गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

निवेदिता श्रीवास्तव के झरोखे से 'कांच के शामियाने '

निवेदिता श्रीवास्तव एक बहुत ही संवेदनशील  पाठिका हैं . पुस्तकों से उन्हें बेइंतहा प्यार है .अच्छी खासी संख्या में किताबें जुटा अपने घर में एक उत्कृष्ट लाइब्रेरी भी बना रखी है  .अपने ब्लॉग 'झरोखा' पर  प्यारी कवितायें लिखती हैं . फेसबुक पर अक्सर गहन सोच वाले  अर्थपूर्ण कोट  भी शेयर करती हैं . दो प्यारे  बेटों का  लालन पालन  कर उन्हें ऊँची शिक्षा दिला , देश का एक अच्छा  नागरिक  बनाने में उनकी महत्वपूर्ण  भूमिका रही है . दोनों बेटे IIT से पास आउट कर अब ऊँची नौकरियों में हैं . बड़े बेटे ने XLRI से मैनेजमेंट भी किया है . अब वे अपना अधिकाँश  समय साहित्य के रसास्वादन में गुजारती  हैं.
एक बार उन्होंने जब फेसबुक पर पुस्तक मेला से खरीदी कुछ किताबों  की तस्वीर शेयर की थी तो मैंने लिख दिया था ,इन किताबों के विषय में भी लिखा करो . मुझे  नहीं  पता था कि ये मेरा सौभाग्य होगा कि शुरुआत वो मेरी किताब से ही करेंगी :)

रश्मि रविजा के उपन्यास "काँच के शामियाने" को कई बार पढ़ गयी ....... पहली बार के पढ़ने में ही रेशमी धागों की छुवन का एहसास जाग गया था .......... . एक ऐसे रेशमी छुवन का एहसास जो अपने रचनात्मक प्रवीणता से सहज ही गतिमान रखता है ,फिसलाता सा … पर उस के छोर पर एक नामालूम सी गाँठ लगी है ,जो मन को भटकने नहीं देती और कथानक के प्रवाह को एक सतत गति भी देती है ....
रश्मि ने स्त्री मन के हर पहलू को बड़ी ही नफ़ासत से रचा है ……… "जया" में अधिकतर स्त्रियों के मन के तार बज उठते हैं .... न्यूनाधिक रूप से सब में वो समाहित है … किशोर मन सारे शोख रंग अपने दामन में संजोना चाहता है ,पर सच का दूसरा रूप सामने आने पर कदम लड़खड़ा तो जाते हैं पर जीवन की जिजीवषा विजयी होती है ....
हर चरित्र अपने अनूठे मनोविज्ञान से आकर्षित भी करता है और प्रश्न भी करता है ...…. राजीव एक खोखले अहं के साथ जीवन जीता है तो जया तराजू के पलड़ों को साधती धुरी सा .... पढ़ते हुए जब मन एक अंधियारे खोह सा लगने लगता है तभी संजीव एक प्राण - वायु के झोंके सा मन झंकृत कर जाता है …
भाषा की बात करूँ तो थोडे से आंचलिक शब्द भी हैं ,पर वो कथन की गति के प्रवाह में सहज ही लगते हैं .... कई वाक्य तो एकदम से सूत्र वाक्य से लगते हैं ,जो अपनेआप में सम्पूर्ण हैं ....
१ - क्यारी में आँसुओं से सींचे ,दृढ़ निश्चय का खाद पाकर खिले ये तीन फूल ( बच्चों के लिए लिखा है )
२ - वो दोनों दो अलग - अलग ध्रुव की तरह हैं
३ - बच्चे तो गीली मिटटी समान होते हैं
४ - अधिकार तो किसी घर पर नहीं होता । बस शामियाने से तान दिए जाते हैं सर पर । वो भी काँच के शामियाने जो ज़िंदगी की धूप को संग्रहित कर और भी मन प्राण दग्ध कर जाते हैं ।
रश्मि के लेखकीय कौशल की मैं पहले ही बहुत सराहना करती थी ,पर अब इस उपन्यास को बार - बार पढ़ते हुए उसकी लेखनी का अभिनंदन करना चाहती हूँ …
रश्मि ने कुछ समय पहले एक बार मझे ये सुझाव भी दिया था कि किताबें पढ़ने के बाद ये लिखूं कि वो मुझ को कैसी लगी ,तो रश्मि ये काम तुम्हारे उपन्यास के साथ ही पहली बार करने का प्रयास किया है … अब मेरा ये प्रयास तुमको कैसा लगा ये तो तुम ही बेहतर बताओगी .... निवेदिता

2 टिप्‍पणियां:

  1. सारगर्भित समीक्षा ...निवेदिता भाभी को बहुत बहुत शुभकामनायें और आपको ढेर सारी बधाई

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  2. तुम्हारे ब्लॉग पर खुद को ही पढ़ पाना ,सच में रश्मि एक स्वप्न के फलीभूत होने जैसा है .... :)

    तुम्हारा उपन्यास "कांच के शामियाने" तो जैसे बसेरा बन गया है मेरे लिए .... बस अब जल्दी से शची को भी सामने ला दो .... सस्नेह !

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