मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

निदा फाजली की नज्मों, गजलों, यादों में डूबी एक शाम

मन के हर मौसम ने मुखरित होने के लिए जिनसे शब्द उधार मांगे ,उनकी याद में 'चौपाल' द्वारा आयोजित प्रोग्राम करीब पांच घंटे तक चला और साहित्य जगत के कई दिग्गज मंत्रमुग्ध हो उनसे जुड़े संस्मरण ,उनकी नज़्म ,गज़लें सुनते रहे. 'निदा फाजली 'के प्रति अगाध प्यार ही सबको खींच लाया था .

प्रोग्राम का आगाज़ 'विष्णु शर्मा जी ने अपनी दमदार आवाज़ में किया . उन्होंने निदा फाजली के कई मशहूर शेर जोशीले अंदाज़ में पढ़े . 'शकील आज़मी' ने निदा फाजली के आरम्भिक जीवन और उनसे अपनी दोस्ती पर प्रकाश डाला. निदा फ़ाज़ली के वालिद जो खुद भी शायर थे ने उनका नाम 'मुक़्तदा हसन 'रखा था .'निदा फ़ाज़ली' इनका लेखन का नाम है. निदा का अर्थ है स्वर/ आवाज़ . फ़ाज़िला क़श्मीर के एक इलाके का नाम है जहाँ से निदा जी के पुरखे आकर दिल्ली में बस गए थे, इसलिए उन्होंने अपने उपनाम में फ़ाज़ली जोड़ा .

निदा फाज़ली छोटी उम्र के थे तभी कौमी दंगों से तंग आकर उनका पूरा परिवार पाकिस्तान चला गया .पर उन्होंने जाने से इनकार कर दिया और दूर जाकर छुप गए . पूरे परिवार के चले जाने के बाद वे अपने घर में गए और वे कहते थे , "घर के अंदर जाने और फिर बाहर आने के दरम्यान मुझमें बहुत कुछ बदल चुका था ". वे १९६४ में काम की तलाश में मुम्बई आये और धर्मयुग, ब्लिट्ज़ (Blitz) जैसी पत्रिकाओं, समाचार पत्रों के लिए लिखने लगे. उनकी सरल और प्रभावकारी लेखन शैली ने शीघ्र ही उन्हें सम्मान और लोकप्रियता दिलाई। पर पैसों की कमी बनी रही .

रोज शाम साहिर लुध्यानवी के घर उनकी बैठक भी होतीं. खाना और पीना भी होता और उन्हें साहिर की शायरी सुन कर दाद देनी पड़ती (पता नहीं ये बड़े शायरों/लेखकों का क्या शगल है .रविन्द्र कालिया जी ने भी अपनी आत्मकथा 'ग़ालिब छूटी शराब' में लिखा है .वे इलहाबाद में थोड़े दिनों के लिए 'उपेन्द्रनाथ अश्क ' के यहाँ रहते और खाना खाते थे .बदले में रोज शाम उन्हें उनकी रचनाएँ सुननी पड़तीं ) एक शाम नशे में 'निदा फाजली' ने साहिर की किसी शायरी में कई कमियाँ निकाल दीं .अब साहिर नाराज़ हो गए .(हम सब साहिर के प्रशंसक हैं, पर सच तो सच है ) निदा फाजली को बिना खाना खाए घर से निकल जाना पड़ा पर साहिर ने उनकी जेब में कुछ रुपये डाल दिए थे कि उन्हें भूखा ना रहना पड़े. लेकिन साहिर की नाराज़गी कम नहीं हुई थी .जब आर.डी. बर्मन ने निदा फाजली की एक गजल किसी फिल्म के लिए ली तो साहिर ने उनसे मना करवा दिया. आर.डी.बर्मन ने कुछ रुपये देकर माफी मांग ली . एक मुशायरे में भी जब दोनों को आमंत्रित किया गया था तो साहिर ने कह दिया,'निदा फाजली' को बुलाया जाएगा तो वे शिरकत नहीं करेंगे . ( जिन शायरों के प्रति दिल में इतना सम्मान होता है, उनकी ऐसी बातें कष्ट पहुंचाती हैं पर फिर ये भी यकीन होता है कि वे एक इंसान ही हैं, कोई भगवान नहीं ) 'शकील आज़मी' ने निदा फाजली के विषय में भी कहा कि उनकी पहली किताब की भूमिका निदा फाजली ने लिखी थी पर उसके विमोचन में वे वायदा कर के भी नहीं आये .शायद किसी और मुशायरे में ज्यादा पैसों का आमन्त्रण आ गया था . जबकि एक मुशायरे में सभी नए लोगों को श्रोता हूट कर दे रहे थे . 'शकील आज़मी' भी आमंत्रित थे .पर आयोजकों ने श्रोताओं का मूड देख, उन्हें मंच पर बुलाने का इरादा त्याग दिया .लेकिन निदा फाजली अड़ गए कि शकील आजमी को मौक़ा नहीं दिया जायेगा तो वे भी मंच पर नहीं आयेंगे .

निदा फाजली की  पत्नीश्री  'मालती जोशी', उनके दोहे गाती हुई.
'अब्दुल अहद साज़' जी ने निदा फाजली की रचनाओं पर विस्तार से चर्चा की . निदा फाजली की रचनाओं पर कबीर, सूर, मीरा का बहुत प्रभाव पडा है. उनका अध्ययन बहुत गहन था . उनकी रचनाओं में साम्प्रदायिक सद्भाव धड़कता रहता है. उनके मशहूर शेर
"घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो, यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये " पर मुल्लाओं ने उन्हें घेर लिया था कि 'क्या वे बच्चे को अल्लाह से बड़ा मानते हैं ?'.इस पर निदा फाजली का जबाब था ,'मस्जिद इन्सान ने बनाया है जबकि बच्चे को अल्लाह ने. '
रचनाओं का जिक्र सुन सुन कर यूँ लग रहा था ,निदा फाजली की हर रचना करीब करीब याद है .उनकी अपनी बेटी के जन्म पर लिखी प्यारी सी पंक्तियाँ सबके चहरे पर बरबस मुस्कान ले आईं .

निदा फाजली की पत्नीश्री 'मालती जोशी' का संस्मरण 'नेहा शरद' ने बहुत ही भाव भरे स्वर में आत्मीयता से पढ़ा .'मालती जोशी' फिल्मों में काम करने की इच्छुक थीं.उन्हें मानस मुखर्जी (गायक शान के पिता ) ने एक फिल्म के लिए साइन किया जिसकी पटकथा निदा फाजली लिख रहे थे . निदा फाजली और मालती जोशी एक ही बिल्डिंग में रहते थे . फिल्म निर्माण से सम्बंधित बातचीत मालती जोशी के फ़्लैट में ही होती थी. लेकिन वो फिल्म बंद हो गई . दोनों उस बिल्डिंग से शिफ्ट हो कहीं और रहने चले गए . मालती जोशी का एक एक्सीडेंट हो गया और उन्होंने फिल्मों में एक्टिंग का ख़याल छोड़, गायन अपना लिया . उन्हीं दिनों 'निदा फाजली' की लिखी और जगजीत सिंह -चित्रा सिंह की गाई ग़ज़ल ,
' दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
मिल जाये तो मिट्टी है, खो जाये तो सोना है' बहुत मशहूर हुआ ."
मालती जोशी को ये ग़ज़ल बहुत पसंद आई थी और वे उस शायर से मिलना चाहती थीं . एक दिन एक बैंक में निदा फाजली से मुलाक़ात हुई तो पता चला वे पास में ही रहते हैं और ये उनकी ही गजल है . दोस्ती पुनः परवान चढ़ी .निदा फाजली अकेले रहते थे .मालती जोशी ,उनका ख्याल रखने लगीं. और एक दिन निदा फाजली ने ये नज़्म उन्हें सौंप कर प्रपोज़ कर दिया .
"मुमकिन है सफर हो आसान;
अब साथ भी चलकर देखें!"
इस गजल का अंतिम शेर है
,"अब वक्त बचा है कितना जो और लड़ें दुनिया से
दुनिया की नसीहत पर भी थोडा सा अमल कर देखें "
मालती जी को काम के सिलसिले में तीन महीने के लिए बहरीन जाना पड़ा...दूरियों ने नजदीकियां और बढ़ा दीं. उनके लौटने पर दोनों ने शादी कर ली .एक प्यारी सी बेटी 'तहरीर' का जन्म हुआ. मालती जी बताती हैं, वे ज्यादा से ज्यादा वक्त अपनी स्टडी में गुजारते थे .दुनियादारी से कोई मतलब ना था . चेक पर बिना पूछे साइन कर दिया करते . उनके जाने के बाद माँ-बेटी की दुनिया बिलकुल ही सूनी हो गई पर निदा जी के शेर ने ही उन्हें सहारा दिया ,
" अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाये "

मशहूर पटकथा और संवाद लेखक जावेद सिद्दकी ने भी निदा फाज़ली से जुड़ी अपनी प्यारी यादें शेयर कीं . उनके संघर्ष के दिनों का भी बयां किया. उन दिनों निदा फाजली के एक शेर (जो एक आधुनिक कविता के दौर का था ) की काफी आलोचना की गई थी
सूरज को चोंच में लिए मुर्गा खड़ा रहा
खिड़की के पर्दे खींच दिए रात हो गई

निदा फाजली की बिटिया 'तहरीर '
जिसका अर्थ था कि प्रकृति ने तो सुबह का उजाला कर दिया, पक्षी भी जग गए पर इंसान ने पर्दा खींच कर रात कर लिया. इसे सही अर्थों में नहीं लिया गया .जावेद सिद्दकी ने भी अपने एक कॉलम में इसका काफी माखौल उड़ाया कि यह किस किस्म का शेर है . फिर एक दिन उन्होंने एक किताब की दुकान में दुकान के मालिक से एक हैरान परेशान नौजवान को शिकायत करते सुना कि अमुक से हमारे पैसे देने के लिए कह दीजियेगा '
जावेद सिद्दकी ने जब माजरा पूछा तो पता चला, ' एक करोडपति को मुशायरे में जाने का शौक था पर उन्हें शेर कहने नहीं आते थे. वो नौजवान निदा फाजली हैं जो उनके लिए शेर लिखते और बदले में पैसे मिलते थे '.जावेद सिद्दकी उन करोडपति साहब को जानते थे और उनके शेर बहुत पसंद भी करते थे .अब उन्हें पता चला कि असल में वो सब निदा फाजली का लिखा है, जिनकी शायरी का वे मजाक उड़ा चुके हैं. उन्होंने निदा फाजली का लिखा ढूंढ कर पढ़ना शुरू किया और फिर उनकी आपस में अच्छी दोस्ती भी हो गई .

चौपाल के दूसरे सत्र में निदा फाजली की रचनाओं का गायन था .कुलदीप जी और उनकी टीम ने उनकी रचनाओं को इतने तरन्नुम में इतना डूब कर गाया कि रोमांच हो आया .
'गरज बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला
चिड़ियों को दाने, बच्चों को गुड धानी दे मौला "
"बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी माँ
फटे पुराने इक अलबम में
चंचल लड़की जैसी माँ "
भूपेन्द्र मिताली भी आये थे. भूपेन्द्र ने सदाबहार ग़ज़ल ,' कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता..." अपनी पुरसोज़ आवाज़ में गाई . भूपेन्द्र पर उम्र हावी होने लगी है .उन्हें डगमग क़दमों से चलते देख , एक कसक सी होती है पर आवाज़ वैसी ही दमदार है .

प्रोग्राम के बीच में ही सफेद कुरते में एक ऊँचे पूरे व्यक्तित्व के सज्जन आये और कोने में खड़े हो गए .एक बार लगा, 'तलत अज़ीज़' हैं. फिर लगा नहीं वे तो बहुत युवा हैं...इनकी दाढी और बालों में भी कहीं कहीं सफेदी झलक रही थी. पर मैं भूल गयी थी , 'तलत अज़ीज़' का एक प्रोग्राम बिलकुल सामने बैठ कर देखा था पर सोलह साल पहले . वे 'तलत अज़ीज़' ही थे और उन्होंने स्टेज से थोड़े स्टार वाले नखरे भी दिखाए . वे निदा फाजली की एक गजल गाना चाहते थे पर वह उनके आई पैड में नहीं था . एक लड़का मोबाइल में लेकर आया तो तलत अज़ीज़ ने फरमाया, 'उन्हें हिंदी पढने नहीं आती...वे सिर्फ उर्दू में लिखा पढ़ते हैं '.(दसवीं तक तो हिंदी पढी ही होगी ) .उन्होंने गुजारिश की कि कोई उर्दू में लिख कर उन्हें ये गजल दे . प्रोग्राम शुरू हुए चार घंटे हो चुके थे और इन सबमे कीमती समय नष्ट हो रहा था . निदा फाजली की कोई भी गज़ल सुना देते और इतनी तैयारी तो उन्हें पहले से कर के आनी चाहिए थी .आखिर शकील आजमी ने उन्हें वो गजल उर्दू में लिख कर दी तब उन्होंने गाया ," जिंदगी ने सब कुछ दिया पर दिया देर से..." इस से पहले उनसे जुड़े कुछ संस्मरण और कुछ ग़ज़लें भी गाईं .

घनश्याम वासवानी. जसविंदर ने उनकी मशहूर गज़लें गाईं .
मालती जोशी जी ने निदा फाज़ली के दोहे गाये. मालती जी ने बताया दुनिया को रुखसत कहने से कुछ ही दिनों पहले निदा जी ने एक बहुत ही सामयिक दोहा कहा था ,"
"गंगा जी के घाट पर करे जुलाहा बात,
वादा करके सो गए क्यूं अच्छे दिन रात "

इस कार्यक्रम में एक कमी खलती रही .यूँ तो वहाँ उपस्थित सभी लोग निदा साहब की तस्वीर से वाकिफ थे . ज्यादातर लोग मिल चुके थे और रूबरू सुन भी चुके थे . फिर भी स्टेज पर उनकी एक तस्वीर होनी चाहिए थी . युवावस्था से लेकर अंतिम दिनों तक की तस्वीरों का कोई कोलाज़ होता तो और बेहतर. जिनके विषय में सुन रहे होते हैं, जिनकी रचनाओं का पाठ हो रहा होता है.उनकी तस्वीर पर भी नजर पड़ती रहे तो उस महान हस्ती की उपस्थिति का अहसास होता रहता है. हो सकता है , ये सिर्फ मुझे ही खला हो वरना 'चौपाल' द्वारा आयोजित कार्यक्रम पूरी तरह मुकम्मल होते हैं और बेहतरीन अनुभवों से समृद्ध कर जाते हैं ।
भूपिंदर

तलत अज़ीज़



शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

'काँच के शामियाने ' पर गंगा शरण सिंह जी के विचार

गंगा शरण सिंह उन गिने चुने लोगों में से हैं जो विशुद्ध पाठक हैं. वे लगतार पढ़ते रहते हैं और करीब करीब
सारी प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ उन्होंने पढ़ रखी हैं. वे जिनके लेखन से प्रभावित होते हैं ,उन लेखकों से फोन पर या मिलकर लम्बी साहित्यिक चर्चा भी करते हैं. लोग दर्शनीय स्थलों की यात्रा पर जाते हैं, वे कभी कभी लेखकों से मिलने के लिए यात्रा पर निकलते हैं . उन्होंने 'काँच के शामियाने ' पढ़कर उसपर अपने विचार रखे, बहुत आभारी हूँ.

                               "कांच के शामियाने"
फेसबुक और अन्य तमाम स्त्रोतों से मिलती निरंतर प्रशंसा और पाठकीय प्रतिक्रिया देखकर उपरोक्त उपन्यास पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ जाना स्वाभाविक था। एक सहज सा कौतूहल मन में जागता था कि आखिर क्या होगा इस रचना में कि जो भी पढ़ता है वो इसके रचनाकार से बात करने को तड़प उठता है।
कुछ समय बाद जब ये उपन्यास उपलब्ध हुआ उस वक़्त मैं किसी और किताब को पूरा करने में व्यस्त। कुछ दिन बीत गए। एक दिन रात को अचानक किताब उठा लिया और सोचा कि चलो दो चार पृष्ठ पढ़कर देखते हैं। पर एक बार आग़ाज़ हुआ तो फिर ये सफ़र अंजाम पर जाकर ही थमा। ये करिश्मा रश्मि रविजा की लेखनी का है जो चंद पृष्ठों में ही मन को बाँध लेती है। बेहद सरल किन्तु अद्भुत आत्मीय भाषा का संस्पर्श एक बहुत ही दुखद और दिल दहला देने वाले कथानक को जिस तरह की रवानी देता है, वो हिन्दी कथा साहित्य में आजकल विरल सा है क्योंकि इन दिनों शिल्प और कला के नाम पर ऐसे ऐसे लेखकों को प्रोमोट किया जाता है जिनको पढ़कर सर धुनने स्थिति बन जाती है।
ये उपन्यास पढ़ते समय बरबस मुझे कभी सूर्यबाला जी याद आती रहीं तो कभी मालती जोशी जी, क्योंकि ये ऐसी लेखिकाएँ हैं जिन्होंने अपनी सरल और सहज रचनाओं से एक पूरी पीढ़ी को समृद्ध किया। तथाकथित महान आलोचकों की कृपा दृष्टि भले ही इन्हें न मिली पर पाठकों का भरपूर प्यार व आदर इन्हें नसीब हुआ।
कथा में ऐसी तमाम सारी संभावनाएं थी जहाँ कथानक के बहाने भाषा अभद्र हो सकती थी पर रश्मि जी ने क्षण भर के लिए भी अपनी शब्द-निष्ठा को नहीं गँवाया। कथा के सारे चरित्र इस तरह से चित्रित किये गए हैं कि जीवन्त हो उठे हैं। बेहद घमण्डी और क्रूरता की पराकाष्ठा को छूते पति का घृणित किरदार हो या अवसरवादी सास ससुर, स्वार्थी बड़ा देवर या स्नेही छोटा देवर, नायिका की माँ, बहनें और कहानी में आये हुए अन्य सभी पात्रों का चित्रण तन्मयता से हुआ है।
उपन्यास के आखिरी पृष्ठों में नायिका और उसके बच्चों के वार्तालाप एवं उनके परस्पर रागात्मक सम्बंन्धों की ऊष्मा से आँखें बरबस भर आती हैं।
एक सार्थक, सुन्दर और मार्मिक उपन्यास के सृजन हेतु रश्मि जी को हार्दिक शुभकामनाएं। आप जैसे लिखनेवालों को देखकर भविष्य के प्रति मन आशान्वित होता है

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...