हालात वैसे के वैसे ही हैं. कुछ महीने पहले भी कॉलेज के दिनों की लिखी एक रचना पोस्ट की थी, उसे पढ़कर भी सबने कहा, बिलकुल सामयिक रचना है .आज की परिस्थितियों का चित्रण . देश के हालात, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्ट्राचार स्वार्थलिप्तता ,कालाबाजारी  सब कुछ आज भी वैसा ही है...जैसा पच्चीस साल पहले था .बल्कि हालात और  बुरे ही हुए हैं .


अभी हाल में ही 'प्रवीण पाण्डेय जी' की पोस्ट पढ़ी "कृपया घंटी बजाएं " इस पोस्ट पर आयी टिप्पणियों में सबने कहा, "बहुत ही उत्तम विचार है. ऐसा अवश्य करना चाहिए. यह एक अच्छी पहल होगी. आदि आदि ." प्रवीण जी ने ये पोस्ट लिखी २०१३  में और मैंने भी २०१० में इसी विषय पर एक पोस्ट लिखी थी "प्लीज़ रिंग द बेल "  . वहाँ भी सबने शब्द अदल-बदल कर यही विचार रखे थे .मैंने पोस्ट में ये जिक्र किया था कि दो साल पहले मुंबई में Please ring the bell  मूवमेंट की जानकारी हुई थी यानि २००८ से यह मुहिम चल रही है .यानि पांच साल से हम यही आग्रह कर रहे हैं कि अपने आस-पास ऐसा कुछ देखें तो जरूर घंटी बजाएं .और सबलोग सर हिला कर कहते हैं ,"हाँ जरूर करना चाहिए. " शायद पांच साल बाद भी कुछ लोग ,यही पोस्ट लिखेंगे और फिर से घंटी बजाने का आग्रह किया जाएगा. और फिर सबलोग सर हिलाकर कहेंगे "बहुत सार्थक पहल है, जरूर करना चाहिए" पर अगर यह मूवमेंट सफल होता, इस से प्रेरित होकर लोगो ने ऐसे कदम उठाने शुरू किये होते  तो फिर बार-बार आग्रह की जरूरत ही क्यूँ पड़ती ?? 

पच्चीस साल पहले लिखी कविता,आज भी उतनी ही प्रासंगिक है .पांच साल पहले शुरू हुआ मूवमेंट ,वहीँ का वहीँ खडा है, घुटनों बल भी चलना शुरू नहीं किया . 
यानि कि कहीं कुछ भी नहीं बदल रहा . बदल भी रहा है तो कछुए की रफ़्तार से नहीं घोंघे की गति से . हाँ, भौतिक रूप से काफी कुछ बदल रहा है . टेलिग्राम से इंटरनेट की दूरी ,हाथ पंखे से ए.सी. की दूरी तो हम छलांग लगाकर पूरी कर रहे हैं पर  ईमानदारी, लगन, मेहनत , संवेदनशीलता ,त्याग जैसे मानवीय गुण और विकसित क्या विलुप्त होते जा रहे हैं. लोग ज्यादा से ज्यादा आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं. 

अपने नजदीकी परिवार से आगे बढ़कर न कोई सोचता है न देखता तो फिर किसी दुसरे से कैसी आशा  ?? क्यूँ कोई महिला आशा करे कि कोई दूसरी स्त्री या पुरुष उसके घर की घंटी बजाकर उसे अपने पति से पिटने से बचाएगी/बचाएगा ?? उन्हें खुद ही कदम उठा कर खुद को इस जलालत भरी ज़िन्दगी से मुक्त करना होगा .पर वही, कहना आसान है. जो स्त्रियाँ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं होतीं और जिनके पिता-भाई उन्हें आश्रय देने को तैयार नहीं होते, उनके लिए तो ऐसे कदम उठाना बहुत मुश्किल है क्यूंकि एक अकेली औरत तो छोटी मोटी नौकरी कर अपनी रोटी और सर पर  छत का इंतजाम कर सकती है. पर उसके साथ बच्चे जुड़े होते हैं ,उनकी परवरिश, शिक्षा बहुत सारी चीज़ें होती हैं जिन्हें उनकी माँ की छोटी सी नौकरी पूरा नहीं कर सकती. यही वजह है कि घर छोड़ बहार निकल जाने का निर्णय वे नहीं ले पातीं. इसीलिए महिला का शिक्षित और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी है.

 सुनने में बहुत कड़वा लगेगा पर या तो महिला को इसकी आदत पड़ जाती है या फिर बच्चे बड़े होकर उसके रक्षक बन खड़े हो जाते हैं पर किसी बाहर वाले से ऐसी आशा रखना व्यर्थ ही है. हाल में ही एक परिचिता मिली. उसने दूसरा फ़्लैट ले लिया है और अब वहीँ शिफ्ट हो गयी है. बातों  बातों में कहने लगी," पहले जहां रहती थी,वहाँ मेरे सामने वाले फ़्लैट से बहुत आवाजें आती थी, उस घर का आदमी अपनी पत्नी को बुरी तरह पीटता था. " 
मैंने कहा "और बिल्डिंग के लोगों ने कभी कुछ नहीं किया, कोई विरोध नहीं किया ?" 
वो बोली, "कोई क्या कहता , वो सबसे लड़ लेता. बिल्डिंग में किसी से मिलता-जुलता नहीं था " फिर खुद की सफाई देने लगी. "मैं तो अकेली दो छोटे बच्चों के साथ रहती हूँ, पति विदेश में है ,मैं क्या कर सकती थी. अभी दो दिनों पहले वो महिला मिली, अपने चेहरे पर के  निशान छुपाने की कोशिश कर रही थी तो मैंने कहा ,"आखिर कब तक ये सब चलेगा ??" 
तो कहने लगी.."अब तो आदत पड़ गयी है " 

बहुत पहले जब 'बोमन ईरानी ' फिल्मो में नहीं आये थे तब वे थियेटर में काम करते थे. 'एम.टी.वी.' वालो ने एक एक्सपेरिमेंट किया था . बोमन ईरानी और उनकी एक सहभिनेत्री पति-पत्नी के रूप में मुंबई के एक पॉश  इलाके के रेस्टोरेंट में गए  .वहां दोनों ने झगड़ने का नाटक किया. बोमन ईरानी ऊँची आवाज़ में पत्नी  को डांटने लगे ,ग्लास का पानी उसके मुहं पर फेंक दिया..पत्नी रोने लगी, उसे थप्पड़ मारने का भी नाटक किया . पूरा  रेस्टोरेंट भरा हुआ था . लोग नीचे सर किये खाना खाते रहे .कुछ के साथ बच्चे भी थे, उनलोगों ने भी नहीं सोचा कि बच्चों पर क्या असर पड़ेगा, उठ कर उस पति को रोकें. 
केवल एक लड़की उठी ,उसने बोमन ईरानी को कुछ कहा तो पलट कर उसने भी जबाब दिया. दूसरा कोई भी स्त्री या पुरुष  उस लड़की का साथ देने के लिए नहीं उठा .वह बाहर चली गयी .अगर लोगों को शुरुआत करने में झिझक हो रही थी...तो कम से कम उस लड़की के स्वर में स्वर मिलाकर तो विरोध करते. पर सब समझते हैं यह पति-पत्नी के बीच का मामला है .पत्नी, पति की प्रॉपर्टी  है,वो उसके साथ जो चाहे कर सकता है. लोग अपने संस्मरण में भी लिखते हैं  कि एक रेस्टोरेंट में पति  ने पत्नी को चांटा मार दिया ,ये देखकर उनका मन खराब हो गया और वे अपने दोस्त के साथ बाहर निकल गए. 
यही होता है, कोई भी उनके बीच हस्तक्षेप नहीं करता. क्यूंकि पत्नी सिर्फ पत्नी होती है एक इंसान नहीं. 
{ प्रसंगवश एक बात  याद आ रही है ,एक फ्रेंड ने अपने बैंक की एक सहकर्मी के विषय में बताया था .वे ऊँची पोस्ट पर हैं. पचास वर्ष से ऊपर की हैं,पर हाल  में ही उनका तलाक हो गया है और उन्हें कोई फ़्लैट किराए पर नहीं मिल रहा. एक बिल्डिंग में फ़्लैट एक मिला भी तो तीन महीने के अन्दर छोड़ना पड़ा क्यूंकि बिल्डिंग वालों  ने आपत्ति की कि ये अकेली रहती हैं,पर इनके घर में लोग आते हैं, पार्टी होती है .एक अकेली औरत का पिटना समाज बड़े मजे में बर्दाश्त कर लेता है पर एक अकेली औरत का हँसना -बोलना उस से  बर्दाश्त नहीं हो पाता }

हाँ, जिन लोगों को  अपने आस-पास घट रही ऐसी घटना नागवार गुजरती है  ,वे अपने अंतर्मन  की सुन यूँ भी उस महिला की सहायता के लिए आते हैं  और जो लोग निस्पृह बने रहते हैं ,चाहे उनके सर पर ही जोर जोर से घंटी क्यों न बजायी जाए ,उन्हें कुछ सुनाई न देगा...वे क्या किसी के घर की घंटी बजायेंगे . 

बस एक काम में हम बहुत आगे बढ़ गए हैं. बक बक करने में. चाहे एफ.एम. की आर.जे. की रात-दिन  की चकर चकर हो या  चौबीसों  घंटे चलने वाले सैकड़ों टी.वी. चैनल्स के एंकर्स की. बातें ..बातें और सिर्फ बातें . 
किसी भी सोशल साइट्स पर  नज़र डालो ,फेसबुक हो या ट्विटर लोग लगे हुए हैं बौद्धिक जुगाली करने में . हम भी ब्लॉग पर यही  कर रहे हैं. मेरे ब्लॉग  का तो नाम ही है ,'अपनी उनकी सबकी बातें' .बस अब बातों के ही शेर रह गए हैं हम. 

शनिवार, 4 मई 2013

ऊसर भारतीय आत्माएं (कविता )


आजकल फिजाएँ कोयल की कूक से गूँज रही है. रोज सुबह कभी लम्बी, कभी बहुत तेज तो कभी धीमी सी कूक सुनाई दे जाती है, कभी-कभी तो पेड़ के नीचे  खड़ी हो कोयल को ढूँढने की कोशिश भी करती हूँ,पर वो पत्तों में छिपी नहीं दिखती .और मुझे अपनी ये पुरातन कविता याद आ जाती है, जो तीन साल पहले पोस्ट की थी . आज रीपोस्ट कर रही हूँ.

एम.ए. की परीक्षा की तैयारियों में व्यस्त थी. अंग्रेजी में कहें तो 'बर्निंग मिड नाइट आयल' जैसा कुछ और उसी 'मिड नाइट'  में एक कोयल की कुहू सुनाई दी. बरबस ही माखनलाल चतुर्वेदी (जिनका उपनाम 'एक भारतीय आत्मा' था) की कविता "कैदी और कोकिला' याद हो आई....ऐसे ही उन्होंने भी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, जेल के अन्दर एक कोयल की कूक सुनी थी और उन्हें लगा था कोयल, क्रांति का आह्वान  कर रही है.

कुछ अक्षर कागज़ पर  बिखर गए जो अब तक डायरी के पीले पड़ते पन्नों में कैद थे. आज यहाँ हैं.

ऊसर भारतीय आत्माएं

रात्रि की इस नीरवता में
क्यूँ चीख रही कोयल तुम
क्यूँ भंग कर रही,
निस्तब्ध निशा को
अपने अंतर्मन की सुन

सुनी थी,तेरी यही आवाज़
बहुत पहले
'एक भारतीय आत्मा' ने
और पहुंचा दिया था,तेरा सन्देश
जन जन तक
भरने को उनमे नयी उमंग,नया जोश.

पर आज किसे होश???

क्या भर सकेगी,कोई उत्साह तेरी वाणी?
खोखले ठहाके लगाते, 
मदालस कापुरुषों में
शतरंज की गोट बिठाते,
स्वार्थलिप्त,राजनीतिज्ञों में

क्या जगा सकेगी कोई जोश तेरी कूक 

भूखे बच्चों को थपकी दे,सुलाती 
दुखियारी माँ में
नौकरी की तलाश में भटक , 
थके, निराश, निढाल बेटे में
दहेज़ देने की चिंता से ग्रसित पिता 
अथवा 
ना लाने की सजा भोगती पुत्री में

मौन हो जा कोकिल
मत कर व्यर्थ 
अपनी शक्ति,नष्ट
नहीं बो सकती, 
तू क्रांति का कोई बीज
ऊसर हो गयी है,'सारी भारतीय आत्मा' आज.

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...